निर्भया कांड के सात साल...आखिर कितना बदला है हमारा समाज ?

By संतोष पाठक | Dec 17, 2019

निर्भया कांड के 7 साल हो गए हैं। 2012 में जब यह वीभत्स कांड हुआ था, उस समय राजधानी दिल्ली समेत पूरे देश में जिस तरह से आंदोलन हुआ था। वह सारा नजारा एक बार फिर से हम सबके आंखों के सामने तैर रहा है। हमसे पूछ रहा है कि इन सात सालों में हम कितना बदल पाए हैं– खुद को, कानून को, समाज को। 2012 में जिस गुस्से और वेदना के साथ पूरा देश सड़कों पर उतर आया था। सर्दी के मौसम में भी आंदोलन कर रहा था। पुलिस की लाठियां खा रहा था। सड़क से लेकर संसद तक जिस अंदाज में हंगामा मचा हआ था। उस समय ऐसा लग रहा था कि वाकई भारत बदलने को तैयार है। भारत का कानून तो बदल ही गया था लेकिन साथ ही यह भी लग रहा था कि भारतीय समाज खासकर भारतीय पुरूष अपनी मर्दवादिता मानसिकता को छोड़ने को भी तैयार है। लेकिन ये सात साल एक समाज के रूप में हमारे भरोसे को तोड़ते हैं। ये सात साल लगातार हमें शर्मिंदा करते रहे, हमारा सिर झुकाते रहे। कभी उन्नाव, कभी हरदोई, कभी मुजफ्फरपुर तो कभी हैदराबाद रेप या गैंग रेप कांड हमें बार-बार यह बताता रहा कि हम कितने नीचे गिर गए हैं एक समाज के रूप में एक देश के रूप में।

 

इन सात सालों में लगता है जैसे कुछ भी नहीं बदला। 2012 में निर्भया कांड के बाद भी कानून को सख्त बनाने की मांग उठी और आज फिर से हैदराबाद कांड के बाद भी कानून को सख्त और ज्यादा सख्त बनाने की मांग की जा रही है। हम सब कड़े कानून और कड़ी सजा में ही बलात्कार की समस्या का समाधान तलाशने की कोशिश करते रहते हैं बगैर ये समझे कि सिर्फ सख्त सजा ही अपराध को रोक पाती तो दुनिया के कई देशों में कोई अपराध होता ही नहीं। वास्तव में सजा को कठोर और ज्यादा कठोर बनाने की मांग उठाकर हम उन तमाम कारणों को नजरअंदाज कर देते हैं जिसकी वजह से बलात्कार जैसी घटनाएं होती हैं।

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हम मानें या न मानें लेकिन हमारा पूरा समाज मर्दवादी मानसिकता से भरा हुआ है। बात समाज की करते हैं तो इसमें स्त्री और पुरूष दोनों ही शामिल होते हैं। अर्थात् हमारे समाज की महिलाएं हों या पुरूष, कोई भी मर्दवादी मानसिकता से अछूता नहीं है।

 

बच्चे के जन्म लेने से मृत्यु तक पूरा समाज इसी तथ्य को स्थापित करने में लगा रहता है कि एक लड़की को लज्जाशील, विनम्र होना चाहिए। उसे अपनी लक्ष्मण रेखा का ज्ञान होना चाहिए यानि उसे यह पता होना चाहिए कि क्या पहनना है, कहां जाना है, कब जाना है, किसके साथ जाना है, क्या बोलना है, कितनी धीरे बोलना है आदि-आदि। वहीं इसके ठीक उलट लड़कों को यह बताया जाता है कि उन पर कोई बंदिशें नहीं हैं और यहीं से मर्दवादी मानसिकता जोर पकड़ने लगती है, स्थायी होती चली जाती है। इसकी जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं कि सिर्फ कानून के रास्ते इसका समाधान हासिल नहीं किया जा सकता है।

 

इस लाइलाज बीमारी की शुरूआत घर से होती है और बस, मेट्रो, ट्रेन से सफर करती हुई यह बीमारी कार्यालयों तक पहुंच जाती है। सड़कों पर डेरा बना लेती है। हर तरफ समाज होता है, भीड़ होती है लेकिन फिर भी यौन शोषण का खतरा बना रहता है, बलात्कार का डर हावी रहता है। जगह कोई भी हो– घर-बाहर, सड़क, खेत, बस-ट्रेन, मेट्रो या फील्ड कोई भी हो फिल्म इंडस्ट्री, राजनीति, व्यवसाय, अध्यापन, स्कूल-कॉलेज, यहां तक कि मीडिया इंडस्ट्री भी– हर जगह कुछ नजरें होती हैं जो लगातार महिलाओं को घूरती रहती हैं। लगातार और हर जगह महिलाओं का बलात्कार होता ही रहता है– कभी उनके शरीर के साथ तो कभी उनकी आत्मा के साथ तो कभी उनके सम्मान के साथ। रही-सही कसर 24 घंटे इंटरनेट, पोर्न साइट्स, अश्लील साहित्य का हर समय सर्वसुलभ होना पूरा कर देता है।

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ये सब इसलिए लगातार होता रहता है कि हमारा समाज बच्चे को जल्द ही लड़का और लड़के से मर्द बना देता है। उसके अंदर यह मर्दवादिता मानसिकता पैदा कर देता है कि 2 साल की बच्ची हो या 18 साल की लड़की या 40 साल की औरत या फिर 90 साल की बुढ़िया, ये सब भोग्या है और मर्दों के लिए ही बनी है। औरतों को अपमानित करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। औरतें सिर्फ शोषित होने के लिए ही बनी हैं। इस मानसिकता को खत्म किए बिना बलात्कार की समस्या पर काबू नहीं पाया जा सकता चाहे आप जितना मर्जी कठोर कानून बना लें। हमें यह सोचना होगा कि प्राचीन भारत में भी भारतीय समाज कितना खुला था। एक ही आश्रम में (खुले आश्रम में) पुरुष और स्त्रियां दोनों ही शिक्षा ग्रहण किया करती थीं। वो भी एक समाज था जब महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिला हुआ था और वर्तमान का भी एक समाज है जब हमने महिलाओं को देवी का दर्जा दे रखा है।

  

जाहिर है कि एक तरफ जहां हमें मर्दवादी मानसिकता को खत्म करने के लिए समाज को बदलना होगा, शिक्षा पद्धति में बदलाव लाना होगा, इंटरनेट पर लगाम लगानी होगी, लड़का-लड़की के एक समान पालन-पोषण को बढ़ावा देना होगा, महिलाओं को मजबूत बनाना होगा (सिर्फ नारेबाजी करके ऐसा नहीं हो सकता) वहीं साथ ही दूसरी तरफ वर्तमान कानूनी प्रावधान को भी सख्त बनाने से ज्यादा जो बने हुए हैं उसे तेजी से और समयबद्ध तरीके से लागू करने पर ज्यादा ध्यान देना होगा। अन्यथा हमें हर दिन अपने सिर को झुकाना पड़ेगा और हर साल खुद से शर्मिंदा होना पड़ेगा।

 

- संतोष पाठक

 

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