चिपकाऊ लेखक (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | May 15, 2023

एक सीधे-सादे लेखक को एक नारियल पकड़ाते हुए फ़ोटो खिंचवाना और फिर उसे सोशल मीडिया पर डाल देना बताता है कि बंदे के अंदर अब सहिष्णुता की क्षमता उफान पर है, उसे यह समझ नहीं आता कि वह उसका क्या करे। नारियल सिर पर फोड़े या घर वालों को फोड़ने को दे समझ नहीं आता। घर वाले इस उम्मीद से झोला देखने की कोशिश करते हैं कि उसमें से उनके काम की कोई चीज़ निकल आए। पता चला कि साहब बदले में और दो-चार पुस्तकें उठा लाएँ। एक बार के लिए आदमी कोरोना वायरस से ठीक हो सकता है किंतु पुस्तकों की लेन-देन से कभी नहीं। अब इस बीमारी को पालने के लिए एक अदद पुरस्कार तो बनता ही है। यह पुरस्कार सिर्फ़ इसलिए नहीं कि उसने यह बीमारी पाल ली है, और इसलिए भी नहीं कि बड़े साहस के साथ उस बीमारी को झोला में साथ ले आया है, बल्कि पुस्तक लेन-देन बीमारी में खुद को झोंक दिया बल्कि इसलिए भी कि उसने एक अदद पुस्तक से पता नहीं कितने लोगों का दिमाग खराब किया है। यह करिश्माई हुनर सिर्फ़ चिपकाऊ लेखकों के पास है। इसीलिए साल के 365 दिन कहीं न कहीं पुरस्कार बाँटने का पर्व चलता रहता है। इसीलिए कुकुरमुत्तों की तरह लेखक पनप रहे हैं।


पुरस्कार एक तरह से सम्मान है। चिपकाऊ लेखकों के जीवन में सम्मान का विशिष्ट महत्त्व होता है। इस नश्वर संसार में एक सम्मान ही तो है जिसके कारण मरने के बाद भी अपने नाम के जीवित रहने के सुख से आनन्दित रहा जा सकता है। एक सम्मान की ख़ातिर ही हम खेतों की मेड़ को लेकर या तुच्छ नाली के बहाव को लेकर भिड़ जाते हैं। इसीलिए चिपकाऊ लेखकों का सम्पूर्ण जीवन पुरस्कार रूपी सम्मान के इर्द-गिर्द ही घूमता है। पुरस्कारों के औचित्य के मूल में यही सम्मान है। वैसे तो हर क्षेत्र में पुरस्कारों की ख़ास माँग रहती है, पर साहित्य सृजन और जनसेवा की फ़ील्ड में इसका ज़बरदस्त स्कोप है। ओढ़ाने वाली शाल, माला और राशि इसके आवश्यक तत्त्व हैं। इनके बिना पुरस्कार की क्रियाविधि सम्पूर्ण नहीं मानी जाती है, इसलिए कई बार जब पुरस्कार प्रदाता के पास देने के नाम पर सिर्फ़ अपने कर-कमल ही होते हैं, पुरस्कार प्राप्तकर्ता को यह व्यवस्था स्वयं के प्रयासों से जुटानी पड़ती है।

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पुरस्कार सिर्फ़ आनंद और पहचान ही नहीं देता बल्कि साहित्य-सृजन के लिए उर्वर परिस्थितियाँ भी तैयार करता है, एक उत्साहपरक माहौल देता है। प्रायः देखा गया है कि पुरस्कार की चाहत ने ऐसों-ऐसों को लेखक बना दिया है जो ‘मसि कागद छुयो नहि, क़लम गह्यो नहि हाथ’ की धारणा में खुलकर यक़ीन रखते थे। कुछ लोग तो पुरस्कार के चक्कर में कई किताबें लिख मारते हैं। वह रचनात्मक होते-होते दर-रचनात्मक हो जाते हैं। उनके विपुल साहित्य सृजन के पठन का भार पाठक वर्ग के कोमल कंधों पर आ गिरता है जो पहले से ही पठन-पाठन की निस्सारता को समझ अपने कंधे को भारमुक्त रखने की प्रतिज्ञा ले चुका है। यद्यपि यह साहित्यिक संस्कारों के अंतिम संस्कार के और मूल्यहीनता के लक्षण हैं, तथापि हमारी सामाजिक चेतना अभी इतनी कमज़ोर नहीं हुई है कि वह अपने किसी भाई के पुरस्कार हासिल करने पर ख़ुशी न जता सके। और यही पुरस्कार की महत्ता भी है कि लोग यह जाने बिना कि अमुक एवार्ड किस लिए दिया गया है, सिर्फ़ घोषणा सुनते ही पुरस्कृत व्यक्ति के प्रति श्रद्धावनत हो जाते हैं। पुरस्कार का एक फ़ायदा यह भी है कि आप कभी भी वापसी की घोषणा कर घर बैठे हाइलाइट हो सकते हैं।  


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार

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