Gyan Ganga: भक्त हनुमान और भगवान श्रीराम की रसीली, अलौकिक व भावपूर्ण कथा

By सुखी भारती | Dec 15, 2020

गतांक से आगे...प्रभु श्री राम−श्री हनुमान जी की प्रथम भेंट के इस सुंदर प्रसंग को हम सागर से भी गहरा व विशाल होता देख पा रहे हैं। कारण कि सागर तो फिर भी असीम है लेकिन भक्त और भगवान की रसीली, अलौकिक व भावपूर्ण कथा इतनी विराट व अथाह है कि इस कथा का कोई ओर−छोर दिखाई नहीं देता। शब्दों व कलम में ऐसा सामर्थ्य कहाँ कि वे इस कथा को ब्यां कर सके। लेकिन यह प्रभु की इच्छा है कि वे भिन्न−भिन्न साधनों से अपनी दिव्य लीलाओं का शिलान्यास करवा कर हमें आत्म कल्याण की ओर अग्रसर कराते हैं।

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श्री हनुमान जी का भाव देखिए वे एक नन्हे शिशु की मानिंद व्यवहार कर रहे हैं। एक ऐसा शिशु जो अपनी माता से उलाहने करने में किचिंत भी नहीं घबराता और न ही टलता है। शिशु का तो मानो स्वभाव ही है कि वह माटी व गंदगी से मलिन होगा ही होगा। यह तो जैसे उसके जन्मसिद्ध अधिकार जैसा है। फिर इसमें कैसी हैरानी? क्योंकि आश्चर्य तो तब है कि माँ यह सब देखती रहे और शिशु की गंदगी साफ ही न करें। शिशु की सुध तक न ले और उसे भूल जाए। श्री हनुमान जी यही तो उलाहना दे रहे हैं−


एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।

पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।


अर्थात् हे प्रभु आप क्यों नहीं देख रहे? एक तो मैं मंद, मोहवश, हृदय का कुटिल एवं अज्ञान से भरा हूँ। मलिनताएं मुझे नख से सिर तक पीड़ित किये हुए हैं। आप को तो अविलम्ब मुझे शिशु की भांति गोद में उठा लेना चाहिए। लेकिन आप तो मुझसे उलटा यह पूछ रहे हैं कि मैं कौन हूँ?

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प्रभु अधों से तो कुछ नहीं बोले पर दिव्य मुस्कुराहट में गाथाओं का विवरण समेटे हुए हैं। मानो पूछ रहे हों कि हनुमान तुमने अपने मुख्यतः चार रोग बताए− मंद, मोहबस, हृदय की कुटिलता व अज्ञानता। इनमें से सबसे अधिक व्याधि क्या प्रतीत होती है? भाव की गंगा श्री हनुमान जी के हृदय से भी फूट पड़ी कि हे प्रभु! मेरी चारों व्याधियां तो मानो कोढ़ी का कोढ़ था। जिससे पार पाने की मैंने आस ही त्याग दी थी। यही मेरी मानसिक दरिद्रता का केन्द्र बिंदु थे। लेकिन जो घाव व मानसिक पीड़ा आपने मुझे यह पूछकर दी है कि मैं कौन हूँ उसके सामने मेरी समस्त पीड़ाएं गौण हैं। भला हमारा यह पंचतत्त्व देह धरण करने का औचित्य ही क्या रह गया? जब हम आपकी ही दृष्टि से ओझल हो गये। मानो पपीहा कब से पीउ−पीउ की रट लगाए आसमान पर नज़रे जमाए बैठा रहे। और मेघ उस दिशा का पता ठिकाना ही भूल जाए। तो उस पपीहे की स्थिति कैसी दयनीय होगी पता है न! बस आपका भी मुझे यूं भूल जाना हृदय में चुभे कांटे की तरह अखर गया प्रभु−


जदपि नाल बहु अवगुन मोरे। 

सेवक प्रभुहि परै जनि भोरे।।


अर्थात् हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं तदापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े। सही भी था। क्योंकि अगर पृथ्वी ही किसी पेड़ को जड़ें जमाने से मना कर दे तो वह पेड़ की क्या गति होगी। पक्षी है तो आसमां भी उसे बाहें फैला कर स्वीकार करे। तभी तो वह उड़ पाएगा। वर्ना आसमां ने ही उसे पटका कर धरा पर दे मारा तो उसका अस्तित्व भला क्या बचेगा। माना कि आप उस पर रीझते हैं जो आपकी  भजन−बंदगी में लगा रहता है। तो लगे हाथ मैं आपको एक अंदर की बात बता दूं। क्योंकि लोग भले मुझे भक्त समझें। परंतु मैं शोर मचा−मचाकर कहता हूँ कि मुझे कोई भजन बंदगी नहीं आती−


ता पर मैं रघुबीर दोहाई। 

जानऊँ नहिं कछु भजन उपाई।।


श्री रघुवीर, वीर हनुमान जी के प्रेम भावों का बड़ी रीझ से रसपान कर रहे थे। और कितने ही समय के पश्चात उन्हें कोई मिला था जो यह कह रहा था कि मुझे कोई भजन इत्यादि नहीं आता। वरना श्री राम तो प्रत्येक घड़ी ऐसे ही भक्तों का सामना करते हैं। जो जानते तो चुल्लू भर नहीं होते और गाल ऐसे बजाते हैं मानों सातों समुद्र उन्हीं की अंजुली में सिमटे हों। जैसे हैं वैसे तो अपने को कोई प्रस्तुत नहीं करता। बस नाम और दाम बड़ा दिखना चाहिए। भले ही इसके लिए राम कितने भी छोटे दिखाने पड़ जाएं। यूं ही अहंकार लेकर जब कोई प्रभु के समक्ष बिलकुल तना, सीधा व अकड़ा रहता है तो प्रभु के श्री चरणों में थोड़ी न टिका रहता है। जैसे धनुष व बाण को ही देखिए। तीर बिलकुल सीधा है उसमें कहीं कोई टेढ़ापन नहीं। यद्यपि धनुष टेढ़ा है, सीधा बिलकुल भी नहीं। क्या आप बता सकते हैं कि तीरअंदाज किस को अपने पास रखता है? और किसको दूर धकेलता है। जी हाँ! तीर अंदाज धनुष को अपने कंधों पर सजाकर रखता है। और तीर को दूर भेजता है। कारण कि धनुष को कितने भी बार, मोड़ा जाए वह मुड़ने से कभी मना नहीं करता। और दोनों किनारों से रस्सी से बंधा होने पर भी कभी स्वतंत्र होने के लिए फड़फड़ाता नहीं। फलस्वरूप तीरअंदाज के कंधों का श्रृंगार बना रहता है। यद्यपि तीर हमेशा तुणीर पे कब्ज़ा कर पीठ पे चढ़ा रहता है। और तीरअंदाज की पीठ पीछे ही अपने शिकारों को निहारता रहता है। तीखी नुकीली नाक लिए सदैव रक्त का प्यासा रहता है। तीरअंदाज जब उसे धनुष पर चढ़ाने के पश्चात अपनी ओर खींचता है तो मानो यही कहना चाहता है कि हे तीर तू मत जा कहीं पर! यही रह मेरे पास, देख मैं तुझे कैसे अपनी और खींच रहा हूँ। देख तुझे खींचने के चक्कर में मेरे धनुष की कमर भी मानो टूटने पर को है। पर तब भी मैं तुझे और बल से खींच रहा हूँ। लेकिन तीर तो तीर है। कहाँ मानने वाला है। तीरअंदाज सोचता है कि अब तो मैंने संपूर्ण बल से तीर को खींच लिया है। अब तो यह टिका ही रहेगा। चलों क्यों न अब मैं इस पे बल व प्रयास छोड़ दूं। जानते हैं सज्जनो! तीरअंदाज के द्वारा तीर छोड़ते ही तीर उतनी गति व तीव्रता से दूर भागता है जितने अधिक बल से उसे अपने पास रखने का प्रयास किया गया था।

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कहने का तात्पर्य हम धनुष की तरह टेढ़े−मेढ़े भी हैं लेकिन जैसे कहो वैसे मुड़ जाते हैं। तो निश्चित ही है कि मालिक के कंधे पर टिके रहेंगे। नहीं तो तीर की तरह अकड़ कर पता नहीं कहाँ−कहाँ किस−किस को कष्ट देना है।


श्री हनुमान जी धनुष की तरह झुक तो गए लेकिन आगे क्या हुआ जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...


- सुखी भारती

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