समय के साथ बैठने वाली चीज़ों के नाम बदलते हैं, लेकिन होड़ जस की तस बनी रहती है। फिर चाहे राजा-महाराजा के जमाने का सिंहासन हो या फिर आजकल की कुर्सी। हर कोई बैठने के लिए कुछ न कुछ चाहता ही है। बैठने का सिलसिला इतना तूल पकड़ चुका है कि लोग अब एक-दूसरे को गिराने पर आमदा हो चुके हैं। हमारी सोसायटी में एक साहब रहते हैं। कई सालों तक सोसायटी के अध्यक्ष बने रहे। इनकी कुटिलनीति, कुर्सीलोलुपता के चलते सोसायटी के दो फाड़ हो गए। एक फाड़ हमेशा अध्यक्ष पर चढ़ा रहता। उन्हें भला-बुरा कहता। अध्यक्ष थे कि हाथी चले बाजार कुत्ते भौंके हजार के मानिंद भली-बुरी बातों को एक कान से सुनते दूसरे कान से निकाल देते। इस फाड़ से उस फाड़ और उस फाड़ से इस फाड़ लुढ़कने के चलते सबने उनका नाम लोटाबाबू रख दिया। लोटाबाबू भी ऐसे कि कब पलटी मार जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।
लोटाबाबू की शिष्यता करने वाले एक-दो चेले चपाटों ने एक दिन मजाक-मजाक में पूछ लिया कि आप कुर्सी को लेकर इतने संवेदनशील क्यों रहते हैं? हर घड़ी हर समय यहाँ तक कि नींद में भी कुर्सी-कुर्सी कहते हुए बड़बड़ाते रहते हैं। आखिर इस कुर्सी में ऐसी क्या खास बात है जो आपको इसका नाम ले-लेकर बड़बड़ाने पर मजबूर करता है?
पढ़े-लिखे चेले-चपाटों के मुँह से यह सवाल सुनकर अध्यक्ष का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उन्होंने कहा- कुर्सी फायदे की हो तो बैठने का मजा ही कुछ और होता है। वैसे राजनीति में लोग खड़े ही बैठने के लिए होते हैं। कुर्सी से उतर जाओ तो एक दिन भी एक युग सा और बैठ जाओ तो पाँच साल भी पाँच मिनट सा लगता है। बड़ी गजब की चीज है बच्चू! लोग फालतू में शराब को बदनाम करते हैं, जो नशा कुर्सी में है वह किसी में नहीं है। बिना पिलाए मदहोश करने की ताकत है इसमें। प्यार का नशा किसी से प्यार करने तक होता है। प्यार टूट जाए तो किसी ओर में ढूँढ़ा जा सकता है। मोह का नशा उम्र के साथ बदलता रहता है। बचपन में कोई, जवानी में कोई और बुढ़ापे में कोई। इसलिए प्यार और मोह जैसी बातों से स्वयं को दूर रखना चाहिए। ये मनुष्य को कमजोर बनाती हैं। धन-दौलत का नशा, सम्मान का नशा, खुद को दूसरों से ऊँचा दिखाने का जंबो पैक नशा सिर पर छा जाए तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। भ्रष्ट बुद्धि के लिए सही पता कुर्सी तक पहुँचना होता है। कुर्सी की माया बड़ी विचित्र होती है। उस पर बैठने वाले को अपना बुरा भी अच्छा लगने लगता है। सच्चाई झूठ, सफेद काला और रात दिन सा लगने लगता है।
अध्यक्ष की बातें सुन चेले-चपाटों ने कहा– अब हम कुर्सी पर तो नहीं हैं। फिर क्या करें? उन्होंने कहा– बेटा! कुर्सी अपने आप चलकर नहीं आती। उसके पास पहुँचना पड़ता है। पहुँचने के लिए चलना, दौड़ना या कूदने की जरूरत नहीं पड़ती। दूसरों को गिराना पड़ता है। बुरा सोचना पड़ता है। कुर्सी पर बैठने वाले की गलती पर खुशियाँ मनाना पड़ता है। बाहर-भीतर अलग-अलग सा रहना पड़ता है। घड़ियाली आँसू बहाना पड़ता है। बिन बुलाई बारातों में जाना पड़ता है। जमाने भर की गालियाँ देने वाले को गले लगाना पड़ता है। गधे को बाप बनाना पड़ता है। कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना लगाना पड़ता है। दुनिया तुम्हें लाख भला-बुरा कहे, खुशी-खुशी उनके सामने हाथ जोड़कर झुकना पड़ता है। घर-परिवार को छोड़ दुनिया भर को परिवार बनाना पड़ता है। कुल मिलाकर निर्माण से अधिक तोड़-फोड़ के बारे में सोचना पड़ता है। जो यह कलाएँ सीख जाता है वह कुर्सीभोगी, न सीखे तो कुर्सी रोगी रह जाता है।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 'उरतृप्त'
(हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)