माता-पिता के बाद समाज एवं दुनियादारी के बारे में हमारी समझ विकसित करने में शिक्षक हमारे दोस्त, मार्गदर्शक और पथ-प्रदर्शक होते हैं। बालपन से लेकर किशोरावस्था और फिर युवा होने तक की अवधि में स्कूल से लेकर कॉलेज तक शिक्षकों का मार्गदर्शन ही हमें आगे बढ़ने में मदद करता है। शिक्षक बालपन से लेकर युवावस्था तक हमारे सहचर की तरह मार्गदर्शन करते हैं। हाँ, यह जरूर है कि समय के साथ हमारे शिक्षक बदलते जाते हैं। शिक्षकों के प्रति हमारे मन में आदर तो होता है लेकिन किसी-किसी शिक्षक का पढ़ाई के साथ-साथ विशेष स्नेह और संवेदना हमें उन्हें जीवनभर याद रखने पर विवश करती है।
माता-पिता के बाद शिक्षक ही हमें इतना सक्षम बनाते हैं कि जीवन में कुछ विशेष कर सकें। स्कूली शिक्षा से ही हमारे भविष्य की नींव पड़ना शुरू होती है और फिर समय के साथ हम शिक्षकों के सहयोग से लगातार आगे बढ़ते जाते हैं। पढ़ाई-लिखाई के दौरान हम जो भी सीखते हैं, वहीं हमारे भविष्य की नींव बनती है और उसी अनुरूप हमारा विकास हो पाता है लेकिन शिक्षकों का योगदान और मार्गदर्शन निरंतर आगे बढ़ने में मदद करता है। यह शिक्षक ही हैं जो समाज और राष्ट्र के प्रति हमें हमारी जिम्मेदारी का अहसास कराते हैं। यह ठीक है कि बदलते सामाजिक परिवेश में शिक्षा के मंदिर कहलाये जाने वाले स्कूल अब व्यापारी की भूमिका में हैं और बच्चों के अभिभावक उनके मात्र ग्राहक लेकिन छात्रों और शिक्षकों के सम्बधों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। यह सही है कि शिक्षा के व्यापारीकरण से शिक्षा के नाम पर लाखों की तादाद में दुकानें खुल गई हैं, जहां शिक्षा के नाम पर विशुद्ध व्यापार हो रहा है और ऐसे अधिकतर स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं दक्ष शिक्षकों का निरंतर अभाव है।
ऐसी स्थिति में यह बेहद जरूरी है कि हम अपने शुरुआती पढ़ाई के दौरान ही शिक्षकों की भूमिका को समझ सकें और शिक्षक दिवस ही वह तरीका है जब भारत में सभी छात्र अपने शिक्षकों के योगदान का जश्न मनाते हैं। प्राचीन काल से ही छात्रों और शिक्षकों के बीच हमेशा मधुर संबंध रहे हैं। छात्रों का बेहतर प्रदर्शन देखकर शिक्षक आज भी गर्व महसूस करते हैं। शिक्षकों के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज भी जब कोई व्यक्ति किसी ऊंचे पद पर आसीन होता है तो खबरिया चैनल और अखबार क्लास टीचर को ढूंढ निकालते हैं और फिर उनके बचपन में उनके आभामंडल में छुपे गुणों को ढूंढने के प्रयास करते हैं। ऊंचे पद पर आसीन व्यक्ति ही नहीं ढोंगी बाबाओं, आतंकवादियों और आपराधिक व्यक्तियों का विश्लेषण करते हमारे पत्रकार बंधु स्कूलों में उनके क्लास टीचरों को ढूंढने के प्रयास जरूर करते हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या बचपन से ही उनमें अवगुणों का संचार होने लगा था या फिर ऐसे लोग किन विशेष परिस्थितियों में गलत काम-धंधों को अपना बैठे।
कहावत है कि हमारे यहाँ गुरु को ब्रह्म से भी श्रेष्ठ माना गया है, शायद यही कारण है कि हमारे यहाँ गुरु पूर्णिमा का पर्व भी धूमधाम से मनाया जाता है और गुरुओं को याद किया जाता है। कबीर दास गुरु का महत्व समझाते हुए गाते थे-:
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाएं, बलिहारी गुरु अपनों, जिन गोबिंद दियो मिलाए।
हमारे यहाँ 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है जो भारत के दूसरे राष्ट्रपति महान शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को समर्पित है। वह पहले व्यक्ति थे जो उपराष्ट्रपति से राष्ट्रपति बने थे। उनका जन्मदिवस 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। वह महान शिक्षक, दार्शनिक और समाज सुधारक थे। प्राचीन समय में गुरुओं को विशेष आदर और स्नेह की दृष्टि से देखा जाता था लेकिन आज परम्पराएं बदली हैं। आधुनिक युग में जब शिक्षा एक व्यवसाय बन कर रह गयी है तो ऐसे में समय के साथ छात्रों और शिक्षकों के आपसी संबंध भी बदले हैं। आज शिक्षा में शिक्षक की भूमिका को अस्वीकार कर इ-लर्निंग जैसी बात हो रही है और आधुनिक ज्ञान विज्ञान के अविष्कारों ने इसे कुछ हद तक संभव भी बनाया है लेकिन आमने सामने के शिक्षण में जो आपसी विचारों का आदान-प्रदान है वह दूरस्थ शिक्षा में संभव नहीं हो पाता। उसमें विचारों का एक तरफा बहाव है जो छात्रों का सम्पूर्ण विकास नहीं कर पाता है। लेकिन साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि आमने सामने की शिक्षा का माहौल भी कटु हो गया है। स्वार्थ की ऐसी आंधी चली है कि एक ओर कम आमदनी का मार्ग समझ कोई शिक्षक बनना ही नहीं चाहता तो जो शिक्षक बनते भी हैं, अधिक रुपयों की चाहत में ट्यूशन और कोचिंग संस्थानों के लिए छात्रों को प्रेरित करते नजर आते हैं।
शिक्षक दिवस का भी बाजारीकरण हो गया है। छात्रों का शिक्षकों के प्रति विश्वास घटा है और व्यवहार बदला है। इसके पीछे कारण यह है कि शिक्षा का बाजारीकरण होने से इसमें ऐसे लोग भी शामिल हो गये हैं जिनके लिए नैतिकता और शिक्षा में कोई संबंध ही नहीं है और शायद यही कारण है कि अखबार अक्सर ऐसी खबरें से भरे रहते हैं कि शिक्षक ने अनैतिक कर्म कर गुरु-शिष्या परम्परा के कलंकित किया या कहीं समय पर फीस न भरने के कारण छात्र-छात्राओं के कपड़े उतरवा कर अपमानित किया या होम वर्क करके न लाने पर शिक्षक ने छात्र की आंख फोड़ी, वगैरा ऐसी न जाने कितनी खबरें पढ़ने को मिलती हैं जो इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा का बाजारीकरण होने से गुरु-शिष्य के बीच गरिमा, आदर और विश्वास का जो रिश्ता पहले होता था, वह दांव पर है। आज स्थिति यह हो गई है कि छात्र और शिक्षक दोनों ही एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगे हैं। छात्रों और शिक्षकों के बीच अब पहले जैसा आत्मीयता और स्नेह भरा रिश्ता नहीं रह गया है। आज हर रोज इलेक्ट्रोनिक मीडिया, समाचार पत्रों में और सोशल मीडिया में शिक्षकों के नैतिक पतन और व्यभिचार की खबरें परेशान करती हैं। पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में हम अपने रीति-रिवाज और संस्कारों को तिलांजलि देते जा रहे हैं वरना तो शिक्षा, शिक्षक और गुरु का महत्व एक दिन विशेष में ही नहीं अपितु उसकी छाप जिंदगी भर आपके व्यवहार में झलकती है।
आज जब छात्र-छात्राओं से दुर्व्यवहार की खबरें आम हैं तो शिक्षकों की हत्या करने की ख़बरें भी गुरु-शिष्य परम्परा के गिरते नैतिक स्तर को दर्शाती हैं। सदियों से चली आ रही गुरु-शिष्य की आत्मीय परम्परा का नैतिक पतन शिक्षा के व्यवसायीकरण के ही कारण हुआ है। छात्र-छात्राओं के मन में यह धारणा बनती चली जाती है कि शिक्षक कोई उन पर अहसान नहीं कर रहे हैं क्योंकि प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा को व्यापार के नजरिए से ही देखा जाता है और निजी स्कूलों में छात्र-छात्राओं और अभिभावकों को उनकी हैसियत के अनुसार बड़े और नामी स्कूलों में पढ़ाई का मौका मिलता है और बदले में वे मोटी फीस चुकाते हैं। यही कारण है कि उनके मन में शिक्षकों के प्रति वह आदर ही नहीं पनप पाता, जिसके शिक्षक सही मायने में हकदार हैं। ऐसा नहीं है कि बड़े और नामी-गिरामी स्कूलों द्वारा वसूली जाने वाली मोटी फीस शिक्षकों के पास जाती है, उस फीस का बड़ा हिस्सा तो स्कूल सुविधाओं के नाम पर वसूलते हैं और यह सारा मुनाफा स्कूल प्रबंधन मतलब मालिक कमाते हैं और शिक्षकों को तो इन स्कूलों में भी औसत वेतन ही दिया जाता है लेकिन इस व्यवस्था का नतीजा यह हुआ है कि शिक्षकों के प्रति छात्र-छात्राओं का नजरिया बदला है।
आज छात्र-छात्राओं, अभिभावकों और शिक्षकों के मन में भले ही मतभेद हों, विचारों में मतभेद हों लेकिन एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करते हुए हमें शिक्षकों को वह सम्मान हमेशा देना चाहिए जिसके वह हकदार हैं। समय के साथ बदलाव आता है, तौर-तरीके और रीति-रिवाज बदल जाते हैं लेकिन हमें अपनी परम्पराओं का पालन करते हुए शिक्षकों के प्रति कोई द्वेष भावना नहीं रखनी चाहिए। इक्का-दुक्का शिक्षकों को छोड़ दें तो हर शिक्षक की यह इच्छा होती है कि उसकी क्लास में पढ़ने वाला हर बच्चा योग्य बनकर नाम रोशन करे। कोई भी शिक्षक कभी यह नहीं चाहता कि उसके यहां से पढ़ा हुआ उसका कोई विद्यार्थी अपराधी या आतंकवादी बने। अत: शिक्षकों के प्रति हमारा आदर हमेशा बरकरार रहना चाहिए। समय के साथ शिक्षकों के चेहरे बदलते हैं लेकिन हर शिक्षक के मन में एक ही धारणा होती है कि उसके यहां से पढ़ कर जाने वाला हर विद्यार्थी कामयाब हो। समय के साथ एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी से हमेशा विचारों में मतभेद रहा है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम शिक्षकों का आदर न करें। विचारों की स्वतंत्रता ही हमारे भविष्य को उज्ज्वल बनाती है। ऐसे में शिक्षक दिवस के बहाने ही सही हमें शिक्षकों का सम्मान करते हुए उनकी कृतज्ञता स्वीकार करके यह संकल्प लेना चाहिए कि हम हमेशा उनका आदर करेंगे।
-सोनिया चोपड़ा