श्रीराम के नाम के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम जुड़ा है, क्योंकि वह हमेशा मर्यादा का पालन करते रहे। वह एक श्रेष्ठ राजा, आदर्श बेटे, उच्च कोटि के शिष्य, आदर्श भाई और पति थे, जिन्हें युगांतर तक उनके इसी रूप में याद किया जाएगा। पूरा जीवन श्रीराम सत्य, धर्म, दया और मर्यादा के पथ पर चले। इसी कारण उनके राज को ‘राम राज्य’ कहा गया। हर कोई उम्मीद करता है कि ‘बेटा हो तो राम जैसा’, ‘राजा हो तो राम जैसा’, ‘चरित्र हो तो राम जैसा’।
जन कल्याण की दृष्टि से रामराज्य एक आदर्श और संपूर्ण व्यवस्था के रूप में प्रसिद्ध हैं। महात्मा गांधी ने आधुनिक भारत के लिए ऐसी ही शासन व्यवस्था की कामना की थी, जो रामराज्य के अनुरूप हो। राम के चरित्र में राजशाही और लोकतंत्र का अनोखा संगम है। वे मतदान के द्वारा चुनकर राजा नहीं बने थे, लेकिन जनता की इच्छा को जाने बगैर वे कुछ करते भी नहीं थे। वे अपने स्वार्थों के लिए प्रजा की इच्छा की अवहेलना कभी नहीं करते थे। इसी आदर्श को ध्यान में रखकर राम ने प्राणों से प्यारी धर्मपत्नी सीता का परित्याग किया था, व्यक्तिगत कष्ट सहकर भी राजा का दायित्व निभाया था।
राम कुर्सी को लपकने के लिए कभी उतावले नहीं रहे, इसलिए कुर्सी की कमजोरियां उन्हें बांध नहीं पायीं। वे आश्वासन बेचते नहीं फिरते थे। जो कहते थे, करते थे। प्रजा ही नहीं, अपने परिवार का भी उन्होंने अखंड विश्वास प्राप्त किया था। वे सबके दिलों में गहरे बैठे हुए थे। मनमानी करने की उन्हें छूट थी, लेकिन वे राज्य नियमों की मर्यादा से हमेशा जुड़े रहे।
चौदह वर्ष का वनवास के बाद राम को सिंहासन मिल रहा था। लेकिन वे अधीर और असंयत नहीं हुए। उन्हें अपनी चिंता बहुत कम थी। सबसे पहले राम ने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि वे जाकर सुग्रीव आदि मित्रों को स्नान कराएं। इसके बाद राम ने भरत को बुलाया और अपने हाथों से उसकी जटाओं को सुलझाया। सिंहासन मिलने के बाद केवल प्रजा ही नहीं, देवताओं आदि ने भी राम की स्तुति गायी। वेदों और शिवजी ने भी प्रभु की वंदना की। राम को इतना मान-सम्मान मिला, लेकिन वे इससे फूलकर अपने विवेक को नहीं खो बैठे। अपने कर्तव्य की याद उन्हें बनी रही। जैसे ही महादेव गये, प्रभु ने अवकाश पाकर पहला काम यह किया कि लंका से आये अपने मित्रों के लिए अच्छे आवास की व्यवस्था करायी। राजा के रूप में राम की यह प्रथम आज्ञा थी। जिन्हें केवल राम का भरोस है, उनकी देखभाल के लिए प्रभु सबसे पहले चिंतित हुए। प्राय: कुर्सी पाते ही राजा अपने बारे में अधिक व्यग्र हो जाता है, उसे अपने लिए सुंदर निवास की चिंता होती है। लेकिन राम की वृत्ति अपने बारे में सोचने की नहीं थी।
राजा बनकर राम ने प्रजा की ओर ध्यान दिया और एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की। सभी लोग अपनी मर्यादा में रहने लगे। मनुष्य, जीव-जन्तु और प्रकृति के बीच में राम ने समन्वय स्थापित किया। मनुष्य सदाचारी बनें, जीव-जन्तुओं ने अपनी पशुवृत्ति को संयत किया और प्रकृति सदा फलने-फूलने वाली बन गयी। समाज में दूषण न होने के कारण प्रकृति में प्रदूषण की समस्या भी नहीं थी। सभी का जीवन सहज और संयत था। कोई किसी से वैर नहीं करता। राम के प्रताप से सारी विषमताओं का अन्त हो गया है।
इन विषमताओं को समाप्त करने के लिए राम ने कोई जादू नहीं किया था। सहयोग, सलाह और समन्वय की नीति अपनाकर राम ने यह उपलब्धि पायी थी। सबको सम्मान देकर अपने लिए सम्मान प्राप्त किया था। वे सबके सहयोग से निर्णय लेने में विश्वास करते थे। वे समन्वय के पक्षधर थे, अपने किसी आचरण से अलगाव या भेद नहीं उत्पन्न करना चाहते थे।
बहुत ही स्पष्ट ढंग से राम मानवीय आदर्शों की विवेचना करते हुए कहते हैं कि सबसे बड़ा धर्म हैकृ दूसरों के कल्याण के लिए काम करना। वास्तव में, मनुष्य के जीवन को मर्यादित करने का यह अनूठा सिद्धानत है। यदि आप दूसरे की भलाई करेंगे तो आपकी भलाई होगी ही! जो दूसरों की प्यास बुझाता है, वह स्वयं प्यासा नहीं मर सकता। लेकिन जो दूसरों को प्यासा रखता है, उसके तड़प-तड़पकर मरने की संभावना अधिक होती है। दूसरों को कष्ट देने से बड़ी नीचता और कुछ और नहीं हो सकती। इस नीचता से आदमी रामराज्य में बचा था। उसे हर युग में इससे बचना चाहिए। दूसरों का दुख पहुंचाकर क्षणिक सुख भले ही मिले, पर मानसिक संतोष नहीं मिल सकता।
राम राजा के रूप में अपने श्रेष्ठ आचरण से पूरे समाज को उच्च आदर्शों के लिए प्रेरित करते हैं। राम का चरित्र दोमुंहा नहीं है। मंच पर प्रजा के लिए आंसू बहाकर घर में रंगरेलियां मनाने की मंशा उन्होंने कभी नहीं की। राजा के रूप में उनका जीवन प्रजा के लिए पूर्ण समर्पित था। वे अन्त:करण से यह स्वीकार करते थे कि मनुष्य का तन हर किसी को बड़े भाग्य से मिलता हैक, इसका सदुपयोग होना चाहिए। राजा को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे हर मनुष्य अपना पूर्ण विकास कर से। यह कहकर राम अपनी प्रजा को श्रेष्ठ आदर्शों की ओर झुकाना चाहते हैं। वे राज्य में ऐसी व्यवस्था कर चुके हैं, जहां आदमी अपने व्यवसाय के अनुरूप सुख सुविधा का जीवन जी सके; और वे यह भी चाहते हैं कि उनकी प्रजा सदाचरण करते हुए मोक्ष भी प्राप्त करे।
राम की यह चिंता एक श्रेष्ठ राजा का आवश्यक कर्तव्य है। जो राजा अपनी प्रजा के पूर्ण विकास की व्यवस्था की चिंता नहीं करता, वह प्रजा का प्यार नहीं पा सकता। उसकी शासन व्यवस्था समाज को सुख शांति नहीं दे सकती। राम इस सत्य को अच्छी तरह जानते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी प्रजा की लौकिक और पारलौकिक जिन्दगी संवारने के लिए व्यावहारिक प्रणाली की रचना की। इसीलिए आज भी हर कोई रामराज्य की कामना करता है।
जिस लोककल्याणकारी राज्य का शोर हम सुनते है उसकी अवधारणा भी हमें राम ने ही दी है। वंचित, शोषित, वास्तविक जरूरतमंद के साथ सत्ता का खड़ा होना राम राज की बुनियाद है। वह राज्य में धनियों से अधिक कर वसूलने और निर्धनों को मदद की अर्थनीति का प्रतिपादन करते है। आज की सरकारें भी यही कहती है। वर्तमान राजनीति के सर्वाधिक सुविधाजनक शब्द है ‘दलित आदिवासी’। इस वर्ग की जन्मजात प्रतिभा प्रकटीकरण के प्रथम अधिष्ठाता राम ही है। अवध नरेश का राज पूरे भारत तक फैला था वह अगर चाहते तो अपनी शाही सेना के साथ भी रावण से युद्ध कर सकते थे। दूसरे राजाओं से भी सहायता ले सकते थे। लेकिन राम ने वनवासियों के साथ उनकी अंतर्निहित सामरिक शक्ति के साथ रावण और दुसरे असुरों से संघर्ष करना पसंद किया। वनवासियों, दलितों के साथ पहली शाही सेना बनाने का श्रेय भी हम राम को दे सकते है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जीवन, उनकी कर्तव्यनिष्ठा और उच्च आदर्श पूरी मानवता के लिए मार्गदर्शन और प्रेरणा के स्रोत हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम एक आदर्श के रूप में हर व्यक्ति के दिलों में विद्यमान हैं। वास्तव में, श्रीराम भारत की चेतना का शाश्वत आधार है। ठीक वैसे ही जैसे दही में नवनीत समाहित है। जिस अंतिम छोर तक राम लोगों को प्रेरित करते है वही राम की वास्तविक अक्षुण्य शक्ति भी है। हमें श्रीराम के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने चाहिए और एक बेहतर समाज और आपसी सद्भाव का वातावरण बनाने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। जहां सबके लिए विकास और उन्नति का साधन हो।
- डॉ. आशीष वशिष्ठ
स्वतंत्र पत्रकार