By अभिनय आकाश | Oct 11, 2022
दिल्ली से कभी आप कलकत्ता की तरफ जाते हैं तो एक शहर पड़ता है जिसकी सड़कों पर हमेशा चहल-पहल रहती है। शहर का नाम है जसवंतनगर, इटावा के करीब का शहर। इसी जसवंतनगर सीट पर साल 1967 में डॉ. राममनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़कर मुलायम सिंह यादव माननीय विधायक बने थे। यूपी के धरतीपुत्र प्रदेश के हर जिले में उनके जुड़ी हजार किंवदंतियां आपको सुनने को मिल जाएंगी। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव का 10 अक्टूबर को निधन हो गया। मुलायम सिंह यादव का पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार के लिए जाया जा रहा है। अंतिम यात्रा में जनसैलाब उमड़ा। मुलायम सिंह ने अपने 55 साल के राजनीतिक करियर में साढ़े तीन दशक तक तो केंद्र की राजनीति से दूरी बनाए रखी, लेकिन बसपा से अलगाव के बाद जब दिल्ली का रूख किया तो देश की राजनीतिक के धुरी बन गए।
विरोध में सहमति का गुण
मुलायम सिंह यादव को धरती पुत्र और नेताजी के उपनामों से जाना जाता था। उनके आलोचक उन्हें मुल्ला मुलायम भी कहा करते थे। मुलायम सिंह यादव अपने राजनीति को सेक्युलर और समाजवादी कहते थे। उनकी पॉलिटिक्ल ट्रेनिंग लोहियावादी, समाजवादी और कांग्रेस विरोधी स्कूल में हुई। लेकिन साल 2019 में उन्होंने नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनने की शुभकामना दे दी। विरोध में सहमति उनका गुण था। मुलायम सिंह यादव की उपस्थिति ऐसी रही की आप उन्हें पसंद करें या नापसंद लेकिन नजरअंदाज नहीं कर सकते।
सोनिया के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीदों पर फेरा पानी
करीब 23 साल पहले उन्होंने अपने इसी तरह के एक सियासी दांव से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की उम्मीदों को झटका दिया था और इसमें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार की भी भूमिका थी। यह वाकया वर्ष 1999 का है जब सोनिया गांधी नयी-नयी कांग्रेस अध्यक्ष बनी थीं। उस साल 17 अप्रैल को जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने लोकसभा में विश्वासमत खो दिया तब सोनिया ने सरकार बनाने का दावा पेश किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन से मुलाकात के बाद सोनिया गांधी ने संवाददाताओं से कहा था, ‘‘हमारे पास 272 का आंकड़ा है और हमें इससे अधिक की आशा है... हमें विश्वास है कि हम इससे अधिक संख्या हासिल कर लेंगे।’’ बहरहाल, मुलायम सिंह यादव की कुछ अलग योजना थी और वह प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गांधी का समर्थन करने के इच्छुक नहीं थे। उस वक्त समाजवादी पार्टी के 20 लोकसभा सदस्य थे। मुलायम सिंह ने कांग्रेस को समर्थन देने से मुकर गए, जिसके चलते कांग्रेस केंद्र में सरकार नहीं बना सकी।
कलाम के लिए लेफ्ट का साथ छोड़ा
साल 2002 के राष्ट्रपति पद को लेकर हुए चुनाव में बीजेपी ने एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे किया तो वामपंथी दलों ने उनके खिलाफ कैप्टन लक्ष्मी सहगल को उतारा। लेकिन बीजेपी के पास अब्दुल कलाम को जिताने के लिए पर्याप्त संख्या बल नहीं थी। ऐसे में विपक्षी काफी मजबूत स्थिति में थे। लेकिन मुलायम ने आखिरी समय पर वामपंतियों के समर्थ की जगह कलाम की उम्मीदवारी पर अपनी मुहर लगा दी।
बचाई मनमोहन सरकार
यूपीए सरकार पर खतरा था तो मुलायम साथ खड़े हो गए। न्यूक्लियर डील का समर्थन किया। मनमोहन सरकार बच गई। इसके बाद उनके समाजवादी राजनीति पर सवाल खड़े किए गए। हालांकि, चार साल बाद हुए यूपी चुनाव 2012 में पूर्ण बहुमत की सरकार के जरिए उन्होंने विरोधियों को अपनी राजनीतिक समझ का जवाब दे दिया। मुलायम सिंह के इस कदम से वामपंथी दलों के साथ उनके रिश्ते खराब हो गए थे, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की।
तीसरे मोर्चे की शुरुआत कर पीछे खींचे कदम
2015 में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को एक करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। उसके बाद जनता दल से टूटे सभी क्षेत्रीय दलों का विलय कर नई पार्टी बनाने की भी गंभीर पहल की जिसके अध्यक्ष भी वो खुद बनते। लेकिन मुलायम सिंह यादव ने आखिरी समय में तीसरे मोर्चे से खुद को अलग कर लिया था। जिसके बाद जनता दल परिवार के एक होने के मंसूबों पर पानी फिर गया।