एक बार की बात है कि एक कुत्ते का पिल्ला अपने मालिक के घर के बाहर धूप में सोया पड़ा था। मालिक का घर जंगल के किनारे पर था। अतः वहां भेड़िया, गीदड़ और लकड़बग्घे जैसे चालाक जानवर आते रहते थे।
यह बात उस नन्हे पिल्ले को मालूम नहीं थी। उसका मालिक कुछ दिन पहले ही उसे वहां लाया था। अभी उसकी आयु भी सिर्फ दो महीने थी।
अचानक एक लोमड़ वहां आ निकला, उसने आराम से सोते पिल्ले को दबोच लिया। पिल्ला इस अकस्मात आक्रमण से भयभीत हो उठा। मगर वह बड़ी ही समझदार नस्ल का था। उसका पिता मिलिटरी में था और मां पुलिस में जासूसी करती थी।
संकट सिर पर आया देखकर भी वह घबराया नहीं और धैर्य से बोला−'लोमड़ भाई! अब तुमने मुझे पकड़ ही लिया है तो खा लो। मगर मेरी एक राय है अगर मानो तो। इसमें तुम्हारा ही लाभ है।'
अपने लाभ की बात सुनकर लोमड़ ने पूछा− 'कैसा लाभ?'
'देखो भाई! मैं यहां नया−नया आया हूं, इसलिए अभी दुबला तथा निर्बल हूं। कुछ दिन खा−पीकर मुझे मोटा−ताजा हो जाने दीजिए। फिर आकर मुझे खा लेना। वैसे भी अभी मैं बच्चा हूं। मुझे खाकर भी शायद आज आपकी भूख न मिटे।'
लोमड़ पिल्ले की बातों में आ गया उसे छोड़कर चला गया। पिल्ले ने अपने भाग्य को धन्यवाद दिया तथा असुरक्षित स्थान पर सोने की गलती फिर कभी न करने की कसम खाई। कुछ महीनों के पश्चात लोमड़ फिर उस घर के पास आकर उस पिल्ले को खोजने लगा। लेकिन अब वह पिल्ला कहां रहा था, अब तो वह बड़ा हो गया था और पहले से अधिक समझदार भी। उस समय वह मकान की छत पर सो रहा था।
लोमड़ ने उससे कहा, 'अपने वचन के अनुसार नीचे आकर मेरा आहार बन जाओ।' 'अरे जा रे मूर्ख! मृत्यु का भी वचन दिया है कभी किसी ने? जा अपनी मूर्खता पर आयु−भर पछताता रह। अब मैं तेरे हाथ आने वाला नहीं है।' कुत्ते ने उत्तर दिया।
लोमड़ अपना−सा मुंह लेकर चला गया। सच है, समझदारी व सूझ−बूझ से मौत को भी टाला जा सकता है।
विष्णु शर्मा (पंचतंत्र)