By सुरेश डुग्गर | Feb 13, 2019
कहने को सियाचिन का अर्थ गुलाबों की बगिया होता है। पर आज यह कांटों के ताज से कम नहीं है। दुश्मन से मुकाबला नहीं है फिर भी शहादत का क्रम जारी है। दुश्मन के गोले नहीं हैं, गोलियों की बरसात नहीं है फिर भी सैंकड़ों जवान वीरगति को प्राप्त हो रहे हैं। वीरगति भी ऐसी की मौत से पहले ही आदमी मौत के नाम से कांप उठे। रात को शून्य से 50 डिग्री नीचे तापमान। ऐसे में दुश्मन और प्रकृति से जूझना। जूझना भी ऐसा कि शत्रु के गोले मात्र तीन प्रतिशत जानें लेते हैं तो प्रकृति 97 प्रतिशत। मौत अगर आ भी जाए तो चिता भी नसीब नहीं होती। उसी बर्फ के नीचे दफन होना पड़ता है जिसमें शरीर कभी गलता नहीं तथा जिसे तोड़ कर पानी बनाया जाता है क्योंकि ‘जीवन रेखा’ माने जाने वाले ‘गरूड़’ हैलिकाप्टर अगर पानी लाते भी हैं तो वह जम कर बर्फ हो जाता है।
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ऐसे दृश्यों को याद कर उनके रोंगटे खड़े हो जाने स्वाभाविक है जो एक बार उस युद्ध मैदान में ड्यूटी निभा चुके हैं जिसे सियाचिन हिमखंड कहा जाता है। जो विश्व का सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित युद्धस्थल ही नहीं बल्कि सबसे खर्चीला युद्ध मैदान भी है जहां होने वाली जंग बेमायने है क्योंकि लड़ने वाले दोनों पक्ष जानते हैं कि इस युद्ध का विजेता कोई नहीं हो सकता। युद्ध की कथाओं को सुनने वालों के लिए युद्ध की तस्वीर आंखों के समक्ष खींचने में अधिक परेशानी नहीं होती लेकिन सियाचिन हिमखंड में होने वाली लड़ाई की तस्वीर वे नहीं खींच पाते जो बेमायने तो है ही सही मायनों में यह युद्ध दुश्मन के साथ नहीं बल्कि प्रकृति के साथ है जो होने वाली मौतों के 97 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है।
इस वर्ष 13 अप्रैल को 35 साल हो जाएंगे दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन हिमखंड पर भारत व पाक को बेमायने जंग को लड़ते हुए। यह विश्व का सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित युद्धस्थल ही नहीं बल्कि सबसे खर्चीला युद्ध मैदान भी है जहां होने वाली जंग बेमायने है क्योंकि लड़ने वाले दोनों पक्ष जानते हैं कि इस युद्ध का विजेता कोई नहीं हो सकता। इस बिना अर्थों की लड़ाई के लिए पाकिस्तान ही जिम्मेदार है जिसने अपने मानचित्रों में पाक अधिकृत कश्मीर की सीमा को एलओसी के अंतिम छोर एनजे-9842 से सीधी रेखा खींच कर कराकोरम दर्रे तक दिखाना आरंभ किया था। चिंतित भारत सरकार ने तब 13 अप्रैल 1984 को आप्रेशन मेघदूत आरंभ कर उस पाक सेना को इस हिमखंड से पीछे धकेलने का अभियान आरंभ किया जिसके इरादे इस हिमखंड पर कब्जा कर नुब्रा घाटी के साथ ही लद्दाख पर कब्जा करना था।
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भारत सरकार ने इसके बाद कभी भी सियाचिन हिमंखड से अपनी फौज को हटाने का इरादा नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान इसके लिए तैयार ही नहीं है। नतीजतन आज जबकि इस हिमखंड पर सीजफायर ने गोलाबारी की नियमित प्रक्रिया को तो रूकवा दिया है पर प्रकृति से जूझते हुए मौत की आगोश में जवान अभी भी सो रहे हैं, पाकिस्तान सेना हटाने को तैयार नहीं है। जमीन ऐसी बंजर और दर्रे इतने ऊँचे कि सिर्फ पक्के दोस्त और कट्टर दुश्मन ही वहां तक पहुंच सकते हैं। ये है सियाचिन, दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र। अगर नाम के मतलब पर जाएं तो सिया का मतलब गुलाब और चिन का मतलब जगह यानी गुलाबों की घाटी।
मगर वहां तैनात सैनिकों के लिए इस गुलाब के कांटे काफी चुभने वाले साबित हो रहे हैं। सियाचिन में ठंड में तापमान शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस तक नीचे पहुंच जाता है। बेस कैंप से भारत की जो चौकी सबसे दूर है उसका नाम इंद्र कोल है और सैनिकों को वहां तक पैदल जाने में लगभग 20 से 22 दिन का समय लग जाता है। चौकियों पर जाने वाले सैनिक एक के पीछे एक लाइन में चलते हैं और एक रस्सी सबकी कमर में बंधी होती है। कमर में रस्सी इसलिए बांधी जाती है क्योंकि बर्फ कहां धंस जाए इसका पता नहीं रहता और अगर कोई एक व्यक्ति खाई में गिरने लगे तो बाकी लोग उसे बचा सकें।
18 हजार से 22 हजार फुट की ऊंचाई पर तैनात सैनिकों के लिए युद्ध लड़ना आसान नहीं है। तोपची शत्रु के गोलों से बचने की कोशिश तो करते ही हैं उससे पहले वे उस भयानक सर्दी से बचाव की कोशिश में जुटते हैं जिसकी एक हवा तक शरीर को लगने का सीधा अर्थ होता है जीवन से सदा के लिए मुक्ति। लेकिन इन सबके बावजूद भारतीय सैनिक ऊंचे मनोबल के साथ उन चौकिओं पर पाक हमले के खतरे के बीच तैनात हैं जहां तक पहुंचने का एक मात्र साधन हैलिकाप्टर हैं। सियाचिन के हिमखंड में बेमायने जंग लड़ रहे इन सैनिकों के लिए भारतीय वायुसेना का चीता हैलिकाप्टर किसी देवता से कम नहीं है जो न सिर्फ उन्हें सभी प्रकार की आपूर्ति बहाल रखने के लिए दुश्मन की गोलों की बरसात के बीच भी उड़ाने भरते रहे हैं। हालांकि यह विमान 18 हजार फुट की ऊंचाई पर उड़ान भरने के काबिल हैं मगर मजबूरन उनके पायलटों को 22 हजार फुट की ऊंचाई पर उड़ान इसलिए भरनी पड़ती रही है ताकि पाकिस्तानी गोले उन्हें छू न सकें।
इतना अवश्य है कि एक बार इस हिमखंड पर ड्यूटी निभा कर लौटने वाले सैनिक पूरी तरह से स्वास्थ्य नहीं रहते क्योंकि प्रत्येक जवान को प्रकृति अपनी चपेट में ले लेती है जिसका परिणाम उनके अपाहिज होने के रूप में सामने आता है। इसी कारण हिमखंड पर ड्यूटी निभा चुके सेनाधिकारी चाहते हैं कि इस लड़ाई को तत्काल रोका जाना चाहिए जिसके न ही कोई मायने हैं और न ही कोई विजेता हो सकता है क्योंकि बर्फ में दुश्मन से तो जूझा जा सकता है परंतु प्रकृति से नहीं।
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एक चौकी से दूसरी चौकी तक जाने वालों को ऑक्सीजन की कमी होने की वजह से उन्हें धीमे-धीमे चलना पड़ता है और रास्ता कई हिस्सों में बंटा होता है। साथ ही ये भी तय होता है कि एक निश्चित स्थान पर उन्हें किस समय तक पहुंच जाना है और फिर वहां कुछ समय रुककर आगे बढ़ जाना है। हजारों फुट ऊंचे पहाड़ या हजारों फुट गहरी खाइयां, न पेड़-पौधे, न जानवर, न पक्षी. इतनी बर्फ कि अगर दिन में सूरज चमके और उसकी चमक बर्फ पर पड़ने के बाद आंखों में जाए तो आंखों की रोशनी जाने का खतरा और अगर तेज चलती हवाओं के बीच रात में बाहर हों तो चेहरे पर हजारों सुइयों की तरह चुभते, हवा में मिलकर उड़ रहे बर्फ के अंश।
इन हालात में सैनिक कपड़ों की कई तह पहनते हैं और सबसे ऊपर जो कोट पहनते हैं उसे ‘स्नो कोट’ कहते हैं। इस तरह उन मुश्किल हालात में कपड़ों का भी भार सैनिकों को उठाना पड़ता है। वहां टैंट को गर्म रखने के लिए एक खास तरह की अंगीठी का इस्तेमाल किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में बुखारी कहते हैं। इसमें लोहे के एक सिलिंडर में मिट्टी का तेल डालकर उसे जला देते हैं। इससे वो सिलिंडर गर्म होकर बिल्कुल लाल हो जाता है और टैंट गर्म रहता है। सैनिक लकड़ी की चौकियों पर स्लीपिंग बैग में सोते हैं, मगर खतरा सोते समय भी मंडराता रहता है क्योंकि ऑक्सीजन की कमी की वजह से कभी-कभी सैनिकों की सोते समय ही जान चली जाती है।
इस स्थिति से बचाने के लिए वहां खड़ा संतरी उन लोगों को बीच-बीच में उठाता रहता है और वे सभी सुबह छह बजे उठ जाते हैं। वैसे उस ऊंचाई पर ठीक से नींद भी नहीं आती। वहां नहाने के बारे में सोचा नहीं जा सकता और सैनिकों को दाढ़ी बनाने के लिए भी मना किया जाता है क्योंकि वहां त्वचा इतनी नाजुक हो जाती है कि उसके कटने का खतरा काफी बढ़ जाता है और अगर एक बार त्वचा कट जाए तो वो घाव भरने में काफी समय लगता है। वहां लगभग तीन महीने सैनिक तैनात रहते हैं और उस दौरान वो बहुत ही सीमित दायरे में घूम फिर सकते हैं।
सियाचिन की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत के साथ हर बातचीत में पाकिस्तान इस क्षेत्र के विसैन्यीकरण का मुद्दा जरूर उठाता है। सियाचिन में भारतीय सेना की मौजूदगी पर हर साल करोड़ों रुपये के खर्च और युद्ध से ज्यादा मौसम की मार से होने वाली जनक्षति को देखते हुए अक्सर कहा जाता है कि इस इलाके से सेना को हटा लेना चाहिए। लेकिन सियाचिन की भौगोलिक स्थिति उसे भारत के लिए सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण बनाती है।
यही वह क्षेत्र है जिसके जरिए पाकिस्तान और चीन के गठजोड़ पर भारत की नजर रहती है। सियाचिन ही जम्मू-कश्मीर का एकमात्र ऐसा इलाका है, जहां भारतीय सेना पूरी तरह से पाकिस्तानी सेना पर हावी है। इंद्रा नामक पहाड़ी चोटी से शुरू होने वाला 75 किमी लंबा सियाचिन ग्लेशियर समुद्रतल से लगभग 23 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। नुब्रा घाटी को जीवन लायक बनाने वाली नुब्रा नदी भी इसी ग्लेशियर से निकलती है। लेकिन सियाचिन में कोई आबादी नहीं है, सिर्फ सौ से ज्यादा सैन्य चौकियों पर तैनात जवान ही जिंदगी का अहसास कराते हैं।
कश्मीर में नियंत्रण रेखा प्वाइंट एनजे 9842 पर खत्म हो जाती है। इस बिंदू से आगे यह रेखा उत्तर में सालतोरा रिज लाइन से गुजरती है। यह रिज लाइन सियाचिन ग्लेशियर से लगभग 15 किमी पश्चिम में है। यह ग्लेशियर की पश्चिमी दीवार कहलाती है। भारत इस विभाजन को मानता है, लेकिन पाकिस्तान इस पर राजी नहीं है। पाकिस्तान के मुताबिक, नियंत्रण रेखा उत्तर पूर्व में नुब्राघाटी से भारत-तिब्बत सीमा पर काराकोरम तक होनी चाहिए। अगर उसके इस दावे को भारत स्वीकारता है तो उसके हिस्से में अतिरिक्त दस हजार वर्ग किमी का क्षेत्र आ जाएगा।
इसी इलाके में कुछ सबसे ऊंची चोटियां हैं। जिनमें के-2, ब्रोड, घोगोलिसा, मशेरब्रम, गशेरब्रम, बालटोरो, शेरपी और सासेर स्थित हैं। भारत पहले इस क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था। लेकिन पाकिस्तान द्वारा पर्वतारोहियों की आड़ में इस क्षेत्र में अतिक्रमण शुरू हो गया। इसके साथ पाकिस्तान ने यूरोप से ऊंचे बर्फीले क्षेत्र में सैनिकों की तैनाती के लिए आवश्यक साजोसामान का आयात शुरू किया। इससे भारत ने पाकिस्तान के इरादों को भांपते हुए ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया और 13 अप्रैल 1984 को पहली बार भारतीय सेना के जवान सियाचिन आधार शिविर पर पहुंचे थे।
चारों ओर साल भर जमीं बर्फ पर जीवन का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता और बावजूद इसके उसकी रक्षा के लिए अभी तक भारतीय पक्ष हजारों करोड़ों रूपया फूंक चुका है इस सच्चाई के अतिरिक्त कि 1025 से अधिक (सरकारी आंकड़े कभी जाहिर नहीं किए गए हैं।) भारतीय जवान इस युद्धक्षेत्र में पिछले 35 सालों में शहीद हो चुके हैं। एक समय तो ऐसा था कि इस हिमखंड पर प्रत्येक दो दिनों में एक जवान की मृत्यु हो जाती थी। पाक को भी 1344 सैनिक गंवाने पड़े हैं।
इन सैनिकों के लिए बदनसीबी यह है कि कभी पहले बतौर सजा ऐसे स्थानों पर तैनाती की जाती थी लेकिन अब उन्हें मौत के मुंह में धकेलने की शुरूआत हो चुकी है। जहां तैनात जवानों के लिए ताजा खाना और हरी सब्जियां अभी भी सपना हैं। हालत यह है कि सियाचिन में तैनात जवानों की मांग पूरा करने में आज भी दो से तीन सालों का समय लगता है चाहे वह मांग हथियारों के प्रति हो या फिर ठंड से बचाव के लिए कपड़ों की। सियाचिन हिमखंड के युद्धक्षेत्र की कल्पना मात्र से वे सभी लोग कांप उठते हैं जो एक बार इस पर ड्यूटी निभा कर आते हैं। एक वापस लौटने वाले सेनाधिकारी के शब्दों मेंः ‘ग्लेशियर पर अगर कोई एक रात काट कर जीवित बच जाता है तो समझो वह परीक्षा में पास हो गया।’
हालांकि अब संघर्ष विराम होने के कारण सैनिकों के पास वहां ज्यादा काम भी नहीं रहता और उन्हें बस समय गुजारना होता है। इसलिए जब हर तरफ सिर्फ बर्फ ही बर्फ या खाइयां हों तो ऊबना भी स्वाभाविक हो जाता है। सियाचिन पर बनी सैनिक चौकियों की जीवन रेखा के रूप में वायुसेना काम करती है। उन चौकियों पर जो हेलिकाप्टर उतरता है उसे चीता का नाम दिया गया है। सेना का कहना है कि उन्हें जिन ऊंचाइयों पर रहना होता है वहां सिर्फ वही हेलिकाप्टर काम कर सकता है।
सबसे ऊंचाई तक जाने और सबसे ऊंचाई पर बने हेलिपैड पर लैंड करने वाले हेलिकाप्टर का रिकॉर्ड इसी के नाम है। संघर्ष विराम से पहले सीमा के नजदीक बनी चौकियों तक हेलिकाप्टर ले जाने में काफी सावधानी बरतनी होती थी। चीता हेलिकाप्टर उन चौकियों पर सिर्फ 30 सेकेंड के लिए ही रुकता था। संघर्ष विराम से पहले ये इसलिए किया जाता था जिससे विरोधी पक्ष जब तक निशाना साधेगा तब तक हेलिकाप्टर उड़ जाएगा।
मगर अब भी वही प्रक्रिया अपनाई जाती है जिससे सेना किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहे। सैनिकों को दूसरी जगहों से लाकर जब सियाचिन पर तैनात किया जाता है तो उससे पहले उन्हें इतने ठंडे मौसम के अनुरूप खुद को ढालने के लिए तैयार किया जाता है। सैनिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे सिर्फ एक सैनिक ही न होकर इन परिस्थितियों में एक पर्वतारोही की तरह काम करें। मनोरंजन का भी वहां कोई साधन नहीं है। यानी पहाड़ों के बीच पहाड़ सी मुश्किलों के साथ चल रहा है सैनिकों का जीवन।
परंतु इतना अवश्य है कि एक बार इस हिमखंड पर ड्यूटी निभा कर लौटने वाले सैनिक पूरी तरह से स्वास्थ्य नहीं रहते क्योंकि प्रत्येक जवान को प्रकृति अपनी चपेट में ले लेती है जिसका परिणाम उनके अपाहिज होने के रूप में सामने आता है। इसी कारण हिमखंड पर ड्यूटी निभा चुके सेनाधिकारी चाहते हैं कि इस लड़ाई को तत्काल रोका जाना चाहिए जिसके न ही कोई मायने हैं और न ही कोई विजेता हो सकता है क्योंकि बर्फ में दुश्मन से तो जूझा जा सकता है परंतु प्रकृति से नहीं।
पाकिस्तान फौज सलतोरो रिज से भी पश्चिम में ग्योंग ग्लेशियर की नीची पहाड़ियों पर है। सलतोरो रिज से नीचे होने के कारण उसका सियाचिन ग्लेशियर पर किसी तरह का भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष न तो नियंत्रण है और न ही संपर्क। यही नहीं पाक सेना का बेस निचले ग्योंग ग्लेशियर में होने के कारण यह भारतीय फौज के निशाने पर है तथा उसकी सभी गतिविधियों पर भारत की नजर रहती है। दरअसल, पाकिस्तान की नजर सलतोरो रिज पर है ताकि उसकी सेना वास्तविक सियाचिन ग्लेशियर पर निगरानी रख सके। इससे उसे सियाचिन ग्लेशियर में हो रही भारतीय सेना की गतिविधियों पर नजर रखने का मौका मिल जाएगा तथा वह बिलाफोंडला और सियाला दर्रे का लाभ उठा विदेशी पर्वतारोहियों को इस क्षेत्र में भेज कर रोज करोड़ों रुपये का व्यापार कर सकेगा। सैनिक प्रयासों के बावजूद और हजारों जानें गंवा कर भी पाकिस्तान अपने इस मकसद में कामयाब नहीं हो पाया है। सियाचिन का सामरिक महत्व इस कारण और भी बढ़ जाता है कि यह क्षेत्र शाक्सगेम घाटी से सटा हुआ है, जहां पाकिस्तान ने भारत के विरोध के बावजूद 1963 में 5160 किमी भूमि चीन को दी थी, जबकि चीन का इस क्षेत्र से कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं था।
यही नहीं गहन अंधेरे में शून्य से 50 डिग्री नीचे के तापमान में एक चौकी से दूसरी तक का सफर भी कम खतरनाक नहीं है सियाचिन में। चाल इस तरह से रखी जाती है कि पाकिस्तानी सैनिकों से बचने के साथ-साथ प्रकृति की नजर से भी बचा जाए ताकि वह कहीं किसी को निगल न जाए। नतीजतन सियाचिन में दूरी को घंटों में नापते हैं क्योंकि एक घंटे में सिर्फ 250 मीटर की दूरी ही पार की जा सकती है। देखा जाए तो सियचिन का युद्ध वायुसेना के दम पर ही लड़ा जा रहा है और वायुसेना के दम पर ही यह क्षेत्र भारतीय कब्जे में है। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि कभी न जीती जा सकने वाली सियाचिन की लड़ाई पर प्रति वर्ष वायुसेना गैर सरकारी तौर पर 3000 करोड़ रूपया खर्च कर रही है। पिछले 35 सालों में 75 हजार करोड़ के लगभग राशि को वायुसेना सियाचिन के लिए खर्च कर चुकी है।
-सुरेश डुग्गर