नाम तो जरूर सुना होगा...कांग्रेस। वैसे इसका पूरा नाम अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है लेकिन अब यह कुछ प्रांतों तक ही सिमट कर रह गयी है। इन 'कुछ' प्रांतों के अलावा जो प्रांत हैं वहां पर कांग्रेस ने कहीं शून्य को गले लगा लिया है तो कहीं मंझले भाई तो कहीं छोटे भाई तो कहीं सबसे छोटे भाई तो कहीं मूकदर्शक की भूमिका को ही अपनी नियति मान लिया है। इसके अलावा एकाध राज्य ऐसे भी हैं जहां कांग्रेस अपनी मेहनत से ज्यादा चुनावों के दौरान बनने वाले 'इस समीकरण या उस समीकरण' से खुद को होने वाले लाभ के भरोसे बैठ जाती है। वैसे तो कांग्रेस मुक्त भारत का नारा भाजपा ने दिया था लेकिन कहा जा सकता है कि भारत के इस सबसे पुराने राजनीतिक दल का अखिल भारतीय स्वरूप सिमटाने में किसी अन्य पार्टी का ज्यादा योगदान नहीं है बल्कि इसका पूरा श्रेय खुद कांग्रेस आलाकमान को जाता है।
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यह वर्तमान कांग्रेस आलाकमान का ही आशीर्वाद है कि जिस कांग्रेस पार्टी के पास कभी हर वर्ग के बड़े नेताओं की पूरी फौज हुआ करती थी, चुनावों में एक नेता नहीं पूरी टीम मैदान संभाला करती थी, उस कांग्रेस के पास ना तो राष्ट्रीय और ना ही अधिकतर प्रांतीय स्तरों पर नेतृत्व बचा है ना ही पार्टी के पास कोई कुशल रणनीतिकार है। दूसरों की गलतियों से खुद को होने वाले फायदों की उम्मीद में समय काटती कांग्रेस सड़कों की बजाय ट्वीटर पर ज्यादा संघर्ष करती नजर आती है। उसके नेता सड़कों पर उतरने की बजाय सोशल मीडिया पर एक दूसरे पर निशाना साधने में ज्यादा रुचि लेते हैं। चुनाव चाहे पंचायत के हों, निगमों के हों या फिर विधानसभा के हों, अव्वल तो पार्टी का आला नेतृत्व जल्दी प्रचार में उतरता नहीं और अगर उतरता भी है तो एकदम अंत में। पिछले कुछ चुनावों का विश्लेषण करेंगे तो एक चीज स्पष्ट रूप से उभर कर आती है कि पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व ने ही चुनावों के दौरान बड़ी गलतियां कर कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को धूमिल करने में सर्वाधिक योगदान दिया है। हर जगह राष्ट्रीय मुद्दों पर ज्यादा फोकस करना भी पार्टी को महँगा पड़ रहा है साथ ही कांग्रेस अब भी घोटाले वाली पार्टी की छवि से बाहर नहीं निकल पा रही है। कांग्रेस चाहे न्याय योजना की बात करे या फिर मुफ्त में सुविधाएं देने या कैशबैक देने की, जनता विश्वास ही नहीं कर रही।
अब देश की राजधानी दिल्ली को ही ले लीजिये। दिल्ली में केंद्र की सत्ता पर कांग्रेस ने सर्वाधिक समय राज किया। यही नहीं दिल्ली राज्य की सत्ता पर भी पार्टी पूरे 15 साल जोरदार बहुमत के साथ काबिज रही लेकिन उसके बाद से पार्टी का हाल देख लीजिये। 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी शून्य पर अटक गयी, 2015 के विधानसभा चुनावों में पार्टी शून्य पर अटक गयी, 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी शून्य पर अटक गयी और अब 2020 के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी शून्य पर अटक गयी। शिखर से शून्य तक के इस सफर में पार्टी के किसी नेता को कोई दर्द हुआ हो ऐसा प्रतीत नहीं होता क्योंकि दिल्ली के विधानसभा चुनावों में 66 में से 63 सीटों पर पार्टी उम्मीदवारों की जमानत जब्त होने के बाद भी पार्टी के माथे पर कोई शिकन नहीं है। कांग्रेस के नेता भाजपा की हार में अपनी जीत ढूँढ़ रहे हैं लेकिन उन्हें यह नहीं दिख रहा कि इस बार के दिल्ली विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को साढ़े चार प्रतिशत से भी कम वोट मिले हैं जबकि भाजपा के मत प्रतिशत में पांच प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई है।
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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की भी चाह थी कि आजादी के बाद कांग्रेस को खत्म कर दिया जाये क्योंकि इसका उद्देश्य पूरा हो गया है। कांग्रेस आलाकमान जिस तरह के फैसले ले रहा है, जिस तरह पार्टी को चला रहा है उससे तो यही लगता है कि महात्मा गांधी का यह स्वप्न जल्द ही पूरा होगा।
-नीरज कुमार दुबे