मेला ऑन ठेला (व्यंग्य)

By दिलीप कुमार | Nov 11, 2019

"सारी बीच नारी है, या नारी बीच सारी

सारी की ही नारी है, या नारी ही की सारी"

 

जी नहीं ये किसी अलंकार को पता लगाने की दुविधा नहीं है, बल्कि ये नजीर और नजरनवाज नजारा फिलहाल लिटरेरी मेले का है। मेले में ठेला है, ये ठेले पर मेला है। बकौल शायर 


"नजर नवाज नजारा ना बदल जाये कहीं,

जरा सी बात है, मुँह से ना निकल जाए कहीं "।

 

एक बहुत मशहूर ललित निबंध है "ठेले पर हिमालय" जिसमें लेखक ठेले पर लदी हुई बर्फ देखकर खुद को तसल्ली देता है कि उसने हिमालय की बर्फ का दीदार करने के बाद खुद पर हिमालय में होना महसूस किया था। ठीक वैसे ही कल जब ठेले पर चाय पीने गया तो एक वीर रस के कवि मिल गए वो वीर रस की कविता सुना रहे थे। उनकी कविता सुनकर मुझे हाल ही में हुए एक साहित्यिक मेले की याद आ गयी जहाँ लोगों को राजनीति से धकियाये एक स्टार कवि की कविता सुनने को मिल रही थी, मगर खड़े ही खड़े। अगर कोई कुर्सी पर बैठना चाहता है तो उसे कॉफी का आर्डर देना पड़ेगा। जो काफी का आर्डर दिए बिना कविता सुन रहा था, उसे लोग ऐसी नजरों से देख रहे थे जैसे बिना बुलाया बाराती शादी में सबसे आगे आकर खाना खा रहा हो और सबसे स्टाइल में फोटो भी खिंचवा रहा हो। वैसे ये लिटरेरी मेले भी बड़े जबरदस्त किस्म के होते हैं जिनकी तुलना हिंदुस्तान की शादियों के मुहावरों से की जा सकती है कि "जो शादी के लड्डू खाये वो भी पछताए और जो लड्डू ना खाए वो भी पछताए"।

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बड़े बुजुर्ग कह गए हैं कि लड्डू खाकर ही पछताना चाहिए, क्योंकि "कंगाल से जंजाल भला"। अगर कोई किसी सरकारी विभाग की खरीद फरोख्त से जुड़ा लेखक नहीं है उसके मेले में दुबारा बुलाये जाने की प्राथमिकता ना के बराबर होती है, और यदि कोई किसी कालेज के हिंदी विभाग का विभागाध्यक्ष है, या लाइब्रेरी से जुड़ा साहित्यकार है तो उसके उस मेले में और तकरीबन हर मेले में बुलाये जाने की संभावना सापेक्षतावाद के सिद्धांत की तरह स्थायी है। ये जिन चैंनलों से प्रायोजित होते हैं, वहां साल दर साल असहिष्णुता की बहसें चलती रहती हैं, लेकिन इन मंचों पर एडिट करने की सुविधा ना होने के कारण यदि कोई पलट कर प्रस्तोता से सवाल कर ले तो फिर प्रस्तोता तुरंत और स्थ्ययी रूप से असहिष्णु हो जाती हैं। पिछले साल जावेद अख्तर ने ऐसे ही प्रस्तोता से उसी के मंच पर प्रस्तोता को असहिष्णु होने का ताना दिया तो वो बिलबला उठीं। जावेद अख्तर दूरदर्शी आदमी थे, लगे हाथ पूछ भी लिये थे कि "अगले साल हमको बुलाओगी या नहीं "।

 

अब लोगों को ये कहाँ पता था असहिष्णुता के झंडा बरदार जावेद अख्तर के साथ खुद अगले साल असहिष्णुता हो जायेगी और मेले से पत्ता गुल हो जायेगा। अब वजह जो भी हो दिल्ली की सर्दी में डॉ ऑर्थो तेल की असफलता या प्रस्तोता से पलट कर सवाल पूछने की असहिष्णुता रही हो इस बार जावेद अख्तर इस मेले से बाहर रहे और उनकी जगह शायरी में चौके छक्के वाले हजरात तशरीफ़ लाये लेकिन वक्त ने उनको हिट विकट कर रखा है सो तेवर नदारद ही रहे। इन मेलों की सबसे अनूठी बात ये है कि ये होते तो साहित्यकारों के नाम पर हैं मगर सिनेमा वाले इसमें खूब बुलाये जाते हैं। मंच पर एक घण्टे का साहित्यकार का सेशन होता है जिसमें शुरू के दस मिनट तो साहित्यकार की महानता बताने में निकल जाते हैं, और जब चर्चा परवान चढ़ती है तो प्रस्तोता एक घंटे की परिचर्चा को आधे घण्टे में निपटा देता है। क्योंकि 15 मिनट के रेडियो जॉकी के शो को एक घंटे का एक्सटेंशन जो देना होता है। जब हिंदी साहित्य के गम्भीर साहित्य की चर्चा के घण्टों को काटकर पुरुष प्रस्तोता अपनी महिला रेडियो जॉकी फ्रेंड की सुंदरता के ड्रेस सेंस, रूप लावण्य और अपने कॉफी के अनुभवों को साहित्य प्रेमियों के समक्ष रसास्वादन करता है तो साहित्य और कलाएं जमीन पर लोटती नजर आती हैं। 

 

कॉफी, वेफर्स के ठेलों के बीच लगे इन मेलों के बहिष्कार के भी चर्चे खूब होते हैं। पहले तो लोग हँस-हँस कर गर्व से इन मेलों में जाने की फोटो फेसबुक पर पोस्ट करते हैं और जब तारीख पास आते ही आयोजकों से फोन करके पूछते हैं कि "क्या पत्नी और बच्चों को भी साथ ला सकते हैं उनका भी किराया मिलेगा या नहीं, होटल में अलग कमरा मिलेगा ना"।

 

और उधर से जब जवाब मिलता है कि" सभी लेखकों के ठहरने की व्यवस्था एक ही रुम में है और सभी लेखिकाओं के एक साथ ठहरने की व्यवस्था दूसरे कमरे में एक साथ है सो नो सेपरेट रुम फॉर लेखक और रहा सवाल किराये का तो वो हम अभी नहीं दे पाएंगे, आप टिकट के बिल लगा दें, सब मार्च में ही क्लियर हो पायेगा"।

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मुफ्त घूमने की संभावनाओं पर तुषारपात और इस टके से जवाब के बाद उस लेखक को बोध ज्ञान प्राप्त होता है और वो कहता है कि "मुझे पता लगा है कि इस मेले के आयोजकों के सम्बन्ध फासिस्ट और पूंजीपतियों से है सो मैं इस मेले का बहिष्कार करता हूँ"।

 

ये और बात है कि होटल और किराये के बिल का भुगतान अगर तुरंत हो जाता तो वो शायद श्रम आधारित व्यवस्था से मान ली जाती। एक साहित्यिक दम्पति ने तो अपना सेकेंड हनीमून तक इस सबमें प्लान कर डाला था मगर हाय रे जमाने।

 

वैसे इन मेलों को कुछ लोग बहुत सीरियसली भी लेते हैं, उनके लिये साहित्य साधना के केंद्र बिंदु जैसे हैं ये मेले, उनमें हैं अप्रवासी साहित्यकार जो अपना, धन, समय, ऊर्जा की परवाह नहीं करते और साहित्य के सतत उन्नयन के लिये ऐसे दौड़े चले आते हैं जैसे राम की अयोध्या वापसी पर भरत स्वागत को दौड़ पड़े थे।

 

"आया है जो साहित्यकार उड़न खटोले पे

हिंदी आज निछावर है उस बेटे अलबेले पे"

 

ये लोग चंद रोज में हमें हिंदी की तासीर बताकर चल देंगे, तब तक हिंदी के मेलों के पहलवान अपने अपने दांव पेंच को शान चढ़ा रहे हैं। इन मेलों की नूरा कुश्ती में पैरोडी भी खूब चर्चा में हैं जैसे


"मुफ्तखोरी की शायरी अब तो महत्वहीन हुई 

तेरे जहर भरे बोली से ये फिजां इतनी गमगीन हुई"

 

दिलीप कुमार 

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