By प्रवीण गुगनानी | Sep 25, 2021
महान दार्शनिक प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु अरस्तु ने कहा था- "विषमता का सबसे बुरा रूप है विषम चीजों को एक समान बनाने का प्रयत्न करना।" The worst form of inequality is to try to make unequal things equal. एकात्म मानववाद, विषमता को इससे बहुत आगे के स्तर पर जाकर हमें समझाता है।
भारत को देश से बहुत अधिक आगे बढ़कर एक राष्ट्र के रूप में और इसके निवासियों को नागरिक नहीं अपितु परिवार सदस्य के रूप में मानने के विस्तृत दृष्टिकोण का अर्थ है एकात्म मानववाद। मानवीयता के उत्कर्ष की स्थापना यदि किसी राजनैतिक सिद्धांत में हो पाई है तो वह है पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय का एकात्म मानववाद का सिद्धांत। अपने एकात्म मानववाद को दीनदयालजी सैद्धांतिक स्वरूप में नहीं बल्कि आस्था के स्वरूप में लेते थे। इसे उन्होंने राजनैतिक सिद्धांत के रूप में नहीं बल्कि आत्मिक भाव के रूप में जन्म दिया था। अपने एकात्म मानववाद के अर्थों को विस्तारित करते हुए ही उन्होंने कहा था-“हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज करने वाले विदेशी थे, अपितु इसलिए भी कि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था।''
आज यदि दिल्ली का शासनकर्ता अंग्रेज के स्थान पर हममें से ही एक, हमारे ही रक्त और मांस का एक अंश हो गया है तो हमको इसका हर्ष है, संतोष है, किन्तु हम चाहते हैं कि उसकी भावनाएं और कामनाएं भी हमारी भावनाएं और कामनाएं हों। जिस देश की मिट्टी से उसका शरीर बना है, उसके प्रत्येक रजकण का इतिहास उसके शरीर के कण-कण से प्रतिध्वनित होना चाहिए। ॐ के पश्चात ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक सूक्ष्म बोधवाक्य “जियो और जीने दो” को “जीने दो और जियो” के क्रम में रखने के देवत्व धारी आचरण का आग्रह लिए वे भारतीय राजनीति विज्ञान के उत्कर्ष का एक नया क्रम स्थापित कर गए। व्यक्ति की आत्मा को सर्वोपरि स्थान पर रखने वाले उनकें सिद्धांत में आत्म बोध करने वाले व्यक्ति को समाज का शीर्ष माना गया। आत्म बोध के भाव से उत्कर्ष करता हुआ व्यक्ति, सर्वे भवन्तु सुखिनः के भाव से जब अपनी रचना धर्मिता और उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग करे, तब एकात्म मानववाद का उदय होता है, ऐसा वे मानते थे।
देश और नागरिकता जैसे आधिकारिक शब्दों के सन्दर्भ में यहाँ यह तथ्य पुनः मुखरित होता है कि उपरोक्त वर्णित व्यक्ति देश का नागरिक नहीं बल्कि राष्ट्र का सेवक होता है। पाश्चात्य भौतिकता वादी विचार जब अपने चरम की ओर बढ़ने की पूर्वदशा में था तब पंडित जी ने इस प्रकार के विचार को सामने रखकर वस्तुतः पश्चिम से वैचारिक युद्ध का शंखनाद किया था। उस दौर में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर विचारों और अभिव्यंजनाओं की स्थापना, मंडन-खंडन और भंजन की परस्पर होड़ चल रही थी। विश्व मार्क्सवाद, फासीवाद, अति उत्पादकता का दौर देख चुका था और महामंदी के ग्रहण को भी भोग चुका था। वैश्विक सिद्धांतों और विचारों में अभिजात्य और नव अभिजात्य की सीमा रेखा आकार ले चुकी थी तब सम्पूर्ण विश्व में भारत की ओर से किसी राजनैतिक सिद्धांत के जन्म की बात को भी किंचित असंभव और इससे भी बढ़कर हास्यास्पद ही माना जाता था। अंग्रेज शासन काल और अंग्रेजोत्तर काल में भी हम वैश्विक मंचों पर हेय दृष्टि से और विचारहीन दृष्टि से देखे और माने जाते थे।
निश्चित तौर पर हमारा स्वातंत्र्योत्तर शासक वर्ग या राजनैतिक नेतृत्व जिस प्रकार पाश्चात्य शैलियों, पद्धतियों, नीतियों में जिस प्रकार डूबा-फंसा-मोहित रहा उससे यह हास्य और हेय भाव बड़ा आकार लेता चला गया था। तब उस दौर में दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानव वाद के सिद्धांत की गौरवपूर्ण रचना और उद्घोषणा की थी। 1940 और 1950 के दशकों में विश्व में मार्क्सवाद से प्रभावित और लेनिन के साम्राज्यवाद से जनित “निर्भरता का सिद्धांत” राजनैतिक शैली हो चला था। निर्भरता का सिद्धांत Dependency Theory यह है कि संसाधन निर्धन या अविकसित देशों से विकसित देशों की ओर प्रवाहित होते हैं और यह प्रवाह निर्धन देशों को और अधिक निर्धन करते हुए धनवान देशों को और अधिक धनवान बनाता है। इस सिद्धांत से यह तथ्य जन्म ले चुका था कि राजनीति में अर्थनीति का व्यापक समावेश होना ही चाहिए।
संभवतः पंडित दीनदयाल जी ने इस सिद्धांत के उस मर्म को समझा जिसे पश्चिमी जगत कभी समझ नहीं पाया। पंडित जी ने निर्भरता के इस कोरे शब्दों वाले सिद्धांत में मानववाद नामक आत्मा की स्थापना की और इसमें से भौतिकतावाद के जिन्न को बाहर ला फेंका !! राजनीति को अर्थनीति से साथ महीन रेशों से गूंथ देना और इसके समन्वय से एक नवसमाज के नवांकुर को रोपना और सींचना यही उनका मानववाद था, भौतिकता से दूर किन्तु मानव के श्रेष्ठतम का उपयोग और उससे सर्वाधिक उत्पादन। फिर उत्पादन का राष्ट्रहित में उपयोग और राष्ट्रहित से अन्त्योदय का ईश्वरीय कार्य यही एकात्म मानववाद का चरम हितकारी रूप है।
इस परिप्रेक्ष्य का अग्रिम रूप देखें तो स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि “अर्थ का अभाव और अर्थ का प्रभाव” के माध्यम से वे विश्व की राजनीति में किस तत्व का प्रवेश करा देना चाहते थे। यद्यपि उनके असमय निधन से विश्व की राजनीति उस समय उनके इस प्रयोग के कार्यरूप को देखने से वंचित रह गई तथापि सिद्धांत रूप में तो वे उसे स्थापित कर ही गए थे। उस दौर में विश्व की सभी सभ्यताएं और राजनैतिक प्रतिष्ठान धन की अधिकता और धन की कमी से उत्पन्न होने वाली समस्याओं से संघर्ष करती जूझ रही थीं, तब उन्होंने भारतीय दर्शन आधारित व्यवस्थाओं के आधार पर धन के अर्जन और उसके वितरण की व्यवस्थाओं का परिचय शेष विश्व के सम्मुख रखा। उस दौर में पूर्वाग्रही और दुराग्रही राजनीति के कारण उनकी यह आर्थिक स्वातंत्र्य की सीमा की अवधारणा को देखा पढ़ा नहीं गया किन्तु (मजबूरी वश ही सही) आर्थिक विवेक के उनके सिद्धांत को भारतीय अर्थतंत्र में यदा कदा पढ़ने सुनने और व्यवहार में लाने के प्रयास भी होते रहे। यह अलग बात है कि इन प्रयासों में पंडितजी के नाम से परहेज करनें का पूर्वाग्रह यथावत चलता रहा।
नागरिकता से परे होकर “राष्ट्र एक परिवार” के भाव को आत्मा में विराजित करना और तब परमात्मा की ओर आशा से देखना यह उनकी एकात्मता का शब्दार्थ है। इस रूप में हम राष्ट्र का निर्माण ही नहीं करें अपितु उसे परम वैभव की ओर ले जाएँ यह भाव उनके सिद्धांत के एक शब्द “एकात्मता” में प्राण स्थापित करता है। मानववाद वह है जो ऐसी प्राणवान आत्मा से निसृत होकर निर्झर की तरह एक शक्ति पुंज के रूप में सम्पूर्ण राष्ट्र में मुक्त भाव से बहे, अर्थात अपनी सम्पूर्ण क्षमता और प्राणपण से उत्पादन करे और राष्ट्र को समर्पित कर दे। स्वयं भी सामंजस्य और परिवार बोध से उपभोग करता हुआ विकास पथ पर अग्रसर रहे। एकात्मता में सराबोर होकर मानववाद की ओर बढ़ता यह एकात्म मानववाद अपने इस ईश्वरीय भाव के कारण ही अन्त्योदय जैसे परोपकारी राज्य भाव को जन्म दे पाया। हम इस चराचर ब्रह्माण्ड या पृथ्वी पर आधारित रहें, इसका शोषण नहीं बल्कि पुत्रभाव से उपयोग करें किन्तु इससे प्राप्त संसाधनों को मानवीय आधार पर वितरण की न्यायसंगत व्यवस्थाओं को समर्पित करते चलें यह अन्त्योदय का प्रारम्भ है। अन्त्योदय का चरम वह है जिसमें व्यक्ति व्यक्ति से परस्पर जुड़ा हो, निर्भर भी हो तो उसमें निर्भरता का भाव कभी हेय दृष्टि से न देखा जाए, और न कभी देव दृष्टि से!! इस प्रकार के अन्त्योदय का भाव पं. दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के सह उत्पाद के रूप में जन्मा जिसे सह उत्पाद के स्थान पर पुण्य प्रसाद कहना अधिक उपयुक्त होगा।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय संस्कृति के समग्र रूप को मानव और राज्य में स्थापित देखना चाहते थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति की समग्रता और सार्वभौमिकता के तत्वों को पहचान कर आधुनिक सन्दर्भों में इसके नूतन रूपकों, प्रतीकों, शिल्पों की कल्पना की थी। उनके विषय में पढ़ते, अध्ययन करते समय मेरी अंतर्दृष्टि में वंचित भाव जागृत होता है और ऐसा लगता है कि कुछ था जो हमें पंडित दीनदयाल जी से और मिलना था किंतु मिल न पाया। मानस में यह तथ्य उच्चारित होता रहता है कि उनके तत्व ज्ञान में कुछ ऐसा अभिनव प्रयोग आ चुका था जिसे वे शब्द रूप में या कृति रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाए और काल के शिकार हो गए। उनके मष्तिष्क में या वैचारिक गर्भ में कोई अभिनव और नूतन सिद्धांत रूपी शिशु था जो उनके असमय निधन से अजन्मा और अव्यक्त ही रह गया है पुण्य स्मरण !!!
- प्रवीण गुगनानी