By सुखी भारती | Jul 29, 2021
श्रीलक्ष्मण जी का सुग्रीव के संदर्भ में सेवा कार्य पूर्ण हो चुका था। कल का भूला सुग्रीव आज सायं घर वापिस आ चुका था। क्योंकि सुग्रीव माँग तो श्रीराम जी की ही था। तो यह सोच, श्रीलक्ष्मण जी प्रभु के श्रीचरणों में, प्रभु की अमानत सुग्रीव को, शीघ्र अति शीघ्र पहुंचाने का प्रयत्न करते हैं। श्रीराम जी ने श्रीलक्ष्मण जी को कहा तो यही था, कि सुग्रीव को भय दिखा कर साथ ले आना। और सुगीव को तो प्रभु के समक्ष लाना ही था, लेकिन साथ में पूरे किकिंष्धा वासी भी उनके पीछे चल पड़ेंगे, यह तो किसी ने सोचा भी न था। यह केवल इसलिए नहीं था, कि प्रजावासियों को सुग्रीव का कोई बंधन था, वे उसके पीछे चलें। अपितु इसलिए कि प्रजा वासी भी श्रीराम जी के दर्शनों के लिए अतिअंत लालायित थे। वे तो प्रभु के दर्शनों हेतु अब तक इसलिए प्रभु के पास नहीं गए थे, कि कहीं सुग्रीव यह दोषारोपण करता हुआ, हमारे ही प्राणों का प्यासा न हो जाए, कि तुम लोग श्रीराम जी को कहीं मेरे भेद न बता दो। जब श्रीराम जी के श्रीचरणों में सुग्रीव उपस्थित होता है, तो यह बात तो वह स्वयं भी स्वीकार करता है, कि हे प्रभु मैं तो हूं ही अति नीच बंदर। बंदर भी ऐसे जिसने काम का शिखर छूआ हो- ‘मैं पावँर पसु कपि अति कामी।।’ कामी तो चलो हम हैं ही, साथ में क्रोधी भी उच्च श्रेणी के हैं। भूले से भी हमें पता चल जाता कि किसी वानर ने आपसे हमारी कोई बात पहुंचाई है, तो हम तो उसी समय उसका वध कर देते। इसीलिए मेरा दृढ़ मानना है कि क्रोध के पाश में जो नहीं जकड़ा, वह जीव आप ही के समान है। उसमें और आपमें रत्ती भर भी भेद नहीं-
‘लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया।
सो नर तुम्ह समान रघुराया।।
यह गुन साधन तें नहिं होई।
तुम्हारी कृपा पाव कोइ कोई।।’
सुग्रीव को यह कहने में किंचित भी संकोच नहीं था, कि प्रभु भला मैं भी क्या करता। मैं तो था ही विषयों के आधीन। और काम के कीचड़ में सने जीव को कामान्ध भी कहा जाता है। पहला तो क्रोध का मारा मैं किसी की सुनता नहीं था। सीधे शब्दों में कहो, तो मैं बहरा ही था, और यह मेरा प्रथम अवगुण था। और दूसरा भयंकर अवगुण यह था कि मैं अतिशय कामी था, अर्थात काम में आठों पहर अंधा। अब आप ही बताईये प्रभु, जो जीव बहरा भी हो और अंधा भी हो, भला उसे कौन समझा सकता है। कारण कि कोई व्यक्ति अगर कर्मफल के प्रभाव से मात्र बहरा हो, तो उसे इशारों से समझाया जा सकता है। क्योंकि वह देख तो सकता है न, तो इशारे देख कर वह समझ जायेगा। या फिर कोई व्यक्ति मात्र अंधा है, लेकिन उसे कानों से स्पष्ट सुनाई देता है। तो उसे भले ही दिखाई न दे, लेकिन सुन कर तो वह काफी हद तक समझ ही सकता है। लेकिन जो मेरे जैसा, भाग्य का मारा है। अर्थात जिसके पास न ज्ञान नेत्र हैं, और न ही आँखें। तो भला वह जीव, कैसे किसी की बात समझ सकता है। और वह बात भी किसी सांसारिक साधारण मनुष्य की नहीं। अपितु साक्षात भगवान की बातें हों। बताइये वे हमें कैसे पल्ले पड़ सकती हैं-
‘नाइ चरन सिरु कह कर जोरी।
नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी।।
अतिसय प्रबल देव तव माया।।
छूटइ राम करहु जौं दाया।।’
सुग्रीव प्रभु के समक्ष भी तर्क रख रहा है कि प्रभु आपकी माया का पार पाना तो अतिअंत दुर्बल कार्य है। लेकिन जिसपे आप की विषेश कृपा हो जाये, वही इस माया जाल से बच सकता है। सुग्रीव के ऐसे गीत सुन श्रीराम जी ऐसा किंचित भी नहीं करते कि पहले तो सुग्रीव को डाँट लगाते। और कहते कि सुग्रीव तुमने हमें धोखा देकर बहुत बड़ा अपराध किया है। सज्जनों यहां श्रीराम जी के स्थान पर अगर हम लोग होते, तो निश्चित ही अपनी कृपायें गिनाने लगते, कि देखो हमने कैसे अपने प्राणों पर खेल कर तुम्हारी खातिर बालि को मारा। और तुम हो कि हमारे साथ ही ‘चीटिंग’ करने पर आमादा हो गए। हमें यह कहने में तनिक भी लज्जा न आती कि हे सुग्रीव! आज तुम्हारे जितने भी ठाठ-बाठ हैं न। ये सब हमारी ही कृपा से संभव हो पाया है। भगवान जानते हैं कि सुग्रीव भीरु है। और जो योद्धा भले ही अथाह बल से परिपूर्ण हो, लेकिन अगर वह भय से ग्रसित है, तो उसे जगत में कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। श्रीराम जी भले ही श्रीलक्ष्मण जी के समक्ष सुग्रीव का परिचय डरपोक व्यक्ति के रूप में कभी दे दें। लेकिन कभी भी सुग्रीव को उसके मुख पर नहीं कहा कि तुम भीरू हो। सदैव यही कहा कि हे सुग्रीव! निश्चित ही तुम महान योद्धा हो। कारण कि तुमने तो बालि जैसे अजय योद्धा से भिड़ने में भी संकोच नहीं किया। असमर्थों को समर्थवान व निर्बलों को महाबलि कहना, श्रीराम जी का यही गुण तो ऐसा गुण है, जो उनकी ममता व जीव के प्रति दयालुता का महान परिचायक है।
श्रीराम जी को पता भी है कि सुग्रीव उन्हें धोखा देता रहा है। लेकिन प्रभु ने कभी उसे, उसकी हीनता का उपहास करके, उसके मनोबल को डिगाने का प्रयास नहीं किया। उल्टे सदैव उसे धर्म मार्ग का अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया। हमारे और प्रभु में यही तो अंतर होता है कि हमें किसी के निन्यान्वें गुण पता हों, लेकिन हम उन निन्यान्वें गुणों की प्रशंसा नहीं करेंगे। लेकिन उसका सौवां गुण अगर गुण न होकर कोई साधारण-सा भी अवगुण क्यों न हो। हम उस अवगुण को, जगत में इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करेंगे, कि यूं प्रतीत होगा कि उस व्यक्ति में केवल अवगुण ही अवगुण हैं। लेकिन प्रभु का स्वभाव इतना दयालु और ममता से भरा है, कि उन्हें किसी व्यक्ति में अवगुण दृष्टिपात ही नहीं होते। भले ही उस व्यक्ति में निन्यान्वें भयंकर अवगुण हों, और केवल कोई एक शूद्र सा गुण हो, प्रभु बस उस नन्हें से गुण को पकड़ लेते हैं। उस गुण को वे इतना प्रचारित व मुखर करते हैं, कि यूं लगता है कि उस व्यक्ति में तो गुणों का असीम भण्डार है। श्रीराम जी के संर्दभ में हम यह वाक्य इसलिए कह रहे हैं, कि श्रीराम जी सुग्रीव के व्यक्तित्व के बारे में ऐसी बात कह देते हैं, कि वह श्रवण करके हमें हैरानी होती है, कि श्रीराम जी ने यह क्या कह दिया। कारण कि श्रीराम जी सुग्रीव की तुलना वर्तमान के एक महान पात्र से कर देते हैं, कि हमारी बुद्धि पूर्णता ही चकरा जाती है, कि प्रभु यह तुलना कर ही कैसे सकते हैं। कारण कि क्या कभी काग और हंस की भी तुलना हो सकती है। या सामान्य नाले और श्रीगंगा जी की तुलना संभव है? नहीं न? लेकिन प्रभु ने तो यह तुलना कर ही दी थी। प्रभु श्रीराम जी ने सुग्रीव की तुलना किसके साथ की, यह जानने के लिए पढ़ें अगला अंक। जय श्रीराज---(क्रमशः)
-सुखी भारती