लक्ष्मण की नगरी में शत्रुघ्न की पत्नी खत्म करेंगी महागठबंधन का वनवास!

By अभिनय आकाश | Apr 17, 2019

गोमती नदी के किनारे बसे लखनऊ को नवाबों का शहर कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण के नाम पर लखनऊ को बसाया गया था। उसी लखन की नगरी में शत्रुघ्न की पत्नी पूनम सिन्हा ने साप-बसपा के छह दशक से भी ज्यादा समय से चले आ रहे वनवास को खत्म करने का बीड़ा उठाया। यहां कि दशहरी आम, गलावटी कवाब मशहूर है औऱ कहां जाता है कि यहां चिकन खाया भी जाता है और पहना भी। उसी लखनऊ में पूनम सिन्हा के सपा का पट्टा पहनकर रामभक्त भाजपा के खिलाफ मैदान में कूदने से बौखलाई भाजपा ने बात-बात पर खामोश करने वाले शॉटगन को अहसान फरामोश बता दिया। 

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कठिन हो सकती है राजनाथ की डगर

लखनऊ की सियासी नब्ज़ को समझने वाले इससे चिंतित तो कतई नहीं हैं, लेकिन इतना जरूर मान रहे हैं कि नवाबों के शहर की ये जंग पहले के माफिक आसान नहीं रह गई। वह भी तब जबकि दबी जुबान चर्चा है कि कांग्रेस पूनम को समर्थन दे सकती है। लखनऊ से वैसे तो पूनम सिन्हा के चुनाव लड़ने की चर्चा तब से ही थी जब शत्रुघ्न सिन्हा ने अखिलेश यादव से मुलाकात की थी। जानकार बताते हैं कि शत्रुघ्न सिन्हा खुद ये फार्मूला लेकर उनके पास गए थे और सपा अध्यक्ष को वोटों का गणित समझाया। लखनऊ सीट पर कायस्थ वोटों की संख्या साढ़े तीन लाख के आसपास बताई जाती है वहीं सवा लाख के आसपास सिंधी वोट हैं। पूनम सिन्हा सिंधी समुदाय से आती हैं। उसके अलावा कांग्रेस-सपा-बसपा की साझा उम्मीदवार होती हैं तो मुस्लिम वोट भी उन्हें प्राप्त होगा। वहीं कन्नौज से सांसद डिंपल यादव के जरिए सपा में शामिल करवाकर सपा ने महिला का संदेश भी देने की कोशिश की है। 

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यहीं से शुरु हुआ था भाजपा का अटल सफर

1991 का वो दौर था जब दो बार लखनऊ से चुनाव हार चुके अटल बिहारी वाजपेयी ने जनता को संबोधित करते हुए कहा था “आप लोगों ने क्या सोचा था कि मुझसे पीछा छूट जाएगा। लेकिन यह होने वाला नहीं है। लखनऊ मेरा घर है, इतनी आसानी से रिश्ता नहीं टूटने वाला, मेरा नाम भी अटल है। देखता हूं कब तक मुझे सांसद नहीं बनाओगे। जिसके बाद अटल बिहारी ने इस सीट से जीत का जो सिलसिला शुरु किया वो 2004 तक लगातार जारी रहा। 

 

विपक्षियों ने सितारों पर ही खेला दांव

साल था 1996 लखनऊ की जनता इस बात से अनिभिज्ञ थी कि वो देश के प्रधानमंत्री का चुनाव करने जा रही है। फिल्म अभिनेता और वर्तमान के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर उस वक्त समाजवादी पार्टी की टिकट पर अटल बिहारी के सामने उतरे थे। लेकिन सियासत के बेदाग खिलाड़ी रहे अटल के हाथों उन्हें शिकस्त ही झेलनी पड़ी। 1998 में फिल्मकार मुजफ्फरअली ने लखनऊ की विरासत को नहीं संभाल पाने के इल्जाम अटल पर लगाकर चुनावी मैदान में उतरे लेकिन जनता तो अटल बिहारी पर कुर्बान थी। 1999 में कांग्रेस ने जम्मू-कश्मीर के राजा कर्ण सिंह को मैदान में उतारा लेकिन लखनऊ तो तब तक इस गुमान में डूब चुका था कि हम प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं। 2004 में निर्दलीय लड़ने आए राम जेठमलानी के कंधे पर कांग्रेस ने अपनी भी उम्मीद टिका दी लेकिन जनता ने बुरी तरह से झटक दिया। 2009 इकलौता चुनाव था जब इस सीट को जीतने के लिए भाजपा प्रत्याशी लाल जी टंडन को जद्दोजहद करनी पड़ी थी। कांग्रेस से अपेक्षाकृत स्थानीय रीता बहुगुणा जोशी से महज 41 हजार वोट से लाल जी टंडन जीत पाए थे। सपा ने उस चुनाव में स्टार नफीसा अली को लेकर आई थी जो अपनी जमानत को सलामत भी नहीं रख पाई थी। 2014 में भाजपा ने यूपी के पूर्व सीएम राजनाथ सिंह पर भरोसा जताया और उन्होंने इसे जीत में तब्दील किया। 

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क्या कहता है वोटों का गणित

साल 2014 के चुनाव में राजनाथ सिंह को 54% के लगभग वोट प्राप्त हुए थे जबकि कांग्रेस की तरफ से उतरी रीता बहुगुणा जोशी को 27 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। सपा और बसपा प्रत्याशी को महज 6% के लगभग वोट मिले थे। अगर सपा, बसपा, कांग्रेस तीनों के वोटों को मिला दिया जाए तो भी वो 39 प्रतिशत के लगभग होता है जो कि राजनाथ के अकेले के वोट प्रतिशत से 15 प्रतिशत कम ही है।


कभी नहीं सपा-बसपा को मिली जीत

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी इस सीट पर आज तक अपना खाता नहीं खोल पाए। आजादी के बाद लखनऊ पर कुल 16 बार लोकसभा चुनाव हुए इनमें भाजपा ने 7 और कांग्रेस ने 6 बार जीत हासिल की है।

 

कोर वोटरों की जातीय गणित और स्टार चेहरे की बदौलत विपक्ष को लखनऊ 'अभेद्द' नहीं दिखता लेकिन, जातीय अंकगणित अक्सर यहां कभी हल नहीं हो पाती और वैसे भी राजनीति में हमेशा 2+2=4 नहीं होते बल्कि कभी-कभी 2+2=0 भी हो जाता है।

 

- अभिनय आकाश

 

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