राष्ट्रगान का पहली बार सस्वर गायन सरोजिनी नायडू ने किया था

By देवेन्द्रराज सुथार | Mar 02, 2019

स्वतंत्रता सेनानी, कवयित्री, देश की पहली महिला गवर्नर, केसर-ए-हिन्द श्रीमती सरोजिनी नायडू उन महिलाओं में से हैं, जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए कठिन संघर्ष किया। उन्होंने कांग्रेस के वर्ष 1925 मे आयोजित कानपुर अधिवेशन की अध्यक्षता करके ऐसा करने वाली राष्ट्रीय स्तर की चंद महिला नेताओं में अपना नाम शामिल करवाने का सौभाग्य प्राप्त किया। राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ का प्रथम बार सस्वर गायन भी कांग्रेस के बाद के अधिवेशन में उन्होंने ही किया था। इसीलिए उनको देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा 'भारत कोकिला' के सम्मान से नवाजा गया था।

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सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी, 1879 में हैदराबाद के एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री पिता अघोरनाथ चट्टोपध्याय और बंगाली भाषा की कवयित्री माता वरदा सुंदरी के घर हुआ था। सरोजिनी नायडू को काव्य लेखन का हुनर विरासत में मिला था। वे अपने आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। उनके एक भाई विरेंद्रनाथ क्रांतिकारी थे और एक भाई हरिद्रनाथ कवि, कथाकार और कलाकार थे। होनहार छात्रा होने के साथ ही वे उर्दू, तेलगू, इंग्लिश, बांग्ला और फारसी भाषाओं में भी दक्ष थीं। उन्होंने बचपन में ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं। उन्होंने 12 साल की उम्र में 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ पास कर ली थीं और केवल 13 वर्ष की आयु में 1300 पदों की ‘लेडी ऑफ दी लेक’ नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्धकर अपने कवयित्री होने का सार्वजनिक ऐलान कर दिया था।

 

उनके वैज्ञानिक पिता चाहते थे कि वो गणितज्ञ या वैज्ञानिक बनें, पर उनकी रुचि कविता में थीं। उनकी कविता से हैदराबाद के निजाम बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनी नायडू को विदेश में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी। 1895 में 16 साल की उम्र में हैदराबाद के निजाम की ओर से छात्रवृत्ति प्राप्त कर वे पढ़ने के लिए पहले लंदन के किंग्स कॉलेज और बाद में ग्रिटन कॉलेज कैम्ब्रिज गईं। वहां वे उस दौर के प्रतिष्ठित कवि अर्थर साइमन और एडमंड गॉस से मिलीं। एडमंड गॉस ने नायडू को भारत के पर्वतों, नदियों, मंदिरों और सामाजिक परिवेश को अपनी कविता में समाहित करने की प्रेरणा दी। नायडू की शादी 19 साल की उम्र में डॉ. एम. गोविंदराजलु नायडू से हुईं तथा वे लगभग बीस वर्ष तक कविताएं और लेखन कार्य करती रहीं और इस समय में उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कविता संग्रह ‘बर्ड ऑफ़ टाइम’ और ‘ब्रोकन विंग’ ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री बनवा दिया। सरोजिनी नायडू को भारतीय और अंग्रेज़ी साहित्य जगत की स्थापित कवयित्री माना जाने लगा था किंतु वह स्वयं को कवि नहीं मानती थीं। उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘द गोल्डन थ्रेसहोल्ड’ 1905 में प्रकाशित हुआ जो काफी लोकप्रिय रहा।

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देश की राजनीति में कदम रखने से पहले सरोजिनी नायडू दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थीं। गांधी जी वहां की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। इसी तरह 1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयंसेवकों में से एक थीं। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि वे गांधीजी से पहली बार भारत में नहीं बल्कि ब्रिटेन में मिली थीं। ये 1914 की बात है। गांधी जी अपने दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के चलते प्रसिद्ध हो चुके थे। सरोजिनी नायडू उस समय इंग्लैंड में थीं। जब उन्होंने सुना कि गांधी जी भी इंग्लैंड में हैं, तब वो उनसे मिलने गईं। गांधी जी को देखकर चौंकीं लेकिन प्रभावित भी हुईं, उन्होंने देखा कि गांधी जी जमीन पर कंबल बिछाकर बैठे हुए हैं और उनके सामने टमाटर और मूंगफली का भोजन परोसा हुआ है। सरोजिनी नायडू गांधी की प्रशंसा सुन चुकी थीं, पर उन्हें कभी देखा नहीं था। जैसा कि वो खुद वर्णन करती हैं, ‘कम कपड़ों में गंजे सिर और अजीब हुलिये वाला व्यक्ति और वो भी जमीन पर बैठकर भोजन करता हुआ।’

 

गांधी जी अपने पत्रों में नायडू को कभी-कभी ‘डियर बुलबुल’, ‘डियर मीराबाई’ तो यहां तक कि कभी मजाक में ‘अम्माजान’ और ‘मदर’ भी लिखते थे। मजाक के इसी अंदाज में सरोजिनी भी उन्हें कभी ‘जुलाहा’,‘लिटिल मैन’ तो कभी ‘मिकी माउस’ संबोधित करती थीं। वैसे जब देश में आजादी के साथ भड़की हिंसा को शांत कराने का प्रयत्न महात्मा गांधी कर रहे थे, उस वक्त सरोजिनी नायडू ने उन्हें ‘शांति का दूत’ कहा था और हिंसा रुकवाने की अपील की थी। नारी-मुक्ति की समर्थक सरोजिनी नायडू का यह मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही हैं। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया। राज्यपाल के पद पर रहते हुए उनका 2 मार्च, 1949 को निधन हो गया था।

 

मृत्यु एक शाश्वत सत्य है और इसे भला कौन रोक पाया है। स्वयं सरोजिनी नायडू ने अपनी एक कविता में मृत्यु को कुछ देर के लिए ठहर जाने को कहा था, 'मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक।'  काश ! ऐसा हो पाता। इस महान देशभक्त को देश ने बहुत सम्मान दिया। सरोजिनी नायडू को विशेषतः ‘भारत कोकिला’, ‘राष्ट्रीय नेता’ और ‘नारी मुक्ति आन्दोलन की समर्थक’ के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा। उनको सच्ची श्रद्धांजलि यहीं होगी कि हम सभी उनके एवं अन्य स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा प्रदत्त मार्गदर्शन और राष्ट्र निर्माण के लिए बताये गये उच्च आदर्शों के अनुरूप आचरण करें और भारत को एक समृद्ध, समावेशी, बहुलतावादी, सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप मे विश्व मंच पर स्थापित करें।

 

-देवेन्द्रराज सुथार

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