हम काले हैं तो क्या हुआ (व्यंग्य)

By अरुण अर्णव खरे | Nov 25, 2022

मुरारी जी वैसे तो गोरे-चिट्टे आकर्षक कदकाठी के व्यक्ति हैं। समाज के सफेदपोश व्यक्तियों के बीच अच्छी पैठ रखते हैं। लेकिन जबसे विरोधी सरकार आई है, उनके काले कारनामे स्थानीय अखबारों की सुर्खियाँ बनते रहे हैं। पिछले दिनों उनको तस्करी और मनीलांड्रिंग के आरोपों में संबधित अफसरों से सौदा नहीं पटने के कारण सलाखों के पीछे भेजा गया। उनके बडे भाई बिहारी जी चाइल्ड ट्रैफिकिंग और जिस्मफरोशी करवाने के आरोप में पहले से ही जेल में बंद हैं। कुछ समय पहले तक उनका भी शहर की राजनीति में अच्छाखासा रसूख था। जनसेवा करते करते कब वह तनसेवा के उद्यम में आ गए उन्हें भी पता नहीं चल सका। मुरारी जी के एक परम मित्र हैं त्रिपुरारी जी। वह एक ब्रह्मांडवादी पार्टी के फायरब्रांड नेता हैं। वह अपनी काली जुबान से एक राउंड में 100 से ज्यादा तड़ातड़ फायर करने में सक्षम हैं। जब भी वह रौ में आकर अपनी जुबान खोलते हैं, दंगे-फसाद, आगजनी और लूटमार जैसे धंधेबाज अपने-अपने काम में लग जाते हैं। उनकी इसी काबिलियत के कारण बहुतेरे नेता अपने क्षेत्रों में चुनाव प्रचार की सुपारी देने उनके दरवाजे पर खडे नजर आते हैं।


ऐसे ही एक अन्य सत्पुरुष हैं अधिकारी जी। सत्पुरुष हैं इसलिए सहृदय हैं और समाज में मान-सम्मान भी बहुत है। इस मान-सम्मान की ही खातिर उनके पास हर अवसर के हिसाब से चेहरे भी हैं और कपड़े भी हैं। दिन में फक्क सफेद कपड़ों में नजर आते हैं, व्यवहार भी सत्पुरुषों वाला करते हैं। मौका मिलते ही मखमली जूते पहिनकर पीछे से लात मारने में माहिर हैं। लोगों की आहें सुनकर दृवित हो उठते हैं और फिर मलहम लेकर दौड़े चले आते हैं। रात में काला शाल लपेट कर, काली टोयोटा में बिनानागा शहर के बाहर बने रंगमहल में रंगोत्सव मनाने आते हैं। रंगोत्सव की व्यवस्था उनके मातहत कर ही देते हैं।


इसी से मिलती-जुलती कहानी ब्रह्मचारी जी की भी है। वह खुद को बाल ब्रह्मचारी कहते हैं लेकिन जवानी का प्रसंग छिड़ते ही जुबान लड़खड़ा जाती है। लोग समझ जाते हैं कि जबतक वह बालक थे तब तक ही ब्रह्मचारी थे। आजकल वह एक मठ के स्वामी हैं और नि:संतान दंपत्तियों के लिए पूज्यनीय है। तलघर में बने साधना कक्ष में एकांत में जब भी वह पुत्र-अनुष्ठान यज्ञ करते हैं, नब्बे प्रतिशत स्त्रियों की गोद भर जाती है।

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इन सबसे अलग हैं चिंतामणि। आप सोच रहे होंगे कि तमाम अपराधिक मनोवृत्ति वाले इंसानों के लिए हमने जी लगाया है लेकिन चिंतामणि के साथ नहीं। आप यदि यह मान रहे हैं कि बतौर सावधानी या भयवश हमने जी लगाया है तो आप सौ फीसदी गलत हैं। माना कि हम मँहगाई, बेरोजगारी, बढ़ती असहिष्णुता जैसे अनेक मुद्दों के साथ ही दूरदर्शन पर आठ बजे की आकस्मिक घोषणाओं को लेकर भले ही भयभीत रहते हों लेकिन इनके नाम के पीछे जी लगाने का इस भय से कोई संबंध नहीं है। ये हमारे राजनीतिक संस्कार हैं जो हमें वर्तमान के शिखर पुरुषों ने सिखाए हैं। गोडसे और ओसामा को गोडसे जी और ओसामा जी कहने का पाठ सबसे पहले इन्होंने हमें पढ़ाया था। सजायाफ्ता बलात्कारियों को भी पुष्पहारों से नवाजने और उनके 'पुरुषार्थ' पर गर्व से सीना चौड़ा करने का सबक हाल ही में इनसे सीखा है। पता नहीं कब यही लोग माननीय बन कर हमसे जीने का अधिकार छीनने चले आएँ। इसीलिए संस्कारवान राजनेताओं की विरासत को 'जी' का ठप्पा लगाकर हम आगे बढ़ा रहे हैं और अपने जीवन को निर्विघ्न बनाने का यत्न कर रहे हैं। 


दूसरी ओर चिंतामणि खुश हैं। लोग उन्हें चिंतया, चिंतू, चिंतो कहते हैं पर उन्हें फर्क नहीं पड़ता। वह खुश हैं कि सफेदपोश नहीं हैं। पेट से चिपकी उनकी आँतों के कारण ही सफेदपोश लोगों के पेट बड़े हुए हैं। धूप में काम करके गहराई त्वचा के रंग को लेकर भी कोई ग्रंथि नहीं है उनके मन में। रंगीन चिथड़ों में लिपटे उनके तन में अलग ही दम दिख रहा है, हर मुसीबत को हँसते-हँसते झेल जाने का।


- अरुण अर्णव खरे

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