घर लौटने वाले श्रमिकों को सहारा मिले तो वह गाँवों की अर्थव्यवस्था सुधार सकते हैं

By विजय कुमार | May 29, 2020

समय चाहे जो भी हो; पर अकाल, बाढ़, तूफान और महामारी जैसी आपदाओं का सामना दुनिया को करना ही पड़ा है। यह आज भी हो रहा है और आगे भी होगा; पर हर आपदा कुछ सिखा कर जाती है। कोरोना महामारी आयी है, तो जाएगी भी; पर कितनी जन और धन हानि के बाद यह विदा होगी, कहना कठिन है। पर इसके सबक को याद रखना और अपने स्वभाव में शामिल करना बहुत जरूरी है।


भारत में 24 मार्च की पहली तालाबंदी को पूरे देश ने खुले मन से स्वीकार किया। लगभग 90 प्रतिशत लोग अपने स्थान पर रुक गये। गांव हो या शहर, लोग घरों में बंद हो गये। यद्यपि हम स्वभाव से अनुशासनहीन हैं। देर से पहुंचना, धर्म के नाम पर शोर मचाना, कूड़ा फेंकना, हर जगह थूकना, घर और दुकान के बाहर जगह घेरना हम अपना हक समझते हैं; पर तालाबंदी में सबने अनुशासन का पालन किया। 22 मार्च को ‘जनता कर्फ्यू’ तथा पांच अप्रैल को रात्रि नौ बजे ‘प्रकाश पर्व’ के प्रयोग पूर्णतः सफल रहे। अनुशासन जागृति में उनका बहुत बड़ा योगदान था।

 

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मोदी ने इस दौरान सबसे अपने पड़ोसियों की चिंता करने को भी कहा। जिनके यहां किसी भी रूप में कोई कर्मचारी काम कर रहा है, उसका वेतन न काटें। मकान मालिक किराया न लें। बुजुर्गों का ध्यान रखें। कोई भूखा न सोये, इसका विशेष ध्यान रखने की बात उन्होंने कही। अतः सैंकड़ों सामाजिक संस्थाओं ने मजदूरों को आश्रय और भोजन दिया। अनाथ, निराश्रित और भिखारियों के अलावा सड़कों पर भटकते पशुओं का भी ध्यान रखा गया। छाते, चप्पल, अंगोछे, मुखबंद (मास्क) और सैनेटाइजर बांटे। युवाओं ने इन सेवा कार्यों में उत्साह से भाग लिया। अर्थात् समाज की सुप्त शक्ति का जागरण हुआ। हिन्दू, सिख और जैन संस्थाओं के सेवा कार्य विशेष उल्लेखनीय रहे।


भारत में पुलिस की छवि खलनायक जैसी है; पर तालाबंदी में पुलिस वालों ने लोगों को हाथ जोड़कर घर में रहने को कहा। बुजुर्गों को दवा मंगाकर दीं। उन्हें अपने वाहनों से घर पहुंचाया। सामाजिक संस्थाओं के सहयोग से राशन और तैयार भोजन बांटा। तीसरी और चौथी तालाबंदी में श्रमिक रेलगाड़ियां चलने पर सैंकड़ों लोगों को अपनी जेब से टिकट दिलाया। अर्थात् बाकी लोगों की तरह उनके मन की सुप्त अच्छाई भी इस काल में जाग गयी, यह सौ प्रतिशत सच है।


चिकित्साकर्मियों की भूमिका भी बहुत सराहनीय रही है। शुरू में तो उनके पास निजी सुरक्षा के उपकरण भी नहीं थे। कई डॉक्टरों ने बरसाती पहनकर ही काम किया। वे लम्बे समय तक घर नहीं जा सके। उधर जमातियों ने उन्हें बहुत परेशान किया। कोई उन पर थूक रहा था, तो कोई गाली दे रहा था। कई लोग महिला नर्सों से दुर्व्यवहार करते थे। मनाही के बावजूद सामूहिक नमाज पढ़ते थे। कई चिकित्सक और नर्सें भी इस रोग से जान गंवा बैठे। ऐसे विपरीत माहौल में भी वे सेवा में लगे रहे। तालाबंदी में गली और मोहल्ले कूड़े के ढेर बन गये। ऐसे में सफाई कर्मियों ने भी साहसपूर्वक काम किया। अतः लोगों ने माला पहना कर और पुष्पवर्षा कर उन्हें सम्मानित किया।


यद्यपि अभी यह नहीं कह सकते कि कोरोना का जानलेवा विषाणु (वायरस) कहां से आया; पर अधिकांश दुनिया का संदेह चीन की ओर है। इसलिए पूरी दुनिया में चीन के विरुद्ध वातावरण बना है। चीन ने अपने सस्ते सामान से दुनिया को पाट रखा है। उसका काफी सामान घटिया भी होता है। ऐसे में कई देशों ने इनके बहिष्कार की मुहिम चलायी है। कई बड़ी कम्पनियां वहां से अपना कारोबार समेट भी रही हैं।

 

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भारत में स्वदेशी जागरण मंच आदि संस्थाएं सबसे स्वदेशी सामान खरीदने का आग्रह करती रही हैं। उनके पास दैनिक उपयोग की विदेशी, बहुराष्ट्रीय और स्वदेशी सामान की सूची रहती है। वे इसे विभिन्न माध्यमों से लोगों को भेजते भी हैं। अब सबका ध्यान फिर से इस ओर गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने 26 अप्रैल के अपने संबोधन में स्वदेशी उत्पाद प्रयोग कर देश को आत्मनिर्भर बनाने का आग्रह किया। 


नरेन्द्र मोदी ने 12 मई को राष्ट्र को संबोधित करते हुए इसी विषय को आगे बढ़ाया। उन्होंने स्थानीय (लोकल) उत्पाद खरीदने तथा ‘लोकल पर वोकल’ होकर उसे ग्लोबल बनाने को कहा। इसका अर्थ बहुत गहरा है। भारत में निर्मित हर चीज स्वदेशी हो, ये जरूरी नहीं है। हर स्वदेशी उत्पाद से भी आम आदमी को लाभ नहीं होता। हां, वह लाभ विदेशी की बजाय भारतीय पूंजीपति को होने लगता है; पर लोकल चीज स्वदेशी होगी ही। उसे खरीदने से हमारे आसपास के छोटे कारोबारी का चूल्हा जलेगा। इसलिए लोकल पर ध्यान देना भी जरूरी है। 

 

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मोदी की इस अपील का बहुत प्रभाव हुआ है। गृह मंत्रालय के अधीन अर्ध सैन्य बलों की कैंटीन में अब स्वदेशी उत्पाद ही बिकेंगे। कई उद्योगपति विज्ञापनों में अपने सामान के पूर्ण स्वदेशी और लोकल होने की घोषणा कर रहे हैं। यद्यपि कई चीजें स्थानीय तौर पर नहीं बनती; पर बिस्कुट, साबुन, मंजन, कपड़े जैसी स्थानीय चीजें खूब मिलती हैं। शायद उनकी गुणवत्ता कुछ कम हो; पर बिक्री बढ़ने से प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और वे उत्पाद भी अच्छे और सस्ते होने लगेंगे। अब करोड़ों श्रमिक अपने गांव लौटे हैं। उन्हें सहारा मिले, तो वे लोकल उत्पादों से गांव की अर्थव्यवस्था सुधार सकते हैं। 


कोरोना ने दुनिया को अस्त-व्यस्त कर दिया है। जहां तथाकथित विकसित देशों ने इस संकट में हाथ खड़े कर दिये, वहां भारत ने निःस्वार्थ भाव से करोड़ों लोगों को सहारा दिया। समाज की यह सुप्त शक्ति ही हमारी ताकत है। यह कैसे बढ़े, अब यह सोचना होगा।


-विजय कुमार


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