By अमृता गोस्वामी | Sep 23, 2022
हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर को उनकी राष्ट्र प्रेम और ओजस्वी कविताओं के लिए एक जनकवि के साथ-साथ राष्ट्रकवि के नाम से भी जाना जाता है। आजादी की लड़ाई से लेकर आजादी मिलने के बाद तक उनकी लिखी कविताएं, उनके लिखे लेख, निबंध, लोगों में आजादी के प्रति, संस्कृति के प्रति जोश जगाने वाले रहे।
कवि दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था। मात्र तीन साल की छोटी सी उम्र में उनके सिर से पिता का साया उठ गया था जिसके कारण उनका बचपन कठिनाइयों में बीता। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1928 में दिनकर पटना आ गए, यहां इतिहास में ऑनर्स के साथ 1932 में उन्होंने बीए किया और एक स्कूल में प्रधानाध्यापक पद पर नियुक्त हुए। 1934 में दिनकर को बिहार सरकार के अधीन सब रजिस्ट्रार की नौकरी मिली। लोकतंत्र की अलख जगाती क्रांतिकारी हुंकार भरी दिनकर की कविताओं से अंग्रेज भी घबराते थे यही वजह थी कि सब रजिस्ट्रार पद पर सेवा के दौरान प्रथम चार वर्षों में अंग्रजी शासन ने 22 बार उनका ट्रांसफर किया ताकि वे नौकरी छोड़ दें।
कवि दिनकर की प्रारंभिक रचनाएं उनके काव्य संग्रह ‘प्राणभंग’ और ‘विजय संदेश’ थे जो उन्होंने 1928 में लिखे थे। इसके बाद दिनकर ने कई प्रसिद्ध रचनाएं लिखीं जिनमें रेणुका, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’, ‘हुंकार’ और ‘उर्वशी’ काफी प्रचलित रचनाएं हैं। दिनकर के लिखे निबंधों में अर्धनारीश्वर, रेती के फूल, वेणुवन, वटपीपल, आधुनिक बोध इत्यादि प्रसिद्ध निबंध संग्रह हैं। उनकी लिखी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ काफी चर्चित रही जिसे 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया।
हिन्दी के अलावा कवि दिनकर उर्दू, संस्कृत, मैथिली और अंग्रेजी भाषा के भी अच्छे जानकार थे। 1947 में वे प्रचार विभाग के उपनिदेशक और फिर मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष बने। वर्ष 1952 में दिनकर को राज्यसभा के सदस्य के लिए चुना गया और 12 वर्षों तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे। वे भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति और भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार भी बने।
कविता रचने का भाव रामधारी सिंह दिनकर के मन में उनके घर में प्रतिदिन होने वाले रामचरित मानस के पाठ को सुनकर जागा। पहले जहां छायावादी कविताओं का बोलबाला था दिनकर ने हिंदी कविताओं को छायावाद से मुक्ति दिलाकर आम जनता के बीच पहुंचाने का काम किया। दिनकर ने अधिकतर कविताएं वीर रस में लिखीं। जनवादी, राष्ट्रवादी कविताओं के अलावा दिनकर ने बच्चों के लिए भी बहुत ही सुंदर कविताओं की रचना की। बच्चों के लिए लिखी उनकी कविताओं में ‘चांद का कुर्ता’, ‘सूरज की शादी’, ‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ इत्यादि प्रमुख हैं।
दिनकर की सशक्त लेखनी के लिए उन्हें कई नामी पुरस्कार साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ इत्यादि से सम्मानित किया गया। 1968 में उन्हें राजस्थान विद्यापीठ ने साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें वर्ष 1972 में उनकी काव्य रचना ‘उर्वशी’ के लिये प्रदान किया गया। हरिवंश राय बच्चन ने उनके लिए कहा था कि दिनकर जी को एक नहीं चार ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने चाहिए थे, जो उनकी गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी के सेवा के लिए अलग-अलग दिए जाते।
‘उर्वशी’ लिखते समय दिनकर बीमार रहने लगे थे और डॉक्टरों ने उन्हें लिखने से मना कर दिया था। इसके बावजूद उन्होंने इस किताब को पूरा किया। 24 अप्रैल, 1974 को कवि दिनकर का निधन हो गया। उनकी मृत्यु के पश्चात वर्ष 1999 में भारत सरकार ने उनके नाम से डाक टिकट भी जारी किया।
आज 23 सितंबर कवि दिनकर जी के जन्मदिन के अवसर पर आइए नजर डालते हैं उनकी लिखी कुछ कविताओं पर-
मंजिल दूर नहीं है-
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।।
चिनगारी बन गई लहू की, बूँद गिरी जो पग सेय
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण-चिह्न जगमग-से।
शुरू हुई आराध्य-भूमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही
और नहीं तो पाँव लगे हैं, क्यों पड़ने डगमग-से?
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।
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चांद का कुर्ता
हार कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर चैड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’
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कृषक
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है।
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है ।।
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है ।
वसन कहाँ, सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।।
बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं ।
बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं।।
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इनके अलावा याद करते हैं उन पंक्तियों को भी जो बिहार में ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन में क्रांति का गीत बन गई थीं-
सदियों की ठंडी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
- अमृता गोस्वामी