अखिलेश यादव की नई टीम में दलबदलुओं की चांदी, रामगोपाल के मुकाबले छोटा पद मिलने से शिवपाल भी खुश नहीं

By अजय कुमार | Feb 04, 2023

मिशन-2024 की तैयारी में जुटे समाजवादी पार्टी के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने लंबे इंतजार के बाद समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की घोषणा तो कर दी है, लेकिन कार्यकारिणी में जिन नेताओं को जगह दी गई है उसको लेकर पार्टी के भीतर मतभेद दिखाई दे रहे हैं तो विपक्ष भी सपा की नई कार्यकारिणी पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए सवाल कर रहा है कि समाजवादी पार्टी में नंबर दो की हैसियत प्रोफेसर राम गोपाल यादव को देकर अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव को पांचवें नंबर की हैसियत पर क्यों पहुंचा दिया, जबकि समाजवादी पार्टी की नब्ज रामगोपाल यादव से कहीं अधिक शिवपाल यादव पहचानते हैं। इसी तरह से यह भी पूछा जा रहा है कि क्या समाजवादी पार्टी के पास अपने नेताओं का टोटा पड़ गया है जो उन्हें बाहर से आए नेताओं का सहारा लेना पड़ रहा है।


खैर, समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जाति, उम्र और समाज का पूरा ध्यान रखा गया है। कार्यकारिणी के 64 चेहरों में 10 यादव, नौ मुस्लिम, पांच कुर्मी, चार ब्राह्मण, सात दलित और 16 अति पिछड़े वर्ग के नेताओं को रखा गया है। सपा की पिछली कार्यकारिणी में 55 सदस्य थे। यानी इस बार नौ सदस्यों को बढ़ा दिया गया है। सपा की पिछली कार्यकारिणी में सात यादव, आठ मुस्लिम, तीन ब्राह्मण, तीन कुर्मी, पांच दलित और 11 अन्य पिछड़े वर्ग के लोग शामिल थे। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में परिवार के सदस्यों को भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई है। अभी तक अखिलेश यादव के बाद प्रोफेसर रामगोपाल यादव और उनके बेटे अक्षय यादव कार्यकारिणी में शामिल थे। अब शिवपाल सिंह यादव, तेज प्रताप यादव और धर्मेंद्र यादव को भी कार्यकारिणी में शामिल किया गया है।


सपा की नई कार्यकारिणी में शामिल 10 यादव में से छह परिवार के ही सदस्य हैं। कार्यकारिणी में पूर्व की तरह पांच महिलाओं को भी शामिल किया गया है। जूही सिंह को कार्यकारिणी से हटाकर उनकी जगह महिला सभा की निवर्तमान प्रदेश अध्यक्ष लीलावती कुशवाहा को जगह दी गई है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शिवपाल सिंह यादव के साथियों को कोई तवज्जो नहीं मिली है। सपा से अलग होते समय शिवपाल के साथ जाने वालों को कार्यकारिणी से दूर रखा गया है, यह बात शिवपाल यादव को भी रास नहीं आ रही है लेकिन वह अपनी सियासत बचाने में लगे हुए हैं।

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राष्ट्रीय कार्यकारिणी में रामगोपाल यादव को राष्ट्रीय प्रमुख महासचिव की जिम्मेदारी दी गयी है। इस कार्यकारिणी में चाचा शिवपाल यादव को राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है। वहीं विवादों में चल रहे स्वामी प्रसाद मौर्य को भी राष्ट्रीय महासचिव की जिम्मेदारी दी गई है। इसके साथ ही सुंदीप रंजन सेन को राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष और किरनमय नन्दा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है। जबकि 14 नेताओं को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है। पार्टी ने 17 नेताओं को राष्ट्रीय सचिव की जिम्मेदारी दी गई है और 21 नेताओं को राष्ट्रीय सचिव बनाया है।


दरअसल, विवाद की वजह यह है कि अखिलेश यादव ने जो 64 सदस्यीय नई कार्यकारिणी घोषित की हैं उसमें 14 राष्ट्रीय महासचिव बनाए गए हैं। इन 14 महासचिवों में आधा दर्जन नेता ऐसा हैं जो हाल-फिलहाल में समाजवादी पार्टी में शामिल हुए हैं और सपा की विचारधारा से उनका कोई किसी तरह का लेना-देना नहीं है, लेकिन उनको महासचिव जैसे महत्वपूर्ण पद की जिम्मेदारी सौंप दी गई है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि अखिलेश ने कार्यकारिणी में प्रमुख महासचिव का पद सृजित करके प्रोफेसर रामगोपाल यादव को उस पर बैठा दिया है यानी शिवपाल यादव जो 6 साल बाद अपनी नाराजगी बुलाकर समाजवादी पार्टी में वापस आए हैं उन्हें प्रोफेसर साहब के अधीनस्थ काम करना पड़ेगा। जबकि प्रोफेसर साहब और शिवपाल यादव के बीच में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा किसी से छिपी हुई नहीं है। मुलायम के समय से ही पार्टी में वर्चस्व बढ़ाने के लिए यह दोनों नेता एक दूसरे के खिलाफ साजिश रचते रहते थे, यह सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। लेकिन फर्क इतना है मुलायम के समय में शिवपाल यादव की तूती बोलती थी और प्रोफेसर साहब उनके पीछे रहते थे, वहीं अब अखिलेश काल में प्रोफेसर साहब, शिवपाल यादव से ‘सुपर’ हो गए हैं।


सपा के राष्ट्रीय महासचिव की लिस्ट में जहां एक ओर आजम खान, विशम्भर प्रसाद निषाद जैसे दिग्गज पुराने नेता शामिल हैं। वहीं 6 ऐसे नेताओं को भी पार्टी ने महासचिव बनाया है, जो हाल-फिलहाल में सपा में शामिल हुए थे। इनमें राम अचल राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, सलीम शेरवानी, हरेंद्र मल्लिक और लालजी वर्मा का नाम प्रमुख हैं। इन छह दलबदलू नेताओं का सियासी बयार देखकर पार्टी बदलने का इतिहास रहा है। इसमें सबसे पहला नाम स्वामी प्रसाद मौर्य का है, जो रामचरित मानस पर विवादित टिप्पणी करने के कारण चर्चा में है। उम्मीद की जा रही थी कि रामचरितमानस पर विवादित टिप्पणी करने के चलते स्वामी को समाजवादी पार्टी में हासिये पर डाला दिया जाएगा, लेकिन अखिलेश को रामचरित मानस विवाद में पिछड़ा और दलित वोट बैंक नजर आने लगा।


मायावती और योगी सरकार में मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य यूपी विधान सभा चुनाव 2022 से ऐन पहले सपा में शामिल हुए थे। यूपी में स्वामी प्रसाद की गिनती मौर्य जाति के बड़े नेताओं में होती है। यूपी में यादव के बाद ओबीसी जाति में मौर्य की आबादी सबसे अधिक है। मौर्य की बेटी संघमित्रा मौर्य अभी बदायूं से बीजेपी की सांसद हैं। लोकसभा की 3 सीटें बदायूं, कुशीनगर और प्रतापगढ़ सीट पर स्वामी प्रसाद मौर्य का दबदबा है। प्रतापगढ़ जिले के रहने वाले स्वामी प्रसाद कुशीनगर के पडरौना से विधायक रह चुके हैं। 2022 में वह विधानसभा चुनाव हार गए थे। स्वामी प्रसाद मौर्य बसपा में प्रदेश अध्यक्ष और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी भी संभाल चुके हैं। 

 

एक और बाहरी नेता सलीम शेरवानी की बात की जाए जिन्हें महासचिव बनाया गया है तो रुहेलखंड के दिग्गज नेता सलीम शेरवानी 2020 में कांग्रेस से नाता तोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हुए थे। शेरवानी राजीव गांधी की सरकार में मंत्री रह चुके हैं। रुहेलखंड के पीलीभीत, शाहजहांपुर और बदायूं लोकसभा सीट पर उनका दबदबा रहा है। यह और बात है कि शेरवानी के सपा में रहते हुए भी 2022 के चुनाव में भी इन इलाकों में सपा कोई करिश्मा नहीं कर पाई थी। ऐसे में शेरवानी के भरोसे अखिलेश यादव यहां पर 2024 में खेल करने की कोशिश में जुटे हैं। बात एक और नेता और महासचिव बनाए गए राम अचल राजभर की कि जाए तो मायावती की हर सरकार में मंत्री रहने वाले राम अचल राजभर 2022 में साइकिल पर सवार हो गए थे। राजभर बसपा में प्रदेश अध्यक्ष से लेकर राष्ट्रीय महासचिव तक रह चुके हैं और उन्हें एक वक्त में मायावती का काफी करीबी माना जाता था। ओम प्रकाश राजभर के सपा गठबंधन छोड़ने के बाद राम अचल राजभर का कद बढ़ना तय माना जा रहा था। पूर्वांचल के कई सीटों पर राजभर वोटरों का अच्छा खासा दबदबा है। राम अचल अंबेडकरनगर से आते हैं और अकबरपुर सीट से लगातार छठवीं बार विधायक बने हैं। राजभर का सीधा असर अंबेडकरनगर, घोषी और गाजीपुर सीटों पर है। ये सभी सीटें वर्तमान में बसपा के पास हैं। 

  

कभी बसपा सुप्रीमों के बगलवीर रहने वाले लालजी वर्मा भी राम अचल राजभर के साथ सपा में शामिल हुए थे। लालजी वर्मा एक वक्त में मायावती के किचन कैबिनेट का हिस्सा थे। राजभर की तरह ही मायावती की हर सरकार में मंत्री रह चुके लालजी वर्मा वर्तमान में कटेहरी से विधायक हैं। मौर्य कुर्मा बिरादरी से आते हैं, जिसकी आबादी मिर्जापुर, संत कबीर नगर, महाराजगंज जैसे जिलों में सबसे अधिक है। लालजी वर्मा की पकड़ बलरामपुर और अंबेडकरनगर सीटों पर है। ऐसे में उन्हें महासचिव बनाकर अखिलेश ने बड़ा दांव खेला है।


बात बाहर से आए इंद्रजीत सरोज की कि जाए कौशांबी मॉडल के सूत्रधार इंद्रजीत सरोज को फिर से सपा ने महासचिव बनाया है। सरोज कौशांबी के मझनगर से विधायक और विधानसभा में सपा के उप नेता हैं। सरोज की गिनती भी एक वक्त में मायावती के करीबी नेताओं में होती थी। 2019 में वे बसपा के टिकट से चुनाव भी लड़े, लेकिन हार गए थे। बसपा और सपा का गठबंधन टूटा तो इंद्रजीत साइकिल पर सवार हो गए। इंद्रजीत सरोज पासी जाति से आते हैं, जिनका दबदबा हरदोई, कौशांबी और मिश्रिख सीटों पर है। तीनों सीट पर वर्तमान में बीजेपी का कब्जा है। वहीं सपा के राष्ट्रीय महासचिव बनाए गए जाट नेता हरेंद्र मलिक 2022 चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस छोड़ सपा में शामिल हो गए थे। मलिक कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के सलाहकार थे। चार बार विधायक और एक बार सासंद रह चुके मलिक पश्चिम यूपी में संगठन को मजबूत करेंगे। मुजफ्फरनगर और शामली की सीट पर मलिक की मजबूत पकड़ मानी जाती है। साथ जाटलैंड में भी राजनीति करने का उनका पुराना अनुभव है। इनके सहारे मिशन 2024 में जुटे अखिलेश की नजर भी पश्चिमी यूपी की सीटों पर टिकी है।


-अजय कुमार

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