हे धरती माँ! तुम बहुत बदल गयी हो। अब पहले जैसी बात नहीं रही। वैश्वीकरण के नाम पर मोबाइलों, लैपटॉप और कंप्यूटरों में सिमट गयी हो। अब तुम गोल नहीं सपाट हो। एक छोटा-सा डिजिटल गाँव हो। कॉर्पोरेट दुनिया की गुलाम हो। गूगल, फेसबुक, अमेजान की मोहताज हो। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के घेरे में रोबोट बनकर खेल रही हो। कभी ड्रोन तो कभी क्लाउड की दुनिया में घूम रही हो। आंकड़े, दस्तावेज, श्रव्य-दृश्य सामग्री भंडारण करने वाली गोदाम हो। उबर-ओला टैक्सी बनकर इधर-उधर चक्कर काट रही हो।
टिक-टॉक, वाट्सएप, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम जैसी सूचना प्रौद्योगिकी के मोहजाल ने तुम्हें बांध दिया है। कुछ कहने के लिए वोडाफोन, एयरटेल, जियो और रहने के लिए एप्पल, सैमसंग, वीवो, ओप्पो, वन प्लस का मुँह ताकती हो। अब तुम्हारा वैलिडिटी पीरियड भी फिक्स्ड होने लगा है। प्री-पेड और पोस्ट पेड की तरह जीने की आदी हो चुकी हो। कॉर्पोरेट कॉरिडोर के आंगन में इलेक्ट्रॉनिक गजटों से खेलने लगी हो। धीरे-धीरे खत्म होने लगी हो। दुर्भाग्य यह है कि तुम्हारी सेटिंग्स में कंट्रोल जेड का बटन भी नहीं है। तुम चाहकर भी पहले जैसी नहीं बन सकती।
अब विश्व समाप्ति की शुरुआत हो चुकी है। अंतिम संघर्ष का शंखनाद हो चुका है। न्यूटन, थामस अल्वा एडिसन, ग्राहमबेल, अल्बर्ट स्विट्जर, अलेगजांडर फ्लेमिंग की सेवाओं को तुम चाह कर भी नहीं भुला सकती। आइनस्टीन की आत्मा को अब कभी शांति नहीं मिल सकती। ट्रूमन, मैन हॉटन को यह दुनिया कभी क्षमा नहीं कर सकती। मानव सभ्यता का पतन नैतिक मूल्यों के ह्रास का महापाप है! हे धरती माँ! यह सब लालच में अंधा होकर तेजी से भागने का परिणाम है। यह वह शोक है जिसे तौला नहीं जा सकता। यह कई दिनों से जमा हुआ हमारी फूहड़ सोच का कूड़ा-कचरा है। मनुष्य ही सबसे बड़ा विश्वरोग है! महामारी है! आज तुम्हें सेल्फ आइसोलेशन की आवश्यकता है। यह विज्ञान की अति का दुष्परिणाम है। जहाँ पंचइंद्रियाँ वेंटिलेटर पर और समाज अलग-थलग जीने को मजबूर है। आँखें आँसू बनकर, प्रकृति क्षत-विक्षत होकर अपनी चरमावस्था पर पहुँच चुकी है।
यहाँ सब अनिश्चित है। सभी अंतहीन संभावनाओं की खोज में लगे हैं। जो सच है वह एकमात्र मृत्यु है। आदमी और आदमी के बीच, आदमी और प्रकृति के बीच जो दैत्य बनकर खड़ा है उसे कॉर्पोरेट जगत कहते हैं। यह जगत शहरों को कभी सोने और गाँवों को कभी जागने नहीं देता। मल्टी नेशनल कंपनियों की आड़ में इंसानी खून पीने वाले ये विषवृक्ष हैं। महाराक्षस बनकर धरती पर उत्पात मचाना चाहते हैं। लेन-देन की दुनिया में मनुष्य की मानवता कब की समाप्त हो चुकी है। सोशल मीडिया की उंगलियों पर ज्ञानेंद्रियाँ नाच रही हैं। अब हम मानव नहीं, स्वयं को झांसा देने वाले स्मार्ट सिटी के आदिमानव हैं। अब न मानवीय कणों का पता है, न शक्ति का ठिकाना। न रूप है न दिशा। कहाँ आना है कहाँ जाना है, पता नहीं। अब हम मनुष्य नहीं रक्त कणों में बिखरे हुए छोटे-छोटे द्वीप हैं। हमें अपने सिवाय कोई दिखायी नहीं देता।
माइक्रोस्कोप की पकड़ से बचने की कोशिश करने वाला कोरोना आज हमारे अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा रहा है। अनादि काल से चले आ रहे हमारे ज्ञान-विज्ञान को ठेंगा दिखा रहा है। हमें ताना मार रहा है। विज्ञान व तकनीक के शंख-चक्र धारण किए मनुष्य को उसकी औकात दिखा रहा है। वह मानव समाज की छाती पर पाँव धरकर हमें शर्मसार कर रहा है। हे भगवान! आज तेरे बनाये संसार की हालत क्या हो गई है। हे घमंडी होमोसेंपियन्स! मात्र हाथ धोने और मुँह पर मास्क लगा लेने से तुम्हारे किए पाप धुलने वाले नहीं हैं। तुम्हें यह याद रखना होगा कि मनुष्य और प्रकृति के बीच अनूठा और अटूट संबंध है। यह धरती केवल मनुष्यों की नहीं है। बल्कि यह वृक्ष, घोंसले, चींटी और अनंत जीवराशियों का देवालय है। इनके बिना तुम अधूरे हो। प्रकृति अनादि, अनंत, अजर, अमर और शाश्वत है।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'