By सुखी भारती | Mar 04, 2021
सुग्रीव के चरित्र से हम सब लोग भली−भांति अवगत हैं कि सुग्रीव भले ही बलवान हों। लेकिन वह बालि से इतना ज्यादा भयभीत हैं कि वह कंद्राओं में छुपकर रह रहे हैं। यह केवल सुग्रीव की ही गाथा नहीं है। अपितु संसार में समस्त जीव किसी न किसी भय से व्याप्त है। और भय जीव को भगाता है, दिन−रात उसके पीछे पड़ा रहता है। भय हमें रह रहकार अहसास करवाता है कि तू निर्बल है, असहाय एवं विवश है। ऐसे में जीव मानसिक रोगी बन जाता है। सुग्रीव जैसे ऋर्षयमूक पर्वत तक ही सिमटकर रह गया था। वैसे ही जीव भी अपने ही कपोल कल्पित विचारों की गुफा में सिकुड़ कर रह जाता है।
श्रीराम जी से बस यही तो नहीं देखा जाता। वे कहते हैं कि हे जीव! तू यह कैसे भूल जाता है कि मैं जब तेरे साथ हूँ, मेरा बल तुझ पर न्योछावर है तो फिर तुझे किस से भय लगता है? हे सुग्रीव! मुझे अगर अपनी पत्नी ढूंढ़ने हेतु किसी समर्थ व बलवान साथी की कोई आवश्यकता होगी तो निश्चित ही मैं तुम्हारी अपेक्षा बालि का ही चयन करता। लेकिन मैंने बालि नहीं अपितु तुम्हारा चयन किया है क्योंकि मुझे किसी के बल की नहीं अपितु मेरे बल की किसी को आवश्यक्ता थी। और मेरे उस बल के अधिकारी तुम हो। और मैं कितने ऊँचे स्वर में कह रहा हूँ कि सुग्रीव तुम आगे बढ़ो। मैं और मेरा बल तुम्हारे पीछे खड़े हैं। आश्चर्य है कि बालि को अपने मिथ्या व अहं युक्त बल पर भी तनिक संदेह नहीं और तुम हो कि मेरा बल साथ पाकर भी भयभीत व विचलित हो।
सुग्रीव अपने बिखरे मन को संगठित करता है स्वयं को समझाता व उपदेश करता है। प्रभु के सामर्थ्य व बल का बार−बार स्मरण करते हुए अपने आत्म−विश्वास को प्रखर व अडिग बनाने का प्रयास करता है। और परिणाम यह निकलता है कि सुग्रीव बालि को ललकारने हेतु तैयार हो जाता है। और श्रीराम जी को लगता है कि लो मैं अपने लक्ष्य भेदन में सफल हो गया। क्योंकि मेरा संग पाकर भी कोई निर्बल बना रहे तो फिर क्या लाभ। अधर्म, अनीति व अज्ञानता के सामने कोई व्यक्ति उठ खड़ा हो, बुराई को उसके द्वार पर जाकर ललकारे तो समझो समाज परिवर्तित होने वाला है। नई क्रांति का बिगुल बज उठा है और यूं मानो कि ऐसे अनाचारी के खिलाफ कदम उठ खड़े हुए तो युद्ध से पहले ही विजय का स्वाद चख लिया है। कदम नहीं उठाना ही गले में हार के हार को टांगे रखना होता है। और सुग्रीव जैसे दबे−कुचले जीवों का साहस लौट आना वास्तव में सुग्रीव की नहीं अपितु मेरी ही जीत है।
केवल आज ही क्यों सतयुग में भी तो ऐसा ही घटित हुआ था। हिरण्यकश्यपु ने कैसे दहाड़ कर कहा था कि क्या प्रभु उस निर्जीव स्तंभ में भी हैं? उसके प्रहार की छूहन भर से मेरा उस स्तंभ में से नरसिंह अवतार प्रकट हो गया था। वह निर्जीव खंभा तो केवल संकेत मात्र था। क्योंकि निर्जीव तो वास्तव में सजीव प्राणी थे जो मुर्दों की भांति हिरण्यकश्यपु के अधर्म व पाप के मूक साक्षी बने हुए थे। लेकिन जीवन में जरा-सी एक चोट क्या लगी कि उसमें साहस व क्रांति का ऐसा नरसिंह प्रकट होता है कि हिरण्यकश्यपु रूपी अधर्म को नाश कर देता है।
सुग्रीव का बालि के विरुद्ध उठ खड़ा होना एक नवीन सृजन की नींव है। क्यों मानव को लगता है कि मैं निर्बल हूँ? क्यों वह भूल जाता है कि मेरे पीछे ईश्वर का बल कार्य कर रहा है। जबकि मैं पल−पल जीव को संकेत करता हूँ कि देख तू पग−पग पर असमर्थ था। लेकिन मैंने किसी भी परिस्थिति में तुम्हारा साथ नहीं छोड़ा। माँ के गर्भ में जब तू नौ मास तक उल्टा लटका होता है, तो यह कोई कम प्रतिकूल स्थिति नहीं थी। तुझमें कहाँ यह बल था कि यह कष्ट सह पाते। शरीर के अंग भी ढंग से खुल नहीं पाते थे। कल्पना करो कि आज यद्यपि तुझमें शारीरिक क्षमता व बल भी अधिक है, अब अगर नौ मास तो क्या नौ क्षण भी ठीक वैसे ही उलटे लटकने को विवश कर दिया जाए तो तेरा क्या हाल हो तू इस कल्पना से ही सिहर उठेगा। वहाँ पर किसने तेरी रक्षा की? कभी सोचा भी है? जन्म हुआ तो शारीरिक क्षमता का असीम अभाव था। लाख स्वादिष्ट व्यंजनों के होने के बावजूद भी तेरे मुख में एक दांत तक नहीं था कि उन व्यंजनों का उपभोग कर सके। उसी समय माँ के आँचल में दूध आ जाना क्या ये मेरी प्रत्यक्ष कृपा का प्रमाण नहीं था? मुझे पता था कि धीरे−धीरे दूध के साथ−साथ तेरा अन्य भोज्य पदार्थों के सेवन का भी मन होता है तो मैंने तुझे नन्हें−नन्हें दांत दे दिए। तूने खूब छक कर सब कुछ खाया लेकिन सात−आठ वर्ष के आते−आते तेरे रूचिकर भोजन पदार्थों की सूची लंबी होती गई। जिसका सेवन करने में तेरे नन्हें दांतों का सामर्थ्य अभी सीमित था। तो मैंने सभी के सभी दांत झाड़ दिए और नए सिरे से पक्के दांत पुनः मोतियों की तरह तेरे मुख में जड़ दिए।
तेरी समस्त अक्षमताओं को अपनी क्षमता के बल से ढंकने की गाथा बड़ी लंबी व अनंत है। बस तेरे देखने भर की बात है। फिर देखना पग−पग पर भी बालि जैसे बाधक क्यों न बैठे हों, तू उन्हें चुटकियों में मसल सकता है। इसलिए हे जीव! तू किसी और का अंश नहीं अपितु मेरा ही अंश है। मैं जब किसी से भयभीत नहीं तो मेरा अंशी भला भयभीत क्यों हो? मैं पिता हूँ तो पुत्र पिता से अलग क्यों? तेरे हारने का कोई प्रश्न ही नहीं। उठ खड़ा हो और दूर कर दे अपनी प्रत्येक बाधा। प्रभु श्रीराम जी का आदेश प्राप्त कर सुग्रीव तो उठ खड़ा हुआ लेकिन क्या वह सफल हो पाता है? जानने के लिए अगला अंक जरूर पढ़ियेगा। क्रमशः... जय श्रीराम
-सुखी भारती