By अभिनय आकाश | Dec 27, 2024
2, जुलाई मंगलवार का दिन राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा चल रही थी। उच्च सदन यानी राज्यसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे अपने स्थान पर खड़े होकर सभापति से कहते नजर आते हैं मुझे बनाने वाली सोनिया गांधी हैं। न रमेश बना सकता है, न आप बना सकते हैं, जनता ने मुझे बनाया है। खरगे जब ये बोल रहे थे तो उनके बगल वाली सीट पर सोनिया गांधी चेहरे पर हमेशा की तरह शांत भाव लिए बैठीं थी। जवाब में उपराष्ट्रपति धनखड़ कहते हैं कि मैं उस स्तर पर नहीं आना चाहता। आपको किसने बनाया, ये आप जाने। लेकिन ये वाक्या बताने का मतलब था कि खरगे के शब्दों में अपने नेता के प्रति वफादारी का भाव साफ झलकता नजर आया। वफादारी वैसे तो हिंदी का बहुत बड़ा और अहम शब्द है। कहा जाता है कि वफ़ादारी मे दो लोगो के बीच कोई संबंध होता है ओर ईमानदारी मे किसी से कोई संबंध की कोई आवशयकता नहीं ईमानदारी दो अनजान के बीच भी होती है। अगर आप वफादार है तो आप जरूर ईमानदार है और अगर आप सिर्फ ईमानदार है तो आप वफादार हो या बेवफा आप कम से कम सामने वाले को धोखे में तो नहीं रखेंगे और उसे सच बता देंगे तो आप सिर्फ ईमानदार है या उसके प्रति बेवफा ! जवाब थोड़ा सा पेचीदा जरूर है लेकिन एक दो बार पढ़ने पर समझ में आ जाएगा। सोनिया गांधी के प्रति कुछ ऐसी ही वफादारी मनमोहन सिंह में भी थी। आखिरकार, सोनिया गांधी की वजह से ही तो कांग्रेस के तमाम दिग्गजों को पछाड़कर सिंह प्रधानमंत्री बने थे।
सोनिया बनीं त्याग की मूरत
18 मई 2004 का मंगलवार का ही दिन जिसे देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस और हिंदुस्तान की जनता आसानी से भूल नहीं पाएंगे। लगभग 200 सांसद संसद भवन के प्रकोष्ठ में इंतजार कर रहे थे कि सोनिया गांधी की तरफ से अपने निर्णय की घोषणा की जाएगी। सोनिया गांधी अपने दोनों बच्चों राहुल और प्रियंका के साथ चेहरे पर गंभीरता लिए दाखिल हुईं। सोनिया ने आकर अपने कई पुराने साथियों का अभिवादन करते हुए माइक्रोफोन तक पहुंचती हैं। उस वक्त वहां सन्नाटा छाटा रहता है। फिर वो कहती हैं कि मेरा लक्ष्य प्रधानमंत्री का पद नहीं है। मेरे सामने हमेशा स्पष्ट था कि यदि कभी मैं उस स्थिति में आई, जिसमें आज मैं हूं, तो मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनूंगी। वो थोड़ ठहरते हुए अपने बच्चों की तरफ देखते हुए कहती हैं कि आज वो आवाज कहती है कि मैं पूरी विन्रमता से इस पद को स्वीकार नहीं करूं। इन लफ्जों के साथ सोनिया गांधी ने अपने खिलाफ के शोर को शांत कर दिया। उन आवाजों को बंद कर दिया जो उनके इटैलियन होने पर सवाल उठा रही थी और कह रही थी कि एक विदेशी मूल का व्यक्ति हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री कैसे बन सकता है? इस एक मास्टरस्ट्रोक से सोनिया गांधी ने अचानक अपने सभी विरोधियों को चित्त कर दिया और खुद त्याग की मूर्ति बन गई। अक्सर ये कहा जाता है कि सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री पद ठुकरा देना क्या सबसे बड़ा त्याग था या फिर इसके पीछे बहुत बड़ा राजनीतिक दांव छिपा था। जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। लेकिन इससे किसका फायदा हुआ? सोनिया गांधी को, कांग्रेस पार्टी को या फिर देश को?
महात्मा गांधी के पास थे नेहरू, अब कोई कहां
त्य़ाग और राजनीति की मिली जुली कहानी की हकीकत को समझने के लिए हमें पहले ये समझना पड़ेगा कि इटली में पैदा हुई सोनिया गांधी हिंदुस्तान के सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष कैसे बन गई। 1 सफदरजंग रोड कभी देश की राजनीति का केंद्र हुआ करता था। लेकिन देखते ही देखते ये पावर सेंटर 10 जनपथ की ओर शिफ्ट हो गाया। 19 साल पहले अप्रैल 1998 में जब सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस की कमान संभाली, तब भी पार्टी की सियासी हालत कमजोर थी। 1999 से लेकर 2004 तक एनडीए की सरकार के दौरान लोकसभा में विपक्ष की नेता सोनिया गांधी थी। जो बार बार वाजपेयी सरकार को घेरती नजर आती थी। इसलिए 2004 में जब चुनाव आए तो एक बार फिर सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को हवा देना शुरू कर दिया गया। 1999 में एक वक्त ऐसा भी आया जब सोनिया ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, लेकिन बाद में नेताओं की बात मान ली थी। यूपी के एक सांसद ने कहा- मैडम आपने वो मिसाल कायम की है, जैसी पहले महात्मा गांधी ने की थी। उनका हवाला था कि जब स्वतंत्रता के बाद भारत की पहली सरकार बनी तो गांधी जी ने भी सरकार का हिस्सा बनने से साफ इनकार कर दिया था, लेकिन तब गांधी जी के पास जवाहर लाल नेहरू थे। अब कोई नेहरू कहां है?
मनमोहन सिंह के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़
1991 में ही मनमोहन सिंह के करियर में निर्णायक मोड़ आया। तत्कालीन प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने सिंह को अपने वित्त मंत्री के रूप में चुना और भारत को गंभीर आर्थिक संकट से बाहर निकाला। लेकिन सिंह चुनौती के सामने नहीं झुके। उन्होंने विनियमन, आयात शुल्क में कमी और राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों के निजीकरण जैसे कई उदारीकरण सुधारों का नेतृत्व किया। 1991 में अपने पहले बजट भाषण में मनमोहन सिंह ने विक्टर ह्यूगो को उद्धृत करते हुए कहा था कि पृथ्वी पर कोई भी शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है। यह उनकी दूरदर्शिता और नीतियां ही थीं जिन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को स्थिर किया और निरंतर विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया।
भारत का एक्सीडेंटल पीएम बनना
2004 में मनमोहन सिंह अप्रत्याशित रूप से भारत के पहले सिख प्रधान मंत्री बने। हालाँकि, पीएम की कुर्सी तक पहुंचने का उनका सफर अनोखा है। 2004 के लोकसभा चुनावों में, कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने अप्रत्याशित जीत हासिल की। इसके बाद, सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया और उन्हें यूपीए अध्यक्ष भी चुना गया। सभी ने मान लिया था कि वह देश की पीएम भी बनेंगी. लेकिन उसने इसके खिलाफ फैसला किया। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक टर्निंग प्वॉइंट्स में उन घटनाओं का जिक्र किया है जिनके कारण गांधी को नहीं बल्कि सिंह को पद की शपथ लेनी पड़ी। कलाम ने अपनी किताब में लिखा इस दौरान कई राजनीतिक नेता मुझसे मिलने आए और मुझसे अनुरोध किया कि मैं किसी भी दबाव के आगे न झुकूं और श्रीमती गांधी को प्रधान मंत्री नियुक्त करूं, एक ऐसा अनुरोध जो संवैधानिक रूप से स्वीकार्य नहीं होता। अगर उन्होंने अपने लिए कोई दावा किया होता तो मेरे पास उन्हें नियुक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। उन्होंने आगे लिखा कि यह मेरे लिए चिंता का कारण था और मैंने अपने सचिवों से कहा और सबसे बड़ी पार्टी इस मामले में कांग्रेस के नेता को आगे आने और सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए एक पत्र भेजा। मुझे बताया गया कि 18 मई की दोपहर 12.15 बजे सोनिया गांधी मुझसे मिल रही थीं. वह समय पर आईं लेकिन अकेले आने की बजाय वह डॉ. मनमोहन सिंह के साथ आईं और मुझसे चर्चा की. उन्होंने कहा कि उनके पास जरूरी संख्या बल है लेकिन वह पार्टी पदाधिकारियों द्वारा हस्ताक्षरित समर्थन पत्र नहीं लायीं। उन्होंने कहा कि वह 19 तारीख को समर्थन पत्र लेकर आएंगी। मैंने उससे पूछा कि तुम टाल क्यों देती हो? हम इसे आज दोपहर को भी ख़त्म कर सकते हैं। वह चली गई। बाद में मुझे एक संदेश मिला कि वह मुझसे शाम को 8.15 बजे मिलेंगी। किताब में लिखा है कि 19 मई को निर्धारित समय, रात 8.15 बजे, गांधी सिंह के साथ राष्ट्रपति भवन आये। उन्होंने कहा इस मुलाकात में एक-दूसरे से खुशियों का आदान-प्रदान करने के बाद उन्होंने मुझे विभिन्न दलों के समर्थन पत्र दिखाए। इस पर मैंने कहा कि यह स्वागत योग्य है। राष्ट्रपति भवन आपकी पसंद के समय पर शपथ ग्रहण समारोह के लिए तैयार है। तभी उन्होंने मुझसे कहा कि वह डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधान मंत्री के रूप में नामित करना चाहेंगी, जो 1991 में आर्थिक सुधारों के वास्तुकार और बेदाग छवि वाले कांग्रेस पार्टी के भरोसेमंद लेफ्टिनेंट थे। कलाम ने लिखा कि यह निश्चित रूप से मेरे लिए आश्चर्य की बात थी और राष्ट्रपति भवन सचिवालय को डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त करने और उन्हें जल्द से जल्द सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने वाले पत्र पर फिर से काम करना पड़ा। इसके साथ, सिंह ने प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली और देश ने एक अजीब शक्ति-साझाकरण मॉडल देखा - सिंह को शासन के प्रमुख के रूप में और गांधी को राजनीति के प्रमुख के रूप में। कई लोगों ने सिंह की यह कहते हुए आलोचना की कि जब वे प्रधान मंत्री थे तो सत्ता का रिमोट कंट्रोल 10 जनपथ के पास हुआ करता था। हालाँकि, मनमोहन सिंह आगे बढ़े। उनकी सबसे बड़ी जीत अमेरिकी परमाणु प्रौद्योगिकी तक पहुंच सुनिश्चित करने वाले एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर करके भारत को परमाणु अलगाव से बाहर लाना था।
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