उस दिन सुबह सुबह बटुक जी घर पर आ गए, बोले- "यार तुम पानी वाले विभाग में रहे हो, व्यंग्यकार भी हो, एक व्यंग्य पानी पर लिख दो"
पानी पर व्यंग्य। न बाबा न। जल है तो जीवन है की टैगलाइन गले में लटकाए हम छत्तीस साल तक लोगों की प्यास बुझाने का उपक्रम करते रहे, अब उस जीवनदायी पानी पर व्यंग्य। मैंने उंहें विनम्रता पूर्वक मना किया - "ये मुझसे नहीं हो सकेगा। पानी पर गीत लिखे जा सकते हैं, निबंध भी लिखा जा सकता है पर व्यंग्य-- व्यंग्य लिखा ही नहीं जा सकता"
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"पर मैंने तो सुना है कि व्यंग्यकार हर विषय पर व्यंग्य लिख सकता है-- भाई लोगों ने तो मुर्दों तक पर व्यंग्य लिखे हैं"
"भाई, जब लोगों की आँख का पानी मर चुका हो तो वो किसी भी विषय पर कलम घिस सकता है" - मैंने उन्हें टालने के अंदाज में कहा।
"वाह, क्या बात कही आपने"- बटुक जी सोफे पर फैलते हुए बोले- "पूरे देश में पानी के सेम्पल फेल होने का समाचार प्रमुखता से छपा है, क्या चक्कर है ये"
"इस रिपोर्ट ने बड़ी-बड़ी डींगे हाँकने वाले पानीदार चेहरों से पानी उतार दिया है। विरोधी चुल्लू में पानी लेकर उन्हें डुबाने के लिए ढूँढते फिर रहे हैं, बेशरम लोगों को तो समुद्र भी डूबने की जगह नहीं देता फिर इस चुल्लू भर पानी से क्या होगा- ये मुहावरा तो शरीफ लोगों के लिए गढ़ा गया था राजनीतिज्ञों के लिए नहीं"- मैं थोड़ा उत्तेजित होने लगा था। बटुक जी ने समझा कि मैं रंग में आ रहा हूँ, मुझे झाड़ पर चढ़ाने की गरज से बोले- "पर कुछ लोग बहुत खुश हैं कि पानी के बहाने ही सही उन्हें अपनी राजनीति चमकाने का घर बैठे मौका मिल गया।"
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"ये वही लोग हैं जो पहले काम में अड़ंगा डालते थे और पानी पी-पी कर गरियाते थे, अब मौका हाथ लगा है तो पानी में आग लगाना चाहते हैं।"
"आप चीजों पर कितनी पैनी दृष्टि रखते हैं, इसीलिए तो मैं आपका मुरीद हूँ"- बटुक जी ने समझा कि मैं चने के झाड़ पर उस ऊँचाई तक पहुँच चुका हूँ जहाँ वह पहुँचाना चाहते थे।
"भाई, यह खबर पढ़ने के बाद से ही मैं स्वयँ को पानी-पानी महसूस कर रहा हूँ। पिछले चुनाव में इनने उनके मंसूबों पर पानी क्या फेर दिया तब से ही वे इनको पानी का मोल समझाने के प्रयास में थे। जब भी उनकी कुर्सी की ओर देखते मुँह में पानी आने लगता, पर मजबूर थे- आह भरते और दो घूँट पानी पीकर रह जाते। लोग गंदा पानी पीने को विवश हैं और ये राजनीति करने में। दिल्ली के बारे में बात करो तो वे बनारस के सेम्पल पर बात करने लगते हैं। बनारस की बात करो तो भोपाल पर आ जाते हैं। समस्या कैसे दूर हो, कोई इस पर चर्चा ही नहीं कर रहा। आत्म प्रचार पर पानी की तरह पैसा बहा देंगे लेकिन पानी की शुद्धिकरण के लिए पानी की चार बूँदों जितना भी बजट नहीं देंगे।"
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मैं गंभीर हो चला था। मुझे पानी की समस्या विचलित कर रही थी कि बटुक जी उठ खड़े हुए, बोले- "मेरा काम हो गया, अब मैं चलता हूँ।"
उनके जाने के बाद मैं सोच रहा हूँ कि उनका कौन सा काम हो गया। वह तो पानी पर व्यंग्य लिखवाने आए थे और ऐसे ही चले गए, शायद निराश होकर।
अरुण अर्णव खरे