क्योंकि कामदेव ने अपनी मृत्यु निश्चित जानते हुए भी यह ठान लिया था, कि मैं महादेव की समाधि भंग करके ही रहूंगा, तो अब उसने सहायता के लिए सुंदर ऋतुराज बसंत को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं। वन उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए। प्रत्येक दिशा में मानों प्रेम उमड़ रहा हो, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा। सुंदर ऋतुराज बसंत क्या खिली, समस्त ओर मनोहर दृष्यों ने अपना जाल बुन दिया। मरे हुए मनों में भी काम जगने लगा। वन की सुंदरता कही नहीं जा सकती थी। कामरुपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल मन्द सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गए, जिन पर सुंदर भौंरों के समूह मनमोहक गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं। यह सब वातावरण ऐसा था, कि एक साधारण जीव बिना कामवश हुए रह ही नहीं सकता था। लेकिन भगवान शंकर पर अभी भी कामदेव का प्रभाव शून्य प्रतीत हो रहा था। तब कामदेव ने अपनी संपूर्ण सेना सहित करोड़ों प्रकार की कलायों का प्रयोग किया। लेकिन भोलनाथ की पावन अचल समाधि न टूटी। तब कामदेव को क्रोध आ गया-
‘सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत।।’
अब कामदेव ने अपना अंतिम व सबसे उत्तम अस्त्र का प्रयोग करना चाहा। उसने आम की एक सुंदर डाली को देखा, व मन में क्रोध भरकर उसपर चढ़ गया। उसने पुष्प धनुष पर अपने पाँचों बाण चढ़ाये, और अत्यंत क्रोध से अपने लक्ष्य की और कानों तक तान लिया। तब क्या हुआ-
‘छाडे बिषम बिसिख उर लोगे।
छूटि समाधि संभु तब जागे।।
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी।
नयन उघारि सकल दिसि देखी।।’
कामदेव के वे पाँव बाण जैसे ही महादेव के हृदय में जाकर लगे, तो उनकी समाधि टूट गई। वे जाग गए। इस घटना से उनके मन में बहुत क्षोभ हुआ। वे अपने नेत्र खोल कर सब ओर देखने लगे, कि आखिर यह कुकृत्य कौन कर रहा है?
जब उन्होंने देखा कि आम के पत्तों में एक डाल पर कामदेव छिपा हुआ है, तो उन्होंने भयंकर क्रोध किया। जिससें तीनों लोाक काँप उठे। अब भगवान शंकर ने अपना तीसरा नेत्र खोला, और जैसे ही अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को देखा, तो वह उसी क्षण भस्म हो गया। इस घटना में सब ओर हाहाकार मच गया। देवता डर गए, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए।
कामदेव के दहन का समाचार जैसे ही उसकी पत्नि रति को मिला, तो वह अत्यंत पीड़ा से भर गई। वह रोती चिल्लाती व भाँति भाँति के विलाप करती हुई भगवान शंकर के पास पहुँची। ऐसा नहीं कि रति भगवान शंकर के समक्ष जाकर उनसे लड़ने लगी। अथवा उन्हें उलाहने देने लगी, कि आपने मेरे पति को कैसे भस्म कर दिया? अपितु रति तो दोनों हाथों को जोड़, विनती भाव से भगवान शंकर की स्तुतियाँ करने लगी। कारण कि रति को ज्ञान था, कि मेरे पति ने बहुत ही अक्षम्य अपराध किया है। जिसके परिणाम स्वरुप उसका मरण होना ही था। लेकिन तब भी भगवान शंकर तो करुणा के सागर हैं। शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं। वे अवश्य ही मेरी पीड़ा को समझते हुए, मेरा दुख हरेंगे।
रति का दुख व उसका विनय भाव देखकर, भगवान शंकर को उसपे दया आ गई। तब भगवान शंकर ने रति से कहा-
‘अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन।।’
अर्थात हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन। जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र प्रद्युम्न के रुप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा।
आगे गोस्वामी जी कौन सी कथा का वर्णन कराते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)
- सुखी भारती