Gyan Ganga: नारद मुनि को देखकर राजकुमारी वरमाला लेकर पीछे क्यों हट गयी थीं?

By सुखी भारती | Aug 23, 2022

देवऋर्षि नारद जी, भगवान की कोई भी लीला समझने में नाकाम सिद्ध हो रहे हैं। श्रीहरि ने कितने साधारण शब्दों में कहा था, कि हे मुनि, मैं तुम्हें वैसे ही कल्याण के पथ पर ले जाऊँगा, जैसे एक वैद्य किसी रोगी को उपचार के दौरान ले जाता है। मान लो कि खाँसी का रोगी, अपने वैद्य से कहे, कि मुझे आप तला-भुना व खट्टा खाने की भी अनुमति दे दें। तो क्या वैद्य रोगी के उस आग्रह को मान लेता है? नहीं न। तो फिर देवऋर्षि नारद जी ने, यह कैसे मान लिया था, कि प्रभु भी उसके लिए विषयों को पाने के किसी भी आग्रह को मान सकते हैं। लेकिन उन्हें माया का नशा ही इस स्तर पर था, कि कुछ भी कहते नहीं बनता था। माया के आधीन हुए मुनि, वहाँ जा पहुँचे, जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी-


‘माया बिबस भए मुनि मूढ़ा।

समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा।

गवने तुरत तहाँ रिषिराई।

जहाँ स्वयंवर भूमि बनाई।।’

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मुनि को तो लग रहा था, कि अब तो निश्चित ही राजकुमारी उनके ही गले में वरमाला डालेगी। मुनि ने देखा, कि सभी राजा गण अपने-अपने समाज में बैठे थे। सभी की अपनी-अपनी पंक्तियां थीं। मुनि भी अपने मतानुसार एक सुंदर आसन पर जाकर बैठ गए। बाकी सबको तो मात्र यह उम्मीद ही थी, कि राजकुमारी उन्हें पति रूप में वर सकती है। लेकिन मुनि को तो केवल उम्मीद नहीं, अपितु अटल विश्वास था, कि राजकुमारी के वास्तविक स्वामी तो वही हैं, बस इसे सत्य सिद्ध होने में, अब कुछ ही पलों का इन्तजार बाकी है।


इसी दौरान एक और घटनाक्रम यह घटा, कि मुनि के साथ दो रुद्रगण भी साथ हो लिए। जो कि ब्राह्मण का रुप धारण किए, इस सभा में घूम रहे थे। जिस कारण उन्हें कोई भी पहचान नहीं पा रहा था। मुनि जिस आसन पर बैठे थे, वे भी मुनि के आस-पास जाकर बैठ गए। मुनि तो क्योंकि शतप्रति शतः आश्वस्त ही थे, कि बाला उन्हें ही वरेगी। तो वे अहंकार वश आसन पर बिल्कुल डण्डे की भाँति तन कर बैठे थे। दाएं-बाएं बैठे शिवगण, मुनि के सौंदर्य को लेकर, भाँति-भाँति के व्यंग्य कर रहे थे। लेकिन मायावश हो मुनि को, कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। वे तो यही समझ रहे थे, कि रुद्र गण मेरी प्रशंसा में ही सब श्लोक कह रहे हैं। वे बार-बार कह रहे हैं, कि वाह! भगवान ने इनको कितनी भारी सुंदरता दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जायेगी और हरि जानकर इन्हीं को ही विशेष तौर पर वरेगी। वास्तव में मुनि को पता ही नहीं था, कि श्रीहरि ने उन्हें हरि कहे जाने वाले ‘विष्णु’ रुप से सुशोभित नहीं किया था, अपितु हरि कहे जाने वाले ‘वानर’ रूप से अलंकृत किया था। संस्कृत में हरि शब्द का अर्थ भगवान विष्णु से भी है, इसका एक अर्थ वानर भी होता है। मुनि को यह शून्य भर भी ज्ञान नहीं था, कि वे चेहरे से प्रभु का रूप न होकर, एक वानर का रूप लिए घूम रहे हैं। केवल मुनि को ही क्या, पूरी सभा में किसी को भी यह ज्ञान नहीं था। सभी मुनि को केवल मुनि रूप में ही देख पा रहे थे। हाँ केवल यह रुद्रगण और राजकुमारी ही ऐसे थे, जिन्हें कि मुनि का वानर रूप दिखाई पड़ रहा था।

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अगर गौर से देखा जाये, तो मुनि के प्रति, यहाँ श्रीहरि की कितनी दया व प्रेम झलक रहा है। कारण कि श्रीहरि यह किंचित भी नहीं चाहते, कि मुनि का संसार में अपमान हो। नहीं तो मुनि का वानर रूप, वे सभी के लिए प्रकट कर देते। वे तो अपने भक्त का कल्याण चाहते थे। खैर! मुनि तो दूल्हा बनने हेतु पूर्णतः तत्पर थे। उधर राजकुमारी के भी आने की घोषणा हो चुकी थी। मुनि ने देखा, कि राजकुमारी हाथ में वरमाला लिए, प्रत्येक पंक्ति में घूम रही हैं। तो मन ही मन मुनि ने सोचा, कि बेचारे राजागणों को क्या पता, कि राजकुमारी किसी के भी लाख चाहने से, किसी को भी माला नहीं पहनायेगी। कारण कि वरमाला पहनने के लिए तो प्रभु ने हमें निर्धारित किया है न। मुनि इतने आश्वस्त हैं, कि वे तो अब राजकुमारी की ओर देख भी नहीं रहे, कि वे किस पंक्ति में जा रही हैं। उल्टा मन में स्वयं को कहे जा रहे हैं, कि घूम लो राजकुमारी जी, जिस भी पंक्ति में घूमना है क्योंकि इसके पश्चात तो आपको हमारे ही इर्द-गिर्द घूमना है। मुनि ने देखा कि लो, राजकुमारी को तो मैंने देखा ही नहीं, कि वह मेरी ही पंक्ति में प्रवेश कर रही हैं। चलो आखिर वह शुभ घड़ी भी आन पहुँची, जब राजकुमारी मुझे पति रूप में वरेगी। मुनि थोड़े और तन कर बैठ गए। रुद्रगण भी एक से एक व्यंग्यात्मक भाषण गढ़ रहे हैं। लेकिन मुनि को तो आज सब प्रिय लग रहा है। कारण कि उनके अनुसार तो वे ही इस सभा के भगवान थे। लेनिक सज्जनों, मुनि के साथ तो वह हुआ। जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। जी हाँ, राजकुमारी ने जैसे ही सखियों संग, मुनि वाली पंक्ति में प्रवेश किया। तो सबसे पहले उनकी दृष्टि मुनि पर ही पड़ी। राजकुमारी को पंक्ति में आसन पर मुनि के स्थान पर, जब एक वानर को बैठे देखा। तो वे क्रोध से भर गईं। हालाँकि मुनि का वानर रूप, राजकुमारी की सखियों को भी दिखाई नहीं दिया, और इसे केवल राजकुमारी ने ही देखा-


‘काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा।

सो सरुप नृपकन्याँ देखा।।

मर्कट बदन भयंकर देही।

देखत हृदयँ क्रोध भा तेही।।’


मुनि जी ताकते रह गए। कारण कि राजकुमारी तो उल्टे पैर उस पंक्ति से वापिस लौट गई। और यह सूचना रुद्रगणों ने विशेष भाव से अपने मुख से कही। मुनि ने भी देखा, कि अरे! यह कैसे हो सकता है? राजकुमारी का मुझे देख कर यूँ वापिस पलटना तो बनता ही नहीं। तो फिर यह कैसे घटा? मुनि मन ही मन भयंकर अशांत हो गये। राजकुमारी किसे अपना पति रूप मान, वरमाला पहनाती हैं, अथवा नहीं पहनातीं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम। 


-सुखी भारती

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