पद की लालसा किये बगैर सदैव देशसेवा में लगी रहीं राजमाता विजयाराजे सिंधिया

By डॉ. अजय खेमरिया | Oct 12, 2021

ग्वालियर के जिस जयविलास पैलेस को लोग दुनियाभर से देखने आते हैं उसे राजमाता विजयाराजे सिंधिया जीवाजी विश्वविद्यालय को दान करना चाहती थीं ताकि ग्वालियर रियासत के बच्चों को बेहतर उच्च शिक्षा मुहैया हो सके। जय विलास महल दुनिया के सबसे महंगे और आकर्षक महलों में एक है लेकिन राजमाता को इसके कंगूरे, परकोटा, ऐतिहासिक झूमर, डायनिंग टेबल पर चलती खाने की ट्रेन, घोड़े बग्गी, और शाही वैभव के दूसरे दस्तूर कतई प्रभावित नहीं करते थे। ऐसा लगता था कि राजमाता सिंधिया ने खुद को सांसारिक सुख सुविधाओं से काफी ऊपर उठा लिया था। राजमाता सिंधिया भारतीय जनता पार्टी की संस्थापक सदस्य थीं। उन्होंने मध्य प्रदेश में संघ और बीजेपी के विस्तार के लिये अपने शाही प्रभाव और ताकत का खुलकर उपयोग किया।


हमारे मौजूदा लोकतंत्र में उनके जैसे व्यक्तित्व बिरले ही हैं जिन्होंने पद की अभिलाषा को कभी भी खुद की मौलिकता पर हावी नहीं होने दिया। आज राजमाता विजयाराजे सिंधिया की राजनीतिक विरासत संभाल रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया, वसुंधरा राजे सिंधिया, यशोधरा राजे बीजेपी में ताकतवर नेताओं में शुमार हैं। लेकिन सवाल यह है कि भारतीय राजनीति में राजमाता का वैशिष्ट्य क्या ? क्यों केंद्र सरकार ने उनके जन्मशताब्दी वर्ष को सरकारी और पार्टी स्तर पर मनाया था पिछले साल। इसका जवाब बीजेपी में अटल, आडवाणी, जोशी, ठाकरे, प्यारेलाल युग के नेता बहुत ही प्रामाणिक तरीके से दे सकते हैं। इस पीढ़ी के नेताओं ने विजयाराजे सिंधिया को जनसंघ, बीजेपी और संघ के मामलों में अपना सब कुछ दांव पर लगाते हुए देखा है। इसलिये संभव है आज की पीढ़ी राजमाता को सिर्फ इतना भर जानती हो कि वे वसुन्धरा राजे और स्व. माधवराव सिंधिया, यशोधरा राजे की मां हैं। लेकिन राजमाता के व्यक्तित्व का कैनवास बहुत बड़ा था। वे भारत मे जेन्डर केस स्टडी भी हैं।


दुर्भाग्य से राजमाता सिंधिया को उनके राजनीतिक वारिसों ने एक सीमित दायरे में कैद कर दिया है। बीजेपी संगठन के मंचों पर राजमाता के चित्र पर रस्मी माल्यार्पण के अलावा पार्टी में राजमाता को लेकर कोई विमर्श नवीसी का भाव नजर नहीं आता है। उनके परिवार के ताक़तवर सदस्य भी सिर्फ उन्हें त्याग, तपस्या की देवी की तरह पूजने के कुछ लोगों के प्रायोजित और विचारशून्य उपक्रम से खुश रहते हैं। हर साल एक टैग लाइन चला दी जाती है "त्याग और वात्सल्य की मूर्ति- राजमाता। क्या राजमाता सिंधिया सिर्फ त्याग की और कतिपय वात्सल्य की मूर्ति थीं? जैसा उनके कुछ अनुयायियों द्वारा दावा किया जाता है। हकीकत यह है कि राजमाता को लेकर यह उनका सतही मूल्यांकन है त्याग तो उन्होंने किया यह तथ्य है। वह चाहतीं तो 1967 में ही मप्र की मुख्यमंत्री बन सकती थीं, 1977, 1989 में फिर उनके पास यही अवसर विनय की मुद्रा लिए खड़े थे। 1996, 1998, 1999 में वह भी राष्ट्रपति भवन में मंत्री पद की शपथ ले सकती थीं। वह खुद भैरोंसिंह शेखावत की जगह उपराष्ट्रपति हो सकती थीं। बीजेपी की राष्ट्रीय अध्यक्ष तो जब चाहतीं तब बन सकती थीं। लेकिन राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने इन सभी अवसरों को दूसरों के लिये छोड़ दिया।

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यह उनके राजनीतिक त्याग की मिसाल ही है। वाकई आज की पीढ़ी में यह त्याग भाव असंभव है। इसलिये इस त्याग भाव को केवल पूजने से काम नहीं चलेगा, आवश्यकता आज इस बात की है कि उनके इस त्याग भाव को समाज के सामान्य जनजीवन में स्थापित कैसे किया जाए ? इसे सोशल ट्रांसफॉर्मेशन की केस स्टडी बनाकर कैसे आगे बढ़ाया जाए ? क्योंकि इसी भावना के लोप ने आज की सियासत को गंदा कर दिया है। सवाल यह है कि राजमाता को क्या सिर्फ बीजेपी की एक दिग्गज नेत्री के रूप याद किया जाना चाहिये ? असल में राजमाता सिंधिया जम्हूरियत में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना, लोकशाही और राजशाही के बीच अद्भुत समन्यव थीं। शाही वैभव के बावजूद सत्ता से सदैव दूरी बनाने, पितृसत्ता को सफलतापूर्वक जमींदोज करने वाली शख्सियत के रूप में उन्हें याद किया जाना चाहिये। राजमाता सिर्फ दूसरे राजाओं की तरह अपनी रियासतों और सुख सविधाओं को बचाने के लिये परकोटे से बाहर नहीं आई थी उनका अपना सामाजिक राजनीतिक चिंतन था इसलिये वे राजनीति में नेहरू की पहल पर कांग्रेस में शामिल तो हुईं लेकिन सत्ता की हनक के आगे जब राजमाता ने आम आदमी खासकर अपनी पुरानी रियासत में (छात्र आंदोलन) दमनभाव को देखा तो भारत की राजनीति के सबसे मजबूत मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा से भिड़ने में लेश मात्र संकोच नही किया। क्या आज के नेता यह साहस कर सकते हैं ?


भारत के संसदीय इतिहास में राजमाता प्रेरित ऑपरेशन डीपी मिश्रा सियासत में नारी शक्ति की स्वतंत्र ताकत का ही प्रदर्शन था। सियासत में संयम और शालीनता के गायब हो चुके अपरिहार्य तत्व की तालीम आज के सियासी लोग उनसे हासिल कर सकते हैं। डीपी मिश्रा की सर्वशक्तिमान सरकार को गिराने के बावजूद उन्होंने अहंकार को अपने सियासी शिष्टाचार में कभी फटकने भी नहीं दिया। मृत्यु पर्यंत उनका सम्मान भारत के सभी राजनीतिक दलों में अनुकरणीय हद तक बना रहा। इंदिरा गांधी की सत्ता को भी उन्होंने खुलेआम चुनौती दी। लेकिन उनका राजनीतिक विरोध सदैव नीतिगत रहा। डीपी मिश्रा ने पचमढ़ी के अधिवेशन में उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया लेकिन उन्होंने इसका बदला पूरे संसदीय तरीके से लिया। असल में राजमाता का मूल्यांकन सिर्फ राजनीतिक नजरिये से नहीं किया जा सकता है वे शाही परकोटे में जनता की महारानी थीं जिनकी ताकत रियासतों की रवायतों से नहीं उनके सतत सम्पर्क और नए भारत में शाही लोगों को लोकतांत्रिक तरीके से विश्वास हासिल करने के भरोसे में टिकी थी।


यही कारण है कि वे भारत में रियासतों के लोकतन्त्रीकरण की प्रतीक रही हैं। यही वजह है कि उनके परिवार का संसदीय दखल आज 70 साल बाद भी बरकरार है। उनकी राजनीतिक ताकत जिसे आज इस अर्थ में समझने की जरूरत है कि पद, प्रतिष्ठा और धन ही इस कार्य का अंतिम ध्येय नहीं है। उनका सांस्कृतिक पक्ष जो खुलकर अपनी धार्मिक मान्यताओं और अस्मिता पर गर्व करना सिखाता है। उनका उदारमना व्यक्तित्व जो समाज के सबसे कमजोर और काबिल लोगों को अपनी प्रतिभा प्रकटीकरण का अवसर उपलब्ध कराता था। उमा भारती से लेकर मप्र की राजनीति में अनेक स्थापित चेहरे राजमाता की छत्रछाया में विकसित हुए। क्या इस शाही शख्सियत के इन पक्षों को प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता आज की राजनीति महसूस नहीं करती है ? उनकी जन्म जयंती पर जितनी जवाबदेही सरकार की है, इन मूल्यों को प्रचारित और आत्मसात करने की उतनी ही उनके वारिसों की भी क्योंकि राजमाता और उनके राजनीतिक फॉलोअर्स में बड़ा बुनियादी अंतर है। जिस भरोसे के रिश्ते को राजमाता ने खुद आगे आकर गढ़ा था वह आज नजर नहीं आता है। इसी भरोसे के संकट से देश की राजनीति भी जूझ रही है। इसलिए राजमाता के व्यक्तित्व को सतही और सरकारी आवरण से बाहर निकालकर नई पीढ़ी को रूबरू कराने की आवश्यकता है क्योंकि ये क्षत्राणी भारत के लोकजीवन की एक केस स्टडी भी है।


-डॉ. अजय खेमरिया

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