अखिलेश की रणनीतियां आगे भी ऐसे ही विफल होती रहीं तो कोई सहयोगी साथ नहीं बचेगा

By अजय कुमार | Jul 23, 2022

समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव का खराब समय बदलने का नाम नहीं ले रहा है। अभी समाजवादी पार्टी का लोकसभा की दो सीटों के लिए उप-चुनाव में मिली हार का जख्म सूखा भी नहीं था और एक बार फिर राष्ट्रपति चुनाव ने अखिलेश यादव के जख्मों को दोबारा से कुरेद दिया है। सपा प्रमुख राष्ट्रपति चुनाव में जिस विपक्षी एकजुटता की बात कर रहे थे, वह पूरी तरह से तार-तार हो गई। सपा विधायक शिवपाल सिंह यादव व सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर की खुली बगावत राष्ट्रपति चुनाव में भी देखने को मिली। राष्ट्रपति चुनाव के परिणामों ने यह बात साफ कर दी है कि सपा गठबंधन में शिवपाल यादव और ओम प्रकाश राजभर के अलावा कुछ और भितरघाती भी मौजूद हैं।


राष्ट्रपति चुनाव में राजग प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू को उत्तर प्रदेश से 282 वोट से बढ़कर 287 वोट मिले जो चौंकाने वाली बात थी। यूपी से विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के 119 तय माने जा रहे वोटों में आठ मतों की सेंध सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की सियासी दूरदर्शिता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर रहे हैं। अखिलेश चुनावी जंग में तो पिछड़ ही रहे हैं, सियासी मोर्चे पर भी वह सलीके से अपनी गोटें नहीं बिछा पा रहे हैं, इसी वजह से उनके सहयोगी एक-एक कर दूर होते जा रहे हैं। पहले महान दल ने साथ छोड़ा, अब ओम प्रकाश राजभर मुसीबत खड़ी कर रहे हैं। चाचा शिवपाल यादव तो शुरू से ही भतीजे की मुखालफत करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं।

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गौरतलब है कि राष्ट्रपति चुनाव में उत्तर प्रदेश की 403 सीटों वाली विधानसभा के विधायकों के मतों का मूल्य सबसे अधिक 208 था। इसलिए इस राज्य के मतों पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और विपक्ष, दोनों की नजर थी। शुरुआत में माना जा रहा था कि राजग प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू को भाजपा गठबंधन के 273 विधायकों का वोट मिल जाएगा, जबकि विपक्ष के साझा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के लिए सपा गठबंधन के 125 सहित कांग्रेस के दो मिलाकर 127 विधायकों के वोट का आंकड़ा था। द्रौपदी मुर्मू के आदिवासी वर्ग की महिला होने के चलते बसपा प्रमुख मायावती पहले ही उनके समर्थन की बात कह चुकी थीं। इस तरह बसपा का एक वोट राजग के साथ आने से 274 मत की व्यवस्था हो गई। लोकतांत्रिक जनसत्ता दल के रघुराज प्रताप सिंह ने भी अपने दो वोट मुर्मू को देने की घोषणा की तो आंकड़ा 276 पर पहुंच गया, लेकिन कांग्रेस के दो वोट सहित सपा गठबंधन के पास 127 वोट बरकरार थे।

  

विपक्ष के साक्षा उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को भी यूपी से काफी उम्मीदें थीं, लेकिन उनकी उम्मीदों पर तब पानी फिर गया जब द्रौपदी मुर्मू समर्थन मांगने लखनऊ आईं। अचानक ही सपा मुखिया के चाचा शिवपाल सिंह यादव और सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर मुख्यमंत्री के सरकारी आवास पर पहुंच गए और राजग प्रत्याशी के समर्थन में उन्होंने समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव के खिलाफ खुली बगावत कर दी। इसके साथ ही विपक्ष की मुट्ठी से शिवपाल का एक और सुभासपा के छह समेत कुल सात वोट और खिसक गए। वैसे इसके लिए अखिलेश कम कसूरवार नहीं थे, क्योंकि यशवंत सिन्हा जब लखनऊ आए थे और सपा प्रमुख के साथ उन्होंने मीटिंग की थी, तब अखिलेश ने इस मीटिंग में ओम प्रकाश राजभर और शिवपाल यादव को न्योता नहीं दिया था, सिर्फ रालोद के जयंत चौधरी को बुलाया गया था। यहीं से ओम प्रकाश राजभर अपना आपा खो बैठे थे। इसके बाद ऐसा लग रहा था कि यशवंत सिन्हा को सपा गठबंधन और कांग्रेस के 120 विधायकों के वोट तो मिल ही जाएंगे। मगर, मतदान वाले दिन सपा विधायक नाहिद हसन वोट डालने नहीं आए, जिससे यशवंत का एक और वोट कम हो गया। सुभासपा के अब्बास अंसारी के भी वोट न देने से मुर्मू के पक्ष में कुल 282 वोट पड़ने की उम्मीद थी, लेकिन चुनाव परिणाम ने अखिलेश के लिए एक बार फिर खतरे की घंटी बजा दी।

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बहरहाल, चुनाव सम्पन्न हो गए हैं, लेकिन राजनीति के गलियारों में सवाल यही गूंज रहा है कि यशवंत सिन्हा का सर्मथन करके सपा को क्या हासिल हुआ। जानकारों की इस संबंध में राय बंटी हुई है। राजनीति के कुछ जानकार अखिलेश यादव के इस कदम को कांग्रेस के विकल्प के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर उभरती ममता बनर्जी के पाले में जाने का संकेत मान रहे हैं। यूपी चुनाव 2022 में सपा के मंच से ममता बनर्जी ने अखिलेश यादव के लिए वोट मांगे थे। ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव में उनके समर्थन की घोषणा को उस समर्थन के बदले में उठाया गया कदम माना जा रहा था।


यहां यह याद दिलाना भी जरूरी है कि वर्ष 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में अखिलेश यादव एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के समर्थन में खड़े थे। उस समय प्रदेश के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने दलीय हितों से ऊपर उठकर कानपुर से निकले नेता को अपना समर्थन दिया था। भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ मायावती और अखिलेश यादव भी एक साथ दिखे थे। इसके बाद प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला था। वह था 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती का एक साथ आना। वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव दोनों दलों ने साथ मिलकर लड़ा था। इसका फायदा बसपा को काफी हुआ। वर्ष 2014 में शून्य सीटों पर टिकी बसपा को 2019 में 10 संसदीय सीटों पर जीत मिली। हालांकि, सपा को वर्ष 2014 की तरह ही 2019 में भी पांच सीटों से संतोष करना पड़ा था। इसके बाद सपा-बसपा का गठबंधन टूट गया और दोनों ने ही अलग राह पकड़ ली है। इसीलिए राष्ट्रपति चुनाव में सपा ने जहां यशवंत का समर्थन किया वहीं बसपा द्रौपदी मुर्मू के साथ खड़ी रही।


- अजय कुमार

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