दलितों को भड़काने वाले चंद्रशेखर का समर्थन कर फिर से गलती कर रही हैं प्रियंका गांधी

By अजय कुमार | Aug 23, 2019

21वीं सदी का भारत काफी बदला हुआ है। समाज में असमानता और छूआछूत जैसी रूढ़िवादी सोच धीरे−धीरे दम तोड़ रही है। सब साथ चल रहे हैं। देशहित में यह जरूरी भी है, लेकिन इसी समाज में एक धड़ा (जिसे गैंग भी कहा जा सकता है) ऐसा भी है जो अपनी सियासी रोटियां सेंकने के लिए तरह−तरह के हथकंडे अपना कर ऊंच−नीच, जातिवादी आदि की खाई को चौड़ी करता रहता है। यह गैंग ऐसी किसी भी जगह अपनी 'टांग' फंसा देता है जहां उसे लगता है कि उसकी सियासत चमक सकती है। यह 'गैंग' बड़ी चालाकी से समाज में जहर घोलने का काम करता है। ऐसे 'गैंग' के 'सरगना' को तब नई 'ऊर्जा' मिल जाती है जब उसे कोई दल राजनैतिक संरक्षण देने लगता है। कौन भूला होगा, लोकसभा चुनाव के समय का वह दृश्य जब भीम आर्मी के उत्पाति चन्द्रशेखर आजाद से मिलने प्रियंका वाड्रा गांधीनगर से सीधे मेरठ के उस अस्पताल में पहुंच गई थीं, जहां 'घायल' चन्द्रशेखर अपना इलाज करा रहे थे। यह और बात थी कि प्रियंका के तमाम पैंतरे काम नहीं आए और कांग्रेस यूपी में एक ही सीट पर सिमट गई थी। राहुल स्वयं चुनाव हार गए, लेकिन प्रियंका ने सबक नहीं लिया। आज भी वह चन्द्रशेखर के साथ खड़ी नजर आ रही हैं। प्रियंका की नजर यूपी के दलित वोटरों पर है जिसे मायावती अपनी जागीर समझती हैं।

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बहरहाल, एक बार फिर भीम आर्मी के चीफ चन्द्रशेखर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दिल्ली में ढहाए गए संत रविदास मंदिर के विरोध में सड़क पर उद्दंडता करने के चलते चर्चा में हैं और उन्हें कांग्रेस के तमाम अन्य नेताओं के साथ प्रियंका वाड्रा और आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं का सियासी साथ भी मिल रहा है। चन्द्रशेखर और उसके समर्थकों ने दलितों के आंदोलन के नाम पर जिस तरह सड़क पर उद्दंडता की, गाड़ियों में तोड़फोड़ की, उसे किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

 

दरअसल, चन्द्रशेखर जैसे तमाम नेताओं में दलितों के नाम पर दबंगई करने की प्रवृति बढ़ती जा रही है। एक तरफ अपने आप को दलित बताना, दूसरी ओर दलितों के नाम पर गुंडागर्दी करना किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है। दलित को किसी समाज के साथ जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। आलीशान बंगलों, मंहगी गाड़ियों और लग्जरी लाइफ जीने वालों को किसी भी तरह से दलित नहीं कहा जा सकता है। दलितों के नाम पर सियासत करने वालों को पहले दलित का अर्थ समझना चाहिए। दलित वह होता है जो सामाजिक रूप से पीड़ित, शोषित, दबा−कुचला, पिसा, मसला, रौंदा, विनष्ट हुआ होता है।

 

आज भले ही दलित का अर्थ एक वर्ग विशेष तक सीमित होकर रह गया हो, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था। हजारों वर्षों तक अस्पृश्य या अछूत समझी जाने वाली उन सभी शोषित जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त होता था जिन्हें संवैधानिक भाषा में अब अनुसूचित जाति कहा जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि कोई व्यक्ति दलित का ठप्पा लगा कर देश को अराजकता के माहौल में नहीं ढकेल सकता है। चन्द्रशेखर जैसे लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, जो दलितों को उकसाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।

 

खैर, बात दलित सियासत की करें तो आज चन्द्रशेखर जिस तरह की सियासत कर रहे हैं, उसी तरह की सियासत मायावती भी करती हैं। यह और बात है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर संत रविदास का मंदिर ढहाये जाने के बाद मायावती ने कोई तीखी प्रतिक्रिया तब तक नहीं दी, जब तक चन्द्रशेखर का नाम चर्चा में नहीं आया। हिंसा हुई तो मायावती ने साफ कर दिया कि वह आंदोलन में किसी भी तरह की हिंसा की पक्षधर नहीं हैं। इस घटना पर मायावती ने एक के बाद एक तीन ट्वीट किए, जिसमें उन्होंने बसपा के शांतिपूर्वक प्रदर्शन की वकालत की और हिंसा से बसपा को अलग बताया। रविदास मंदिर ढहाए जाने के विरोध में हुई तोड़फोड़ को अनुचित बताते हुए मायावती ने कहा कि उनकी पार्टी का इससे कोई लेना−देना नहीं है। तोड़फोड़ की घटनाएं अनुचित हैं। बसपा संविधान और कानून का हमेशा सम्मान करती है। वह कानून के दायरे में रहकर ही संघर्ष करती है। मायावती ने अपने कार्यकर्ताओं को संदेश दिया है कि अगर सरकार धारा 144 के तहत कहीं प्रवेश पर प्रतिबंध लगाती है तो कार्यकर्ता उसका उल्लंघन ना करें और घटनास्थल पर जबरन जाने की कोशिश ना करें।

 

यह और बात थी कि मायावती ने एक भी शब्द घटना की निंदा के लिए नहीं कहा। कहा यह जा रहा है कि बसपा सुप्रीमो मायावती दिल्ली की इस घटना में दलितों के हक में उठ रही दूसरी आवाज से असहज हैं। दलित मूवमेंट से निकलने वाली मायावती को दलितों की सबसे बड़ी नेता के तौर पर मान्यता दी जाती है। मायावती लगातार इस कोशिश में रहती हैं कि उनके अलावा कोई दूसरा दलित चेहरा आगे नहीं आए। इसीलिए दलितों के हक में नई आवाज बनकर उभरे भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर का चेहरा मायावती को हमेशा ही खटकता रहा है। मायावती समय−समय पर चन्द्रशेखर को लेकर अपना विरोध दर्ज कराती रहती हैं। चंद्रशेखर ने मायावती को बुआ कहा तो मायावती ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने यह तक कहने में देर नहीं लगाई कि उनका इस तरह के किसी भी व्यक्ति से कोई वास्ता नहीं है।

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बात बसपा सुप्रीमो मायावती की चिंता की करें तो मौजूदा दौर में दलित राजनीति बसपा के बस की बात नहीं लग रही है। मायावती समय के साथ−साथ कमजोर पड़ रही हैं। वहीं, दूसरी तरफ चंद्रशेखर लगातार आंदोलन की राह पर चल रहे हैं। कई मामलों में मुखरता और जमीन पर विरोध करने की वजह से उन्हें जेल तक जाना पड़ा। दलितों के हक में उनकी जुझारू और लड़ाकू इमेज युवाओं को रोमांचित कर रही है। युवाओं में उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है। यह भी मायावती को रास नहीं आ रहा। वजह है कि बसपा ने गठन के बाद अब तक स्टूडेंट विंग पर काम नहीं किया। नेता दलित मूवमेंट से होते हुए सीधे बसपा में आते हैं। वहीं, हाल ही में चंद्रशेखर ने भीम आर्मी की स्टूडेंट विंग (बीएएसएफ) लॉन्च की। दलितों की पहली छात्र इकाई के तौर पर यह संगठन दलित युवाओं और छात्रों को बसपा से दूर ले जा सकता है।

 

लब्बोलुआब यह है कि दलित 'लबादा' पहन कर अगर कोई दलितों के हित के नाम पर राजनीति करता है तो उसमें उसके अपने स्वार्थ छिपे होते हैं। ऐसे लोग न तो समाज का भला कर सकते हैं, न ही देश के काम आ सकते हैं। दलित समाज को ऐसे लोगों से सतर्क रहना होगा जो दलित मानसिकता को हमेशा खाद्य−पानी देते रहते हैं। दलितों की बात करने वाले चाहें चन्द्रशेखर हो या फिर उदित राज, यह लोग दलितों की बात करते−करते करोड़ों में खेलने लगे, मंहगी सम्पतियां इकट्ठा कर लीं। इनका पूरा कुनबा ऐशो−आराम से रहता है, किसी दलित की चौखट पर यह पैर भी नहीं रखते होंगे। ऐसे नेताओं की नीयत को समझ कर उन्हें हासिये पर डालना जरूरी है। दलितों का भला बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर और मान्यवर कांशीराम की विचारधारा पर चल कर ही हो सकता है।

 

-अजय कुमार

 

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