फक्कड़, धुनी और ध्येय के प्रति समर्पित पत्रकार थे मामा माणिकचंद वाजपेयी

By डॉ. पवन सिंह मलिक | Oct 07, 2020

भारतीय पत्रकारिता में मूल्यों को स्थापित करने में अनेक नामों की एक लंबी श्रृखंला हमको दिखाई देती है। लेकिन उन मूल्यों को अपने जीवन का ध्येय बना पूरा जीवन उसके लिए समर्पित कर देना और उसी ध्येय की पूर्ति के लिए जीवन भर कलम चलाना, ऐसा कोई नाम है तो वो है ‘मामा माणिकचंद वाजपेयी’। उनकी पत्रकारिता के प्रति दृष्टि आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस समय थी। इसलिए ऐसे पत्रकारीय कृतित्व व उनके मूल्यों से आज पत्रकारिता से संबंध रखने वाली पीढ़ी को अवश्य ही परिचित होना चाहिए। तभी पत्रकारिता द्वारा समाज प्रबोधन व जागरण का कार्य, उसी प्रकार अपने आदर्श पथ पर निरंतर चलता व बढ़ता रहेगा, जैसा की उसे होना चाहिए। भारतीयकरण, आपातकाल, हिन्दुत्व, कश्मीर, स्वदेशी, पंजाब, राम जन्मभूमि, जातिवाद, छद्म धर्मनिरपेक्षता, धर्मान्तरण, संस्कार, शिक्षा पर हमले, राष्ट्र रक्षा, अखंडता से जुड़े हर विषय पर, हर समस्या और हर बिन्दु पर मामाजी ने अपने लेखों के माध्यम से न केवल अपने विचार प्रस्तुत किए, बल्कि समाज को इन विषयों पर सोचने के लिए प्रेरित भी किया। वास्तव में मामाजी राष्ट्रवादी पत्रकारिता के मुखर पुरोधा थे।

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मामाजी अक्सर कहा करते थे, ‘मेरी पहचान मेरे कपड़ों से नहीं, मेरे विचारों से है’। न कोई व्यक्तिगत इच्छा, न आकांक्षा, न सम्मान और न अपमान की चिंता। मूल्य आधारित पत्रकारिता और उसके प्रति समर्पण का भाव ही उनके जीवन का चरितार्थ रहा। मामाजी की त्याग, तपस्या एवं सिद्धांतों के साथ उनका चिंतन, लेखन सदा जुड़ा रहा। महापुरुषों के जीवन की यह विशेषता रहती है कि उनकी कथनी-करनी में अंतर नहीं रहता। इसीलिए उनकी वाणी, लेखन का व्यापक असर समाज पर होता रहा और उनसे प्रेरणा प्राप्त कर अनेकों युवाओं ने पत्रकारिता को अपने जीवन का ध्येय बनाया। आपातकालीन संघर्ष गाथा, प्रथम अग्नि परीक्षा, भारतीय नारी, विवेकानंद की दृष्टि में कश्मीर का कड़वा सच, पोप का कसता शिकंजा, ज्योतिजला निज प्राण की, मध्यभारत की संघ गाथा आदि प्रकाशनों में मामाजी का चिंतन, समाज केंद्रित लेखन दृष्टि, निर्भीक पत्रकार व एक यायावर व्यक्तित्व की झलक परिलक्षित होती है। उनका लेखन चाहे संपादकीय के रूप में रहा हो या आलेखों के रूप में, उसकी प्रतिक्रिया भी हुई और पाठक उससे प्रेरित भी हुए। लोकमान्य तिलकजी ने पत्रकारिता के प्रति जिस आग का संकेत दिया, वह आग, वह प्रेरणा, मामाजी के हर आलेख में हमको दिखाई देती है। चाहे इंदौर में हुए दंगों के सही विश्लेषण के लिए उनकी कलम चली हो। सरकारी कोप की परवाह किए बिना तात्कालिक सरकार की तानाशाही के खिलाफ मामाजी की कलम चली हो, विकृत धर्मनिरपेक्ष, समाज द्रोही राजनीति, तुष्टीकरण आदि सभी विषयों, समस्याओं पर मामाजी ने अपनी कलम से सदैव दिशादर्शन दिया।


भिंड से प्रकाशित साप्ताहिक ‘देशमित्र’ के संपादक के रूप में आपका पत्रकारीय जीवन प्रारंभ हुआ। 1966 में इंदौर से प्रारंभ हुए दैनिक ‘स्वदेश’ की स्थापना से ही आप उसके साथ जुड़े। सन् 1968 से 1985 तक इंदौर स्वदेश के संपादक व प्रधान संपादक के रुप में आपने कार्य किया। इस दौरान आपकी कलम की धाक को पूरे प्रदेश में महसूस किया गया। ‘केरल में मार्क्स नहीं महेश’, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने विधान के आईने में’, ‘समय की शिला पर’ आदि आपकी लेखमालाएं काफ़ी चर्चित रही। स्वदेश- भोपाल, जबलपुर, सागर, रायपुर, बिलासपुर के सलाहकार संपादक तथा ग्वालियर, सतना, गुना, झांसी के प्रधान संपादक के रुप में 1987 से 2005 नई पौध का अंतिम समय तक आपने पथ प्रदर्शन किया।


मामाजी ऐसे फक्कड़, धुनी और ध्येय के प्रति समर्पित पत्रकार रहे, जिन्हें शासन के सम्मान या लाभ की कभी कोई चिंता नहीं रही। पत्रकारिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और समर्पण को किसी भी आकर्षण या प्रलोभन के लिए छोड़ने को वे कभी तैयार नहीं हुए। देश और समाज के प्रति समर्पित कलम ही उनके लिए सर्वोच्च थी। फिर चाहे कोई खुश हो या नाराज, इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की। उनकी कसौटी पर यदि उनके अभिन्न मित्र और पुराने सहयोगी भी खरे नहीं उतरते तो अपने लेखों में उनकी आलोचना करने से भी उन्होंने परहेज नहीं किया। झूठी प्रशंसा या अपने मित्र के भी राष्ट्रीय अपराध को नज़र अंदाज करने का उनका स्वभाव नहीं था।

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समाचारपत्र के महत्त्व व उसकी गुणवत्ता को लेकर मामाजी की बहुत स्पष्ट धारणा थी। वो अक्सर कहा करते थे कि समाचारपत्र का रंग-रोगन या कागज का चिकनापन महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण है उसमें प्रकाशित समाचारों का सटीक, प्रामाणिक व एकदम ताजा होना। मामाजी संपादकीय, अग्रलेखों और संपादक के नाम आए पत्रों को अत्यधिक महत्त्व देते थे। उनका कहना होता था कि ‘संपादकीय तो अख़बार की जान है, वह जितना पढ़ा जाएगा और चर्चित होगा, समझ लो अख़बार उतना ही सफ़ल है’। इसलिए संपादकीय सामयिक और धार-धार होना चाहिए। पाठकों के पत्रों को वे अख़बार की लोकप्रियता का पैमाना मानते थे। संपादक के नाम आए पत्रों को वो अक्सर जनता का संपादकीय कहा करते थे।


माणिकचंद वाजपेयी ने निजी जीवन के अभावों व दुखों को कभी भी अपनी पत्रकारिता पर हावी नहीं होने दिया। प्रत्येक परिस्थिति में उनकी कलम सतत निर्भीक रूप से चलती रही। मामाजी राष्ट्रीय चिंतनधारा, वंदेमातरमवादी, सामाजिक समरसता समन्वय और संस्कार की सनातनी परंपरा के प्रखर प्रवक्ता बने और स्वदेश उसका मुखपत्र बना। इतना ही नहीं, उन्होंने स्वयं को राष्ट्रीय विचारधारा के प्रवाह में एक मिशनरी की तरह अपने जीवन को विसर्जित कर दिया। उन्होंने अपना जीवन एक अध्यापक, प्राचार्य, संघ के प्रचारक, स्वदेश के संपादक तथा अनेकों सामाजिक संस्थाओं को संचालित करने में लगाया था। वास्तव में वे वैचारिक पत्रकारिता के सदा अग्रज रहे।


जीवन का ध्येय व लक्ष्य ही जीवन में प्राथमिकताओं को तय करता है। उसी के आधार पर हम करणीय व अकरणीय के बीच के भेद को समझ पाते है। मामाजी के लिए इस विषय में कभी कोई असमंजस नहीं रहा, राष्ट्र सर्वोपरि का मूलमंत्र ही सदैव उनकी लेखनी का आधार रहा। उनकी लेखनी न झुकी, न रुकी ओर न ही कभी थकी। वह तो निष्काम कर्मयोगी की तरह सदा चलती ही रही। समसामयिक या राष्ट्र केन्द्रित विषयों को अपनी लेखमी के माध्यम से विश्लेषण करते हुए, उसे जनसाधारण के सामने सरल व दिल तक छू जाने वाली भाषा का प्रयोग कर, करोड़ों-करोड़ों मनों तक पहुँचने का कार्य का निर्वहन भी उनकी लेखनी का अंतिम समय तक सातत्य बना रहा। मामाजी के ध्येय समर्पित पत्रकारीय जीवन को ये पंक्तियां वास्तव में चरितार्थ करती हुई दिखती है, “जिए जब तक लिखे ख़बरनामे, चल दिए हाथ में कलम थामे”।     


-डॉ. पवन सिंह मलिक

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक हैं)

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