जब हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गई थी मालाबार की मिट्टी, मोपला नरसंहार की कहानी और खिलाफत आंदोलन का स्याह सच

By अभिनय आकाश | Aug 26, 2021

नरसंहार की क्या परिभाषा हो सकती है? इंसान को इंसान से बेपनाह नफरत सिखाने की पाठशाला। मानवता को दुत्कारने का खुला निरंकुश मंच या एक जादुई मशीन जिसमें एक तरफ से मनुष्य डालों तो दूसरी तरफ से कसाई निकलता है। अगर इन परिभाषाओं को एक ढांचे में सेट कर दिया जाए तो इतिहास का पहिया हमें 19वीं सदी के दौर में ले जाएगा। आज आपको दुनिया में हुए सबसे बड़े नरसंहारों में से एक की कहानी सुनाऊंगा। उसकी एक तात्कालिक वजह भी है। ये कहानी है मालाबार के हजारों हिन्दू पुरूष-महिलाओं की जिनकी चीख-पुकारों के भाग्य में किताबों के पन्ने भी नहीं आए। मोपला नरसंहार जिसे सेक्युलरिज्म के नाम पर विद्रोह का नाम देकर इसके क्रूरतम इतिहास पर पर्दा डाला गया है। 20 अगस्त 1921 को केरल के मालाबार में मोपला मुसलमानों ने क्रूरता, हैवानियत, दरिंदगी का कोई भी कोना नहीं छोड़ा था। सरेआम सर कलम किए गए। लोगों को जिंदा जलाया गया। परिजनों के सामने महिलाओं की अस्मत लूटी गई। गर्भवती महिलाओं के पेट को चीर दिया गया। लोगों से जबरन धर्मांतरण करवाए गए। हैवानियत की सारी हदों के बारे में आप सोच सकते हैं और जो सोच तक नहीं सकते हैं वो सब हुआ। लेकिन एक आम हिन्दुस्तानी इन सारी दरिंदगी से कमोबेश अंजान है। इतिहास के इस क्रूरतम पाप को मोपला विद्रोह का नाम देकर लोगों को गुमराह कर दिया गया। 

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 क्या है मोपला विद्रोह

एक विद्रोह जो तुर्की के खलीफा के नाम पर था लेकिन निशाने पर थे मालाबार के हिन्दू। 20 अगस्त की तारीख मानवता और सेक्युलरिज्म के झूठे चेहरों के लिए शर्म से गड़ जाने का दिन है। अंग्रजों द्वारा तुर्क के खलीफा की गद्दी छीने जाने के विरोध में केरल में सन 1921 में मोपला विद्रोह हुआ था। केरल के मालाबार में हुए विद्रोह को अंग्रेजों के खिलाफ बताया जाता है। लेकिन इसमें बड़े पैमाने पर हिन्दुओं को निशाना बनाया गया था। उनता नरसंहार हुआ था और जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया था। लेकिन वामपंथी इतिहासकार इसे सामंतवाद और अंग्रेजों के खिलाफ का विद्रोह करार देते हैं। 

मोपला नाम क्यों पड़ा?

पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच स्थित केरल के मालाबार को व्यावसायिक क्षेत्र माना जाता है। 1921 तक मालाबार में मोपला समुदाय में तेजी से इजाफा हो रहा था। बता दें कि मोपला मलयालम भाषा के मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 19वीं सदी में मालाबार की तकरीबन 10 लाख की आबादी में से मोपला समुदाय 32 प्रतिशत थे। मालाबार के दक्षिण के क्षेत्र में इनका ज्यादा प्रभाव माना जाता था। 

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खिलाफत का स्याह सच

खिलफत मूवमेंट अंग्रेजी शासन के खिलाफ नहीं था और इसे तुर्की के खलीफा के पक्ष में किया गया था। खिलाफत का मतलब होता है 'खलीफा का पद' यानी खलीफा राज। दरअसल, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन ने तुर्की पर हमला किया। इसके अलाना भारत में भी जालियां वाला बाग हत्याकांड और रोलेट एक्ट जैसी घटनाएं घटित हो रही थी। जिससे लोगों में असंतोष पैदा हुआ। मुस्लिम अंग्रेजों की वजह से और भी ज्यादा नाराज हो गए। देश के मुस्लिम नेता अबुल कलाम आजाद, ज़फर अली खां और मोहम्मद अली ने जमियत उलेमा के साथ मिलकर खिलाफत आंदोलन का संगठन किया। शुरुआत में तो यह विद्रोह अंग्रेजों के ही खिलाफ था। 15 फरवरी 1921 का दिन था. अंग्रेज़ सरकार ने पूरे इलाके में निषेधाज्ञा लागू करवा दी और कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। मोपलाओं ने खिलाफत आंदोलन की खीज हिन्दू जमींदारों पर उतारनी शुरू कर दी।  एक जुट हुए मोपलाओं ने जमींदारों के खिलाफ ही हल्ला बोल दिया और आंदोलन ने सांप्रदायिक रूप ले लिया।  मोपला विद्रोह एक सांप्रदायिक हिंसा थी जिसमें हिन्दुओँ का नरसंहार हुआ था। तलवार के दम पर बड़े पैमाने पर मोपलाओं ने धर्मांतरण करवाए थे। बापू का असहयोग आंदोलन सेक्युलर आंदोलन था। लेकिन खिलाफत पूरी तरह कम्युनल या सांप्रदायिक आंदोलन था। जिसका देश की स्वतंत्रता संग्राम से कोई लेना-देना नहीं था। खास बात ये थी कि अबुल कलाम आजाद, जफर अली खान और मोहम्मद अली जैसे मुल्लिम नेताओं ने महात्मा गांधी के सामने खिलफत आंदोलन के पीछे के कट्टरवादी मंसूबों को जाहिर नहीं किया था। महात्मा गांधी को उम्मीद थी कि खिलाफत को सपोर्ट करके हिन्दू-मुस्लिम एकता का मैसेज जाएगा। लेकिन मालाबार में मोपला मुस्लिमों ने जता दिया कि उन्हें बापू से ज्यादा खलीफा प्रिय थे। ऑटोमन एमपॉयर था जिसके राजा को खलीफा कहा जाता था। उन्हें दुनियाभर के मुसलमानों का एक स्पिचुअल लीडर भी माना जाता था। सच ये है कि खिलाफत आंदोलन को कहने के लिए अंग्रेजों के विरोध में चलाया गया था। लेकिन ये तुर्की में खलीफा को बरकरार रखने के लिए दबाव बनाने की कोशिश भर थी। मोपला कांड के बाद ये बात सामने आ चुकी थी कि धर्म के आधार पर एक जमात अभी भी तुर्की के खलीफा में ही अपनी आस्था रखती थी। 

मोपला विद्रोह की हकीकत

ये तो आपको ज्ञात हो गया कि मोपला विद्रोह का देश के स्वतंत्रता संग्राम से कोई लेना देना नहीं था। लेकिन कहा जाता है कि मोपला मुस्लिमों को कट्टरपंथी मौलवियों और केरल में राजनीति की जमीन खोज रहे वामपंथियों ने उकसाया था। इसके पीछे दो वजहे थी। पहली ये कि मालाबार में ज्यादातर जमींदार हिन्दू थे। दूसरी ये कि ज्यादातर मोपला मुस्लिम उनके यहां बटाईदार या काश्तकार थे। कॉम्युनिज्म और कॉम्युलिज्म के कॉकटेल ने अपना काम किया। मोपला मुस्लिमों को हिन्दू भू मालिकों के खिलाफ जमकर भड़काया गया। नतीजा ये हुआ कि मोपला विद्रोह के कारण हजारों हिन्दू मारे गए। हजारों हिन्दुओँ का धर्म परिवर्तन करवाया गया। हालांकि बाद में आर्य समाज की तरफ से उनका शुद्धिकरण आंदोलन भी चला। जिन हिन्दुओं को मुस्लिम बना दिया गया था उन्हें वापस हिन्दू बनाया गया। इसी आंदोलन के दौरान आर्य समाज के नात स्वामी श्रद्धानंद को उनके आश्रम में ही 23 दिसंबर 1926 को गोली मार दी गई थी। 

फिर से क्यों चर्चा में है ये विवाद?

आरएसएस नेता राम माधव ने दावा किया कि 1921 का मोपला विद्रोह भारत में तालिबानी मानसिकता की पहली अभिव्यक्तियों में से एक था। उन्होंने कहा कि केरल में वामपंथी सरकार इसे कम्युनिस्ट क्रांति बताकर इसकी छवि को साफ करने का प्रयास कर रही है।  19 अगस्त को केरल के कुछिकोड़ में 1921 के विद्रोह के दौरान हुई हिंसा की पीड़ितों की याद में एक कार्यक्रम हुआ। इस कार्यक्रम में बोलते हुए आरएसएस की कार्यकारिणी समिति के सदस्य राम माधव ने कहा कि राष्ट्रीय नेतृत्व सही इतिहास से अवगत है और इसलिए तालिबानी और अलगाववादी ताकतों को देश में हिंसा पैदा करने या लोगों को विभाजित करने के लिए कोई जगह नहीं देगा। चाहे वो कश्मीर हो या केरल। उन्होंने कहा कि इस वक्त पूरी दुनिया की नजर अफगानिस्तान पर है। जहां तालिबान ने कब्जा कर लिया है। उन्होंने कहा कि मीडिया अतीत में तालिबान के अत्याचारों की याद दिला रहा है। उन्होंने कहा कि भारत तालिबान जैसी मानसिकता मोपला के रूप में भी देख चुका है। माधव ने कहा कि लेफ्ट की सरकार इस घटना पर वाईट वाश करने की कोशिश कर रही है। इसे ब्रिटिश और पूंजीपतियों के खिलाफ हुए कम्युनिस्ट विद्रोह की संज्ञा दे रही है। इसके लिए फिल्में बनाई जा रही हैं जिसमें विद्रोह के नेताओं को हीरे बताया जा रहा है।  

विद्रोहियों के नाम शहीदों की लिस्ट में शामिल

शिक्षा मंत्रालय के तहत आने वाला इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिक रिसर्च (आईसीएचआर) ये सिफारिश कर चुका है कि 387 मोपला विद्रोहियों के नामों को शहीदों की लिस्ट से हटा देना चाहिए।  आईसीएचआर की तीन सदस्यीय पैनल ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों पर एक किताब से मोपला विद्रोह के नेताओं के नामों को शहीदों की लिस्ट से हटाने की सिफारिश की थी। जिसे खुद  पीएम मोदी ने साल 2019 में जारी की थी। पैनल ने कहा कि 1921 का ये विद्रोह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा नहीं था बल्कि धर्म पर आधारित एक कट्टरपंथी आंदोलन था। -अभिनय आकाश


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