Gyan Ganga: श्रीराम ने सुग्रीव को राजपाट भले सौंपा हो, लेकिन अंगद के साथ भी न्याय किया

By सुखी भारती | Jun 01, 2021

तारा शांत हो चुकी थी, बिल्कुल किसी गहरे गंभीर, सागर ही तरह। भट्ठी की तरह धधकते हृदय पर, प्रभु ने अपने स्नेह की ऐसी अमृतमई बौछार की, कि तारा के तप्त अंतस पटल पर एक दिव्य-सी ठंडक आच्छादित हो गई। उसे लगा मानो वह एक डरावने स्वप्न से जागी है। जिसका कारण मात्र एक था, कि वह माया के मायाजाल से मुक्त हो चुकी थी। तारा श्रीराम जी के पावन चरणों में जा गिरी-

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‘उपजा ग्यान चरन तब लागी।

लीन्हेसि परम भगति बर मागी।।’


क्यों, है न महाआश्चर्य! अभी चंद ही क्षण पूर्व तारा की स्थिति अति दयनीय थी, वह पति वियोग की पीड़ा से भयंकर व्याकुल व पीड़ित थी और अभी तारा मानो मोह के मक्कड़ जाल को किसी मूषक की भाँति काट चुकी थी। अभी कुछ ही समय पूर्व का गमगीन वातावरण, मानो ज्ञान सागर का स्रोत बन गया था। व्यवहारिक दृष्टि से देखेंगे तो संसार में, ऐसी विकट आपदाओं का निराकरण कहाँ संभव हो पाता है? लेकिन क्या गज़ब के जादूगर हैं श्रीराम! जिन्हें कोई भी परिस्थिति, कोई भी विपदा डिगा ही नहीं पाती। वे भगवान हैं, सर्वशक्तिमान हैं, निःसंदेह उन्हें ऐसा होने में क्या समस्या हो सकती है? और ऐसा होने में उनकी प्रभुताई भी थोड़ी न है? प्रभुताई तो उनकी तब है, जब उनका संग करके एक साधारण जीव भी, उन्हीं की तरह विषयों से खिलौनों की मानिंद खेलने लगता है। तारा इसका ताज़ा जीता जागता उदाहरण है, हम देख ही रहे हैं। तारा को तो चलो प्रभु ने ज्ञान से दीक्षित कर, उसे स्थिर कर दिया था।


लेकिन एक पहलू जिसका हम, अभी तक चिंतन ही नहीं कर रहे थे, वह था वीर अंगद और सुग्रीव के मध्य शक्ति व रिश्तों को लेकर सामंजस्य बिठाना। कारण कि वीर अंगद के मानसिक स्तर पर, तो हमने अभी उतर कर देखा ही नहीं। उनसे तो हमने पूछने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की, कि इस पूरे घटनाक्रम में वीर अंगद का आखिर क्या मत है। क्योंकि यहाँ वीर अंगद ही एक ऐसा पात्र है, जिसको बाहरी दृष्टि से अन्याय का सामना करना पड़ सकता है। कारण कि प्रभु श्रीराम जी ने सुग्रीव को पहले ही यह प्रण दे रखा है कि हे सुग्रीव! किष्किन्धा का राज्य तो हमने आपको ही देना है। यहां प्रश्न तो यह है कि क्या वीर अंगद के भाग्य में मात्र हानि ही हानि है? क्योंकि संसारिक न्याय पद्धति के संदर्भ से देखेंगे, तो किष्किन्धा के राज सिंघासन पर प्रथम अधिकार तो वीर अंगद का था। क्योंकि वीर अंगद बालि का सुपुत्र था, बालिग था, बलवान था और भक्ति भाव से ओत-प्रोत भी था। एक अच्छा शासक व कुशल योद्धा के समस्त लक्षण उसमें विद्यमान थे। लेकिन इतना होने पर भी प्रभु सत्ता पर किसको बिठा रहे हैं? प्रभु सुग्रीव के हाथों में किष्किन्धा की बागडोर सौंप रहे हैं, जिसका कि प्रभु के प्रति निकट भूतकाल में संदेह भी उत्पन्न हो चुका है और वह अंगद की भांति वीर भी नहीं है। यहाँ सुग्रीव की विश्वश्नीयता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करना कोई बहुत बड़ी अनहोनी नहीं है।

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लेकिन प्रभु ऐसा कुछ भी नहीं करते, कि सुग्रीव के शीश पर राज मुकुट सजता-सजता फिसलकर कहीं दूर जाकर गिर जाये। हो तो यह भी सकता था कि स्वयं वीर अंगद ही विद्रोह कर देते कि नहीं-नहीं! हम चाचा सुग्रीव की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि चाचा सुग्रीव ही तो मेरे प्रिय पिता जी की मृत्यु का कारण है। लेकिन वीर अंगद ने ऐसे कोई किंतु-परन्तु के भाव अपने भाल पर अंकित नहीं किए। परिणाम यह निकलता है कि श्रीराम अनुज लक्ष्मण जी को बुलाकर आदेश करते हैं कि आप किष्किन्धा का राज्य सुग्रीव को विधिवत सौंप दें। अब सुग्रीव के राज तिलक की पूर्णतः तैयारी है। लेकिन विचारणीय तथ्य तो यह है कि यहां शक्ति व रिश्तों का संतुलन भला कैसे बनता। अनुकूल वातावरण की संभावना तो हालांकि यहां प्रतीत नहीं हो रही थी लेकिन लक्ष्मण जी के कुशल नेतृत्व ने ऐसा संतुलन बनाया कि कहीं कोई त्रुटि दृष्टिपात ही नहीं हो पा रही। सुग्रीव को तो राजपाट मिला, लेकिन साथ में वीर अंगद को भी ओझल नहीं किया गया। अपितु उसे किष्किन्धा रूपी आँख का काजल बनाकर रखा गया। जी हाँ! श्री लक्ष्मण जी, वीर अंगद को युवराज पद प्रदान करते हैं-


‘राम कहा अनुजहि समुझाई।

राज देहु सुग्रीवहि जाई।।’


जिसका दूरगामी प्रभाव यह होगा, कि सुग्रीव के सिर पर चौबीसों घंटे एक डंड़ा खनखनाता रहेगा कि हे सुग्रीव! कभी भी ऐसा मत मान लेना, कि बालि तो मर गया और तुम अब सब ओर से स्वतंत्र हो, कोई तुम्हें कुछ कहने वाला नहीं, अथवा कोई तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी नहीं। तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। क्योंकि बालि की ही परछाई वीर अंगद के रूप में सदा तुम्हारे साथ रहेगी। कयोंकि श्रीलक्ष्मण जी ने वरिष्ठ गुरुजनों की पावन उपस्थिति में वीर अंगद को युवराज पद् से सुशोभित कर दिया है-


‘लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।

राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज।।’


श्रीराम जी ने सोचा कि सुग्रीव कहीं इस संकेत को व्यर्थ ही न समझ ले। इसलिए उसे तनिक स्पष्ट भी कह देना चाहिए। प्रभु ने कहा- ‘अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदयँ धरेहु मम काजू’।। प्रभु को पता था कि सुग्रीव के मन में अंगद के प्रति पुत्र भाव शायद उतनी गहराई से तो कभी भी नहीं पनपेगा। क्योंकि सुग्रीव को सदैव अंगद में बालि का प्रतिबिंब तो दिखता ही रहेगा। जिस कारण बालि रूपी एक अज्ञात भय के चलते, सुग्रीव के मन में अंगद का भय तो रहेगा ही, साथ में मेरी प्रीति भी सदैव बनी रहेगी। श्रीराम ने भय का प्रभाव तो चलो डाल ही दिया, लेकिन तब भी श्रीराम जी भला कच्चा खेल कैसे खेलते? क्योंकि भय का कोई स्थाई भरोसा तो है नहीं। और यह कहां आवश्यक है, कि जीव सदैव किसी से भयभीत ही रहे। जीवन के किसी पड़ाव पर आकर वह निर्भय भी तो हो सकता है। तब उसके सर्मपण, त्याग व निष्ठा की मात्रा भय के आधार पर तो होगी नहीं। निश्चित ही तब तो वही साधक इस पथ पर चल सकता है, जिसके हृदय में मैं आठों पहर सुशोभित रहूँ। तब श्रीराम अपने श्रीवचनों में एक वाक्य और जोड़ देते हैं कि हे सुग्रीव! राज सिंघासन पर तुम राज भले ही कितना भी करो, लेकिन ध्यान रहे कि उसके पूर्व हृदय में मेरा राज अवश्य ही निश्चित कर लो, क्योंकि जहाँ मेरा राज होगा, वहीं मेरा काज भी अवश्य होगा- ‘संतत हृदयँ धरेहु मम काजू’। 


श्रीराम जी ने मानो स्पष्ट कर दिया, कि राज पद पर बैठ रहे हो तो यह स्मरण रहे कि यह तुम्हारा अधिकार नहीं था, अपितु इसे हमारा सेवा कार्य समझकर करना। तभी तुम्हारा कल्याण है। अन्यथा यही राज पद तुम्हारे विनाश का कारण भी बन सकता है।

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श्रीराम जी ने शक्ति संतुलन तो कर दिया लेकिन रिश्ते में संतुलन करना भी परम आवश्यक था। कयोंकि राज्य को बल से एक सीमित समय तक ही चलाया जा सकता है। लेकिन अगर सिंघासन के साथ रिश्तों के भाव व मूल्य भी जुड़े हों तो फिर उस सिंघासन को कोई नहीं हिला सकता। और श्रीराम जी यह दृढ़ भाव से चाहते थे कि अंगद के समक्ष ऐसा दृश्य अवश्य आना चाहिए, जिसमें यह दिखे, कि सुग्रीव के मन में बालि के प्रति मृत्यु के पश्चात द्वेष भाव का समूल नाश हो गया। यह सिद्ध करने के लिए श्रीराम जी वीर अंगद का एक और अधिकार छीन लेते हैं। वह अधिकार यह कि श्रीराम जी बालि के अंतिम संस्कार की रस्में भी अंगद की बजाय सुग्रीव से ही करवाते हैं। जबकि यह अधिकार तो सुपुत्र होने के नाते वीर अंगद का था। इस क्रिया से अंगद के मन पर कितना व कैसा प्रभाव पड़ा, यह तो भविष्य के गर्भ में था, लेकिन श्रीराम जी ने अपनी पूरी शक्ति झोंक दी थी।


श्रीराम जी की आगामी कौन-सी लीलाएँ हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम!


-सुखी भारती

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