सर्वोच्च न्यायालय ने सतलुज-यमुना सम्पर्क नहर विवाद पर पंजाब सरकार को कड़ी फटकार लगाई और कहा कि इस पर राजनीति न हो। इस आदेश के तुरन्त बाद पंजाब में मुख्यमंत्री भगवंत मान के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार तुरंत सक्रिय हो गई, किन्तु समाधान के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक हलवा पकाने के लिए। सुर वही छह दशक पुराने ‘मैं ना मानूं-मैं ना मानूं’ वाले। रोचक बात है कि शिरोमणि अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दलों की तो छोड़ें कांग्रेस-भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल भी न केवल सरकार के स्वर में स्वर मिलाते नजर आए और बल्कि एक-दूसरे से आगे दिखने की होड़ में राष्ट्रीय दृष्टिकोण का गला घोंटते भी दिखाई दिए। जबकि वास्तविकता ये है कि इस मसले पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाने से ही कोई समाधान संभव है।
मुद्दे की पृष्ठभूमि में जाएं तो विधि कार्य विभाग, जल शक्ति विभाग व पीआईबी की आधिकारिक वेबसाइट अनुसार, 1955 में रावी और ब्यास के पानी का आकलन 15.85 मिलियन एकड़ फीट (एमएएफ) किया गया। जिसमें राजस्थान को 8, पंजाब को 7.2 व जम्मू-कश्मीर को 0.65 एमएएफ पानी आवंटित किया गया। साल 1966 में पंजाब पुनर्गठन अधिनियम के बाद पंजाब और हरियाणा दो राज्य बने। इसमें पंजाब के हिस्से में से 3.5 एमएएफ का हरियाणा को दिया गया। परंतु पंजाब ने राइपेरियन सिद्धांतों का हवाला देते हुए दोनों नदियों का पानी हरियाणा को देने से इनकार कर दिया। राइपेरियन सिद्धांतों के मुताबिक, जल निकाय से सटे भूमि के मालिक को पानी का उपयोग करने का अधिकार है। विरोध के बाद केंद्र सरकार ने साल 1976 में पानी के बंटवारे पर एक अधिसूचना जारी की, लेकिन दोनों राज्यों में विवाद इतना था कि इसे लागू करना मुश्किल हो गया। हालांकि, हरियाणा ने 1980 तक अपने क्षेत्र में नहर को लेकर परियोजना पूरी कर ली। दोनों राज्यों में टकराव जारी रहा, बातचीत से भी कोई हल न निकलने के बाद साल 1981 में एसवाईएल नहर पर समझौता किया गया। 8 अप्रैल, 1982 को पटियाला के एक गांव कपूरी में एसवाईएल नहर की आधारशिला रखी गई। नहर की लंबाई 214 किलोमीटर है। इसमें से पंजाब में 122 किमी हिस्सा है। पंजाब ने भी 92 किलोमीटर के अपने हिस्से पर 1982 में काम तो शुरू किया लेकिन राजनीति के चलते इसे रोक दिया गया। जब पंजाब में इसका विरोध बढ़ा तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अकाली दल के प्रमुख हरचंद सिंह लोंगोवाल के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए। समझौते के बाद फिर नहर का कार्य शुरू किया गया लेकिन खालिस्तानी उग्रवादियों ने कई इंजीनियरों को और मजदूरों की हत्या कर दी और एक बार फिर परियोजना ठप हो गई।
मसले के हल को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. बालकृष्ण इराडी की अध्यक्षता में इराडी अधिकरण का गठन हुआ। इसके बाद भी विवाद बना रहा तो 1996 में हरियाणा ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया। न्यायालय ने 2002 में पंजाब को निर्देश दिए कि अपने क्षेत्र में एसवाईएल काम को पूरा करे। पर पंजाब विधानसभा में 2004 वर्ष में पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट्स अधिनियम पारित किया जिसके तहत जल-साझाकरण के सभी समझौतों को खत्म कर दिया गया। पंजाब सरकार ने ऐसा करते समय इस तथ्य का ध्यान भी नहीं रखा कि किसी द्विपक्षीय समझौते को एक पक्ष निरस्त नहीं कर सकता। तब से लेकर अब तक एसवाईएल का निर्माण अधर में लटक कर रह गया और टकराव अभी भी छह दशक पुरानी स्थिति में है।
वर्तमान में भी जिस तरह न्यायालय ने एसवाईएल नहर पर सख्त टिप्पणी करते हुए पंजाब सरकार को फटकार लगाई और इसकी परवाह न करते हुए पंजाब सरकार सहित सभी राजनीतिक दलों ने जो हठीला रवैया अपनाया है उससे किसी का भला होने वाला नहीं। आवश्यक है कि इस मुद्दे का सर्वमान्य हल निकाला जाए। हाल के दिनों में जब पंजाब के कई हिस्से बाढ़ का संकट झेल रहे थे तो बाढ़ के पानी की निकासी के लिए इस नहर की आवश्यकता महसूस हुई। इसका अर्थ यह कि समस्या एसवाईएल नहर नहीं बल्कि पंजाब में पानी की कमी है। अगर विभिन्न स्रोतों से पंजाब में पानी की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित कर दी जाए तो इस नहर के निर्माण में शायद ही किसी को आपत्ति होगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पंजाब हो या हरियाणा या और कोई राज्य, सभी एक राष्ट्र के अंग हैं। शरीर के एक अंग का दूसरे से विरोध नहीं हो सकता। इस मुद्दे का निवारण इसलिए भी किया जाना जरूरी है क्योंकि पंजाब में राजनीतिक दल तो अपनी राजनीति चलाते ही हैं, साथ में देश विरोधी शक्तियां इसको लेकर समाज के एक वर्ग विशेष की भावनाएं भड़काने व उनको उकसाने का काम करती हैं। पंजाब में अलगाववादी ताकतें इसे एक समुदाय विशेष पर अत्याचार के रूप में प्रचारित करती रही हैं। यह मुद्दा केवल कृषि व कृषकों से ही नहीं बल्कि देश की सुरक्षा से भी जुड़ा है, इसीलिए इसका सर्वमान्य हल निकलना चाहिए।
देखा जाए तो पंजाब में जल समस्या प्राकृतिक कम और मानवीय अधिक है। धान की अंधाधुंध बिजाई, जल के प्राकृतिक स्रोतों जैसे तालाबों, जलाशयों को भरा जाना, उनमें प्रदूषण बढ़ना यहां का जल संकट बढ़ा रहा है। तालाब जहां बरसात का अतिरिक्त पानी सहेज कर इलाके को आपदा से बचाते हैं वहीं यह गर्मियों में पानी के अच्छे स्रोत बनते हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई ने वर्षा जल का संवर्धन करने वाले एक कुदरती साधन को समाप्त कर दिया। ऊपर से केवल कृषि ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्रों में पानी का निर्मम दुरुपयोग निर्बाध रूप से जारी है। जरूरत है इन सबको रोकने की। दूसरी तरफ भारत द्वारा पाकिस्तान से की गई जलसंधि की समीक्षा चल रही है, बताया जाता है कि इस संधि के अनुसार पाकिस्तान को जरूरत से अधिक नदियों का जल जा रहा है। इस जल को रोक कर भारत अपनी पानी की मांग पूरी कर सकता है। अगर ऐसा होता है तो कोई कारण नहीं है कि कोई एसवाईएल नहर जैसी परियोजना का विरोध करे। पंजाब में कमी पानी की नहीं बल्कि इसके प्रबंधन व संवर्धन की है।
हमें याद रखना चाहिए कि नदियां किसी एक राज्य की संपत्ति नहीं बल्कि राष्ट्रीय संपदा हैं। कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण द्वारा 2007 में दिये गए फैसले के खिलाफ कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल द्वारा दायर याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूति अमिताभ राय और न्यायमूति एएम खानविलकर ने कहा था कि कोई भी राज्य नदी के स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि यह एक प्राकृतिक संपत्ति है और इस पर पूरे देश का अधिकार है। न केवल न्याय बल्कि राष्ट्रीय एकता-अखण्डता, क्षेत्रीय सौहार्द एवं देश के देश के विकास की भी यही मांग है कि इस विवाद का हल राष्ट्रीय भावना के अनुरूप हो न कि क्षेत्रवादी दृष्टिकोण से। राष्ट्रीय अपेक्षाएं कभी भी किसी राज्य या क्षेत्र के साथ अन्याय नहीं होने देती, यह सर्वविदित है।
-राकेश सैन