Matrubhoomi: 'कर्नाटक की लक्ष्मीबाई' ने अंग्रेजों के खिलाफ किया था सशत्र विद्रोह, दत्तक पुत्र को सौंपना चाहती थी राजपाठ

By अनुराग गुप्ता | Mar 15, 2022

आजाद भारत का सपना महज कल्पना मात्र नहीं थी यह सभी को पता है क्योंकि भारत में लोकतांत्रिक सरकार है, जो देशवासियों के बेहतर भविष्य के लिए कार्य कर रही है लेकिन भारतीयों ने 150 सालों तक अंग्रेजों की गुलामी सही है। इस दौरान भारतीयों के साथ अत्याचार और क्रूरता का होना आम बात थी। मगर कहते हैं कि दुष्ट तभी तक दुष्ट होता है जब तक सामने वाला व्यक्ति उसे दुष्टता करने की अनुमति दे लेकिन इस धरा के सपूतों ने ठान लिया कि हम इन अत्याचारों को नहीं सहेंगे और फिर स्वतंत्रता की गाथा की शुरुआत हुई। 

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ऐसे में जब भारत अपनी आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तो हम आपको इस धरा की पहली वीरांगना की कहानी सुनाने जा रहे हैं, जिन्होंने 20,000 अंग्रेजों और 400 बंदूकधारियों को परास्त किया और ईस्ट इंडिया कंपनी की रातों की नींद हराम कर दी थी। यही वो पहली स्वतंत्रता प्रिय महिला थीं जिन्होंने आजाद भारत के सपने की नींव रखी थी। इन्हें रानी चेन्नम्मा के नाम से जाना जाता है।

कौन हैं रानी चेन्नम्मा ?

आपको बता दें कि रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर, 1778 को ककाती में हुआ था। जो कर्नाटक के बेलगावी जिले में स्थित है। उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई। इस दंपत्ति का एक बेटा हुआ जिसकी साल 1824 में मृत्यु हो गई थी। अपने बेटे की मृत्यु के बाद उन्होंने एक पुत्र को गोद ले लिया था।

कर्नाटक के कित्तूर की रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशत्र विद्रोह किया। उनके गोद लिए बेटे को न स्वीकार करते हुए अंग्रेजों ने साल 1824 में कित्तूर में हमला किया। जिसका बड़े जोश, कौशल और साहस के साथ रानी चेन्नम्मा ने सामना किया। जिसकी वजह से अंग्रेजों को युद्धस्थल से भागना पड़ा। इस युद्ध में अंग्रेजों के 20,000 सिपाही और 400 बंदूकधारियों ने हिस्सा लिया। जिन्हें रानी चेन्नम्मा ने अपने सेनापति बल्लप्पा के साथ मिलकर भागने के लिए मजबूर कर दिया था।

इस दौरान रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश सेना के दो प्रमुख अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया था। जिनमें वाल्टर इलियट और मिस्टर स्टीवेन्सन शामिल थे। उस वक्त ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और रानी चेन्नम्मा के बीच एक करार हुआ था। जिसमें अंग्रेजों ने वादा किया था कि अब कित्तूर में युद्ध नहीं लड़ेंगे। जिसके आधार पर दोनों अधिकारियों को छोड़ दिया गया था। उस वक्त राज्य में जश्न का माहौल था। रानी चेन्नम्मा के कौशल की चौतरफा प्रशंसा हो रही थी और कुछ वक्त के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भी खामोश था लेकिन पीठ पर छूरा भोंकने की तो पुरानी आदात भी थे। 

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ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुछ वक्त बाद करार को तोड़ते हुए कित्तूर में हमला बोल दिया। इस दौरान रानी चेन्नम्मा ने बहादुरी के साथ अंग्रेजों का सामना किया लेकिन वो सफल नहीं हो पाई थीं और उन्हें पकड़ लिया गया था। लेकिन उनके हौसलों ने महिलाओं को खड़े होने के लिए तत्पर कर दिया था।

21 फरवरी, 1829 में रानी चेन्नम्मा का स्वर्गवास हो गया। उनके निधन होने तक संगोली रायन्ना तक गोरिल्ला युद्ध जारी रखा था। रानी चेन्नम्मा अपने दत्तक पुत्र शिवलिंगप्पा को कित्तूर का राजा बनाना चाहती थीं लेकिन वो सफल नहीं हो पाईं और शिवलिंगप्पा को बंदी बनाकर मार दिया गया था।

भले ही रानी चेन्नम्मा का स्वर्गवास हो गया लेकिन अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद करके इतिहास में अमर हो गईं और लोगों को सशक्त कर दिया। हर साल कित्तूर में रानी चेन्नम्मा के सम्मान में 'कित्तूर उत्सव' मनाया जाता है। उनके सम्मान में राष्ट्रीय राजधानी स्थित संसद भवन में उनकी मूर्ति भी स्थापित की गई है।

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