मुलायम ने कारसेवकों पर गोली चलवाई, अखिलेश बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों के साथ चले गये

By अजय कुमार | Nov 28, 2019

कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम) की सत्ता के गलियारों में आजकल खूब चर्चा होती है। एक तरह से जोड़−तोड़ की हिन्दुस्तानी राजनीति का यह मजबूत 'सुरक्षा कवच' बन गया है, जिसको पहन कर सियासतदार बड़े से बड़ा 'पाप' करने में हिचकिचाते नहीं हैं। महाराष्ट्र को ही ले लीजिए जहां समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी शिवसेना की सरकार बनने से चहक−चहक कर फुदक रहे हैं। उनकी खुशी छिपाए नहीं छुप रही है। महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा रही समाजवादी पार्टी को दो विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई है। चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश यादव भी महाराष्ट्र गए थे, अपने भाषण में उन्होंने तब के भाजपा−शिवसेना गठबंधन को साम्प्रदायिकता की आड़ में खूब कोसा−काटा था। अखिलेश का कोसना लाजिमी भी था, उनके पिता मुलायम सिंह यादव तो अपने पूरे सियासी सफर में बाबरी मस्जिद के पक्ष में खड़े रहे थे। मुलायम की सियासत की धुरी ही तुष्टिकरण की राजनीति पर टिकी रहती थी। वह मुसलमानों को लुभाने के लिए हर वह हथकंडा अपनाते थे, जिससे उनका मुस्लिम वोटर खुश रहता था, इसीलिए तो अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाने में वह गर्व महसूस करते थे। इसलिए जब अखिलेश महाराष्ट्र चुनाव के समय भाजपा−शिवसेना गठबंधन पर निशाना साधते थे तो उनके लिए खूब ताली बजती थीं। आखिर वह उस शिवसेना को कैसे नहीं कोसते जो छाती ठोक कर दावा करती रहती थी कि हम पर अगर बाबरी मस्जिद तोड़ने को आरोप है तो हमें इस पर गर्व है। शिवसेना जितनी दबंगई से बाबरी मस्जिद गिराए जाने में अपनी भूमिका को स्वीकार करती थी, उतनी हिम्मत तो भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद तक नहीं दिखा पाये थे।

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ऐसे में सवाल तो उठता ही है कि आखिर क्यों अखिलेश बाबरी मस्जिद तोड़ने वाले 'खलनायकों' से जाकर मिल गए। भले ही अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश की सियासत को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी के शिवसेना के साथ खड़ा होने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हों, लेकिन हकीकत तो यही है कि यह बात छिपने वाली नहीं है कि अपनी सियासत चमकाने के लिए समाजवादी पार्टी ने महाराष्ट्र में बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों से हाथ मिला लिया है। महाराष्ट्र में बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों के साथ अखिलेश का 'समाजवाद' पींगे बढ़ाते दिखा तो कई लोगों को इस पर आश्चर्य हुआ, हो सकता है देर−सबेर चुनाव के समय यह मुद्दा यूपी में अखिलेश को परेशान करे, तब वह क्या जवाब देंगे यह देखने वाली बात होगी। यह भी सकता है वह फिर कोई वैसी ही थ्योरी गढ़ दें, जैसी उन्होंने बसपा के साथ गठबंधन करते समय गढ़ दी थी। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि कई बार मुलायम ने भी उस भाजपा से हाथ मिलाने में गुरेज नहीं किया था, जिसकी मुखालफत करके उन्होंने अपनी राजनीति चमकाई थी। कौन भूल सकता है लोकसभा चुनाव से पूर्व अंतिम लोकसभा सत्र की बैठक में मुलायम ने मोदी को जीत का आशीर्वाद तक दे दिया था।

 

कहने का तात्पर्य यह है कि जब कभी देश में या फिर किसी राज्य में किसी एक राजनैतिक पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है, वहां सत्ता के 'दलाल' गिद्ध की तरह एकजुट होकर देश या प्रदेश सेवा के नाम पर 'सरकारी भोज' करने की तैयारी करने लगते हैं। यह नजारा कमोवेश करीब−करीब सभी राज्यों में समय−समय पर देखने को मिला है, जैसा आज महाराष्ट्र में देखने को मिला रहा है। कुछ समय पूर्व गोवा, कर्नाटक, मणिपुर, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में भी ऐसा ही मंजर देखने को मिला था। बस फर्क इतना था, कहीं सत्ता हासिल करने के लिए चुनाव पूर्व बेमेल गठबंधन किया गया था तो कहीं नतीजे आने के बाद सत्ता हासिल करने के लिए परस्पर विरोधी दो दल एक हो गए थे।

 

बिहार में 2015 में हुए विधानसभा चुनाव के समय लालू−नीतीश और उत्तर प्रदेश में इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव से पूर्व सपा−बसपा गठबंधन इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं, जिसमें नीतीश−लालू गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब भी रहा था, लेकिन नीतीश अब भाजपा के साथ गलबहियां कर रहे हैं, लेकिन यूपी में सपा−बसपा की दोस्ती कोई रंग नहीं दिखा पाई थी। साथ−साथ चुनाव लड़ने वाले गठबंधन तो चर्चा में रहे ही, इसी के साथ चुनाव बाद सरकार बनाने के लिए जम्मू−कश्मीर में भाजपा का महबूबा से हाथ मिलाना, कर्नाटक में जेडीएस का कांग्रेस के साथ मिलकर गठबंधन की सरकार बनाना भी लोकतंत्र को ठेंगा दिखाता रहा है। इसी तरह से गोवा और मणिपुर में भी सरकार बनाने के लिए भाजपा ने हद पार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हरियाणा में भी यही नजारा देखने को मिला जहां भाजपा ने सरकार बनाने के लिए जननायक जनता पार्टी के दुष्यंत चौटाला को डिप्टी सीएम तक बना दिया।

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लब्बोलुआब यह है कि कहने को तो बेमेल सरकारें देश या प्रदेश हित के नाम पर बनाई जाती हैं, दिखावे के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम भी बनता है, लेकिन सीएम की कुर्सी से लेकर डिप्टी सीएम और मंत्री पद हासिल करने तक के लिए खूब रस्साकशी होती है। विचारधाराओं को खूंटी पर टांग दिया जाता है। साथ आने वाले दल यह भी नहीं याद रखते हैं कि उन्होंने चुनाव से पूर्व एक−दूसरे के लिए किस तरह की भाषा का प्रयोग किया था। यहां वीपी सिंह का एक बयान काफी सटीक बैठता है। एक बार किसी ने वीपी सिंह से कहा कि देश में आपका जलवा है, आप अपनी पार्टी क्यों नहीं बना लेते? इसका जवाब वीपी सिंह ने कुछ इस तरह से दिया कि आप देख रहे हैं कि यहां चारों तरफ समर्थन की बरसात हो रही है और आप कटोरे में पानी इकट्ठा करने की सलाह दे रहे हैं! यह उसी दौर की बात है जब वीपी सिंह के संदर्भ में नारा चल रहा था, 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।' इस नारे का मजमून यह था कि मानो देश को एक ऐसा मसीहा मिला है, जो जन−मानस के पटल पर बैठा है। लेकिन समर्थन की दरी जब पैरों के नीचे से खिसकी तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की जमीन खिसक गई।

 

खैर, इस बात को लगभग तीन दशक हो चुके हैं। गंगा और यमुना में बहुत पानी बह चुका है। 'तिलक, तराजू और तलवार' वाले नारे से लेकर 'हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा विष्णु महेश हैं', 'चढ़ गुंडों की छाती पर मोहर लगाओ हाथी पर', 'यूपी को यह साथ पसंद है' तक अनेक नारे गठबंधन की सियासत में गरम होकर फिर नरम पड़ चुके हैं। ताजा उदाहरण महाराष्ट्र का है जहां एक नई इबारत लिखी जा रही है जिसमें समाजवादी पार्टी बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों के साथ खड़ी है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने जब अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाया था तो उसने बाबरी मस्जिद विध्वंस को गैर कानूनी करार दिया था। बाबरी मस्जिद तोड़ने वाले कुछ नेताओं के खिलाफ तो अगले साल अप्रैल तक फैसला भी आ जाने की उम्मीद है।

 

- अजय कुमार

 

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