गणित के मास्टर की जिंदगी कभी कभार गणित से भी बदतर होती है। आंखें मानो शून्य-शून्य-सी, कान मानो तीन-तीन की तिकड़ियों-सी और नाक मानो हर समय नथुनों की ऐंठन से छह-सी लगती है। कुल मिलाकर चेहरे पर हमेशा बारह बजे रहते हैं। आंकड़ों के फेर में पड़कर सारी अकड़ न जाने कब फितूर हो जाती है। कभी-कभी तो लगता है कि कवि सम्मेलनों, नेताओं के भाषणों के बाद यही वह वर्ग है जो सबसे ज्यादा सिरदर्द की गोली पर जिंदा रहता है। दूसरे शब्दों में सिरदर्द की सारी फार्मा कंपनी इन्हीं वर्गों से अपनी रॉयल्टी कमाती हैं।
एक दिन एक गणित मास्टर ने किसी छात्र से चार गुणा पांच कितना होता है, पूछ लिया। सामान्य गणित करने वाले भी इस प्रश्न का उत्तर दे सकते थे। किंतु छात्र था कि उत्तर मालूम होने के बावजूद न-नुकूर करता रहा। न जाने उस पर किसने जादू-टोना कर दिया कि लाख पूछने पर भी न हिला, न डुला एकदम बेहयाओं की तरह अपने स्थान पर खड़ा रहा। मास्टर की थोड़ी बहुत डांट-डपट का कोटा अपने बदन से झाड़कर वह बैठ गया। हंसमुख, चुलबुले स्वभाव वाले उस छात्र को उस दिन के बाद न जाने क्या हो गया कि वह गुमसुम-सा उखड़ा-उखड़ा रहने लगा। कुछ दिनों बाद उसने पाठशाला छोड़ दी। यह घटना घट कर 15 वर्ष बीत गए। अब मास्टर जी बूढ़े हो चले थे। घर की माली हालत बड़ी तंग थी। पाठशाला ने उन्हें बुढ़ापे का हवाला देकर यूज एंड थ्रो की तरह टरका दिया। इकलौता बेटा काफी पढ़ा-लिखा होने के बावजूद मास्टर जी के सीने पर मूँग दल रहा था।
एक दिन मास्टर ने पेपर में अपने बेटे और खुद के लायक किसी नौकरी का विज्ञापन देखा लड़का इतने इंटरव्यू दे चुका था कि अब उसे सारे विज्ञापन सौंदर्य साधनों से लगने लगे। सौंदर्य साधन गोरा करने के नाम पर सांवलेपन के साथ जो खिलवाड़ करते हैं वह शाहरुख खान, जॉन अब्राहम और यामी गौतम की नानी तक नहीं बता सकतीं। सो लड़के का विज्ञापनों में विश्वास ना रहा। जैसे-तैसे पिता ने उसे मनाया और दोनों इंटरव्यू के लिए चल पड़े।
इंटरव्यू के समय कंपनी का मालिक बारी-बारी से सबसे सवाल-जवाब तलब कर रहा था। ना जाने मास्टर जी को देख कर उसे क्या हुआ उसने तुरंत मास्टर जी को इंटरव्यू के लिए बुलाया। मालूम करने पर पता चला कि वे लड़के के साथ-साथ खुद भी नौकरी करना चाहते हैं। मालिक ने उन्हें नौकरी करने से मना कर दिया और उनके लड़के को दुगनी तनख्वाह पर नौकरी में रख लिया।
नैतिकता के पतझड़ में मास्टर जी कब के सूखकर पीले पड़ गए थे। किंतु आज उनकी आंखों में कृतज्ञता के आंसू छलक पड़े। वह कुछ कहना चाहते थे। तभी मालिक बोल उठा– आपको याद है आप फलां पाठशाला में गणित पढ़ाते थे। एक दिन आपने किसी लड़के से चार गुणा पांच पूछा था, वह लड़का कोई और नहीं मैं ही हूं। मास्टर जी आप और मैं उस शिक्षा के पाट में पीस कर रह गए जहाँ सोचने वाले नहीं रट्टा मारने वाले और जिंदगी की चुनौतियों से डरकर भागने वाले यंत्र बनाए जाते हैं। चार गुणा पांच कितना होता है, बताने के लिए केलकुलेटर तब भी था और अब भी है। मैं तो केलकुलेटर बनाने के पीछे लगने वाला गणित सीखना चाहता था। दुर्भाग्य से ऐसी शिक्षा हमारी पाठशाला में नहीं दी जाती। बस चले तो आज की शिक्षा व्यवस्था माँ के गर्भ से बच्चे को छीनकर आईएएस, आईपीएस, मेडिकल की कोचिंग देना शुरु कर दे। मेहनत करने से शिक्षा प्राप्त नहीं होती, वह तो लगन से प्राप्त होती है। मेहनत तो मजदूर भी करता है, उसे शिक्षा नहीं मजदूरी मिलती है। लगन हो तो मूरख भी कालीदास बन सकता है।
मास्टर जी यह सुन अपने जीवन भर के गणित का अवलोकन करने लगे। उन्होंने जीवन भर बच्चों को गणित का जीवन सिखाया जबकि उन्हें जीवन का गणित सिखाना चाहिए था। दुर्भाग्य से हमारी किताबें, पाठ्यक्रम, मास्टर इन सबसे बेखबर रैंकों की अंधाधुंध होड़ में छात्रों की जगह घोड़ों की दौड़ करा रहे हैं। और घोड़े हैं कि भेड़चाल की संस्कृति में एक-दूसरे के आगे-पीछे लगे हुए हैं। जानवर बनाने वाली शिक्षा से इंसान बनाने की अपेक्षा करना, बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होए, जैसा होगा।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त