गतांक से आगे... क्योंकि इस पावन लीला में वाक्य प्रस्फुटित करने की बारी अब श्री राम जी की थी। जो शिष्य धर्म की सागर-सी गहराई और आसमां-सी विराटता शब्दों की अंजुली में सजा श्री हनुमान जी के समक्ष रख रहे थे। सही अर्थों में श्री हनुमान जी तो माध्यम भर हैं। समझाना तो उन्हें समाज को है कि मुझे सेवक कितना व क्यों प्रिय है।
समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ।।
अर्थात् सारा संसार मुझे समदर्शी समझता है। मेरे लिए न कोई प्रिय है और न ही अप्रिय। लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है। सेवक मुझे निश्चित ही प्रिय है। क्योंकि वह 'अनन्य गति' होता है। अर्थात् मुझे छोड़कर उसका अन्यत्र कोई भी सहारा नहीं होता।
श्रीराम जी ने इस पंक्ति में भक्ति का बहुत ही अलौकिक एवं विशाल सूत्र दे दिया है। श्री राम जी तो परम सत्ता हैं, भला कौन है जो उनके वश में न हो। लेकिन श्री राम जी भी अगर किसी के वश में हैं तो वह केवल उनका सेवक, उनका भक्त हुआ करता है। कारण है कि सेवक अपनी समस्त इच्छाओं व सामर्थ्य का 'केन्द्र बिंदू' मात्र अपने 'स्वामी' को बना लेता है। जो सेवक स्वयं को जितना मिटा लेता है, वह उतना ही बन जाता है। सेवक को स्वयं की इच्छाओं का कभी भान ही नहीं होता। इसके विपरीत उसका मालिक क्या सोचता है, क्या चाहता है, इसकी उसे हर पल बड़े अच्छे से खबर रहती है। उसके लिए स्वामी का दिया हुआ रेत का छोटा-सा कण भी कोहिनूर हीरे के समान होता है। प्रसन्न होकर मालिक उस पर अगर एक बूंद पानी भी छिड़क दे तो उसे सात समुद्र पी लेने की तृप्ति का अहसास हो जाता है।
इसी भाव को पुष्ट करती अरब की एक घटना बड़ी मार्मिक व प्रेरणादायक है। कहते हैं कि उस दौर में मनुष्यों को गुलाम बनाकर मंडी में बेचा जाता था। एक से एक गुणों व विशेषताओं वाले गुलाम अपने बिकने के इंतज़ार में मंडी में बैठे रहते थे। एक खरीददार जब गुलामों का भाव परख रहा था तो दाम को लेकर वैसे तो उसे कोई हैरानी न थी लेकिन एक गुलाम के भाव ने उसको प्रश्न पूछने पर विवश कर दिया। कारण कि अमुक गुलाम का भाव इतना अधिक था कि इतने में बाकी के सब गुलाम खरीदे जा सकते थे। जिज्ञासु खरीददार गुलाम के मालिक से इसका कारण जानना चाहता था कि आखिर इस गुलाम का मूल्य इतना अधिक क्यों? तो मालिक ने मुस्कुराकर कहा कि जनाब आप स्वयं ही गुलाम के पास जाकर अपने संशय का समाधन क्यों नहीं कर लेते। जिज्ञासु गुलाम से प्रश्न करता है− 'हे गुलाम! पहले तो अपना नाम बताओ, मैं किस नाम से तुम्हें पुकारूं।' गुलाम की नज़रें जो अभी तक नीचे थीं जिज्ञासु की बात सुनकर अपने मालिक की तरफ घूम गईं। और अतिअंत विनय भाव से गुलाम बोला कि 'गुलाम का कोई अपना नाम थोड़ी होता है। बस जिस नाम से मालिक मुझे पुकार ले वही मेरा नाम है।' जिज्ञासु को अपने संपूर्ण जीवन काल में ऐसा उत्तर प्रथम बार मिला था। एक सात्विक-सा आक्रोश भी पनपा कि भला कभी ऐसा भी होता है क्या? जड़ से जड़ वस्तु का भी अपना एक विशिष्ट नाम होता है तो भला कोई चेतन अनाम कैसे हो सकता है? क्योंकि जन्म लेते ही 'रूप' और 'नाम' दो चीज़ों पर तो उसका स्वतः ही अधिकार होता है। और यह गुलाम कहता है कि जो मालिक पुकारे वही नाम है।
चलो! कोई नहीं कुछ और पूछता हूं। अच्छा तुम खाते कितना हो? कितना सोते हो? गुलाम के मस्तिष्क पर सूने मरुस्थल की तरह भावनाओं की कोई उथल−पुथल नहीं थी। पर प्रश्न का उत्तर सरल व सीध होते हुए भी जिज्ञासु के मन में उथल−पुथल मचा रहा था। गुलाम बोला खाना उतना ही खाता हूं जितना मालिक खिला देता है। और जितना सोने को मालिक देते हैं उतना सो भी लेता हूं। जिज्ञासु के अंदर थोड़ी खीझ पैदा हो रही थी कि बताओ हर बात पर मालिक को ही मुख्य समझ रहा है। खैर छोड़ो! क्यों न इसके दाम इसके मुख से ही पूछूं? 'अच्छा बताओ कितने दाम में बिकोगे?' गुलाम का फिर पहले की ही तरह उत्तर था 'जितने में मालिक बेच देगा।' जिज्ञासु झुंझला-सा गया और गुलाम को झंझोड़ते हुए बोला− 'अरे! गुलाम हो कोई पत्थर तो नहीं हो कि जैसा मूर्तिकार गढ़ देगा तुम गढ़े जाओगे। तुम्हारी अपनी भी तो भावनाएं होंगी? कुछ तो सपने देखे होंगे?' जिज्ञासु का प्रश्न सुनकर गुलाम बड़े पते की बात कह गया− 'अपनी भावनाएं या सपने ही अगर बचे रहे तो फिर भला मैं गुलाम कहां रह गया।' अब जिज्ञासु को पूरी तरह समझ आ चुकी थी कि इस गुलाम का दाम इतना ज्यादा क्यों है।
सज्जनों विचार कीजिए वह गुलाम का मालिक जिसमें कुछ सीमित सामर्थ्य, बल व आयु होगी। लेकिन तब भी गुलाम ने उस मालिक के प्रति सेवकाई की अद्भुत मिसाल पेश की। लेकिन जिसके स्वामी स्वयं श्री नारायण हों तो वहां सेवकाई का क्या स्तर होना चाहिए आप कल्पना कर सकते हैं। सेवकाई के इस नमूने को कबीर साहिब जी अपनी वाणी में कुछ यूं अभिव्यक्त करते हैं−
कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का।। तजि मन का अभिमानु।।
ऐसा कोइ दासु होइ ताहि मिलै भगवानु।।
कबीर रोड़ा हुआ त किआ भइआ पंथी कउ दुखु देइ।।
ऐसा तेरा दासु है जिउ धरनी महि खेह।।
कबीर खेह हूई तउ किआ भइआ जउ उडि लागै अंग।।
हरि जनु ऐसा चाहिए जिउ पानी सरबंग।।
कबीर पानी हुआ त किआ भइआ सीरा ताता होइ।।
हरि जनु ऐसा चाहीऐ जैसा हरि ही होइ।।
अर्थात् सेवक कैसा होना चाहिए, क्या रोड़े की मानिंद? लेकिन वह तो पांव में ठोकर लगाकर कष्ट दे सकता है। तो क्या सेवक माटी की तरह हो? लेकिन माटी भी तो उड़−उड़कर तन पर पड़ती है। और हमें मलिन करती है। तो क्या एक सेवक को पानी जैसा होना चाहिए जो माटी की मलीनता को भी धो दे? लेकिन पानी भी तो ठंडा और गर्म होकर कष्ट प्रदान करता है। तो प्रश्न उत्पन्न होता है कि आखिरकार एक सेवक को कैसा होना चाहिए? तो अंत में कबीर जी यही निष्कर्ष देते हैं कि हे प्रभु! एकमात्र आप ही हैं जो कभी किसी के कष्ट का कारण नहीं बनते अपितु हर हालात में भला ही करते हैं। और सुख−शांति व वैभव का केवलमात्र आप ही आधार हैं। अतः 'हरि जनु ऐसा चाहीऐ जैसा हरि ही होइ' अर्थात प्रभु वह सेवक आप ही का साक्षात प्रतिबिंब हो।
सेवकाई के और कौन से सूत्र श्री राम जी ने दिए। जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...
-सुखी भारती