By शुभम यादव | Sep 01, 2020
साल 2020 के अगस्त महीने की आखिरी तारीख को भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 84 साल की आयु में अंतिम सांस ली। देश जिसे प्रणब दा कहकर अक्सर पुकारता था वो राष्ट्र के प्रथम नागरिक के रूप में भी देश की सेवा कर चुके थे। लेकिन कभी कांग्रेस की नैया के खिवैया प्रणब मुखर्जी भी हुआ करते थे। कई उपलब्धियों के अंबार को संभालते प्रणब दा के जीवन में भी कई ऐसे मौके आए जब देश की बागडोर बतौर प्रधानमंत्री थामने की जिम्मेदारी मिलते-मिलते रह गई, जिसके कई कारण भी रहे इन कारणों को जानना कई लोगों के लिए जिज्ञासा का विषय भी हो सकता है। चलिए आज इस विषय की ओर रूख करते हैं।
पश्चिम बंगाल के वीरभूमि जिले के किरनाहर शहर के निकट मिराती गांव के ब्राह्मण परिवार में जन्मे प्रणब मुखर्जी के पिता भी कांग्रेस के सक्रिय नेता और स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने कई साल अंग्रेजी शासन के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए जेल की सजा काटी थी। कांग्रेस में शामिल पिता कामदा किंकर मुखर्जी से विरासत में राजनीति की सीख प्रणब दा को मिली। प्रणब मुखर्जी उन नेताओं में शुमार हुआ करते थे जिनको इंदिरा गांधी के बेहद करीबियों में गिना जाता है। इंदिरा सरकार के आपातकाल के दौरान प्रणब मुखर्जी ने इंदिरा का बराबर सहयोग किया था और बढ़-चढ़कर रणनीतियां बनाने का काम किया था।
लेकिन इंदिरा के निधन के बाद कुछ मनमुटाव और बदलावों ने कांग्रेस से दूर होने के लिए प्रणब दा को मजबूर भी किया। प्रणब मुखर्जी एक ऐसा नाम रहे जो कांग्रेस के हर संकट को दूर करते रहे। ऐसा भी माना जाता है कि जितनी प्रगति कांग्रेस ने की उसमें यदि प्रणब का सहयोग और योगदान न होता तो ये प्रगति असंभव थी। ऐसा माना जाता है कि कई मौके ऐसे आए जब प्रधानमंत्री का पूरा दावेदार होते हुए भी प्रणब मुखर्जी पीएम की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाये।
पहला मौका जब प्रणब दा प्रधानमंत्री बन सकते थे
31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा की हत्या उनके निजी सुरक्षाकर्मियों के द्वारा कर दी जाती है, ऐसे में कांग्रेस पार्टी के गलियारे में इस बात की चर्चा शुरू हो जाती है कि पार्टी से ऐसा कौन-सा नेता होगा जो अगला प्रधानमंत्री हो सकता है। 1969 में कांग्रेस पार्टी की तरफ से राज्यसभा सांसद चुने गये प्रणब मुखर्जी लगातार पांच बार राज्यसभा सांसद चुने जाने के बाद इंदिरा के करीबी होने के साथ ही 1973 में इंदिरा की सरकार में औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उपमन्त्री के रूप में शामिल हुए। लगातार इंदिरा गांधी की सरकार केन्द्रीय सत्ता के साथ डटे रहे। इसीलिए इस चर्चा में प्रणब दा का नाम सबसे प्रबल दावेदार के रूप में शामिल रहा, क्योंकि इंदिरा के बेहद करीबी होने के साथ ही सत्ता की समझ प्रणब को और नेताओं से बेहतर थी। लेकिन ऐन मौके पर राजीव गांधी ने मां इंदिरा की राजनीतिक विरासत संभाल ली और स्वयं पार्टी के नेताओं के समर्थन से प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली। राजीव के साथ सरकार में प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्रालय का जिम्मा सौंपते हुए फाइनेंस मिनिस्टर बनाया गया। लेकिन प्रणब दा की नाराजगी बरकरार रही इसीलिए साल 1986 में प्रणब दा ने कुछ समर्थकों के साथ मिलकर अलग पार्टी का निर्माण कर डाला और पार्टी को नाम दिया राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस हालांकि 3 साल बाद ही इस पार्टी का विलय कांग्रेस में हुआ और राजीव से नाराजगी भी दूर हुई।
दूसरा मौका जब एक बार फिर प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री पद तक नहीं पहुंचे
राजीव गांधी की हत्या के बाद एक बार फिर ऐसा मौका आया जब प्रणब मुखर्जी पीएम बन सकते थे, क्योंकि कांग्रेस में अब भी कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं पनपा था जो प्रणब मुखर्जी की बराबरी की बात तक कर सके लेकिन पार्टी गतिरोध हुआ जिसकी आशंका भी थी और आखिरकार पी.वी. नरसिम्हा राव ने प्रधानमंत्री बनकर देश की कमान संभाल ली। साल 1989 में अपनी राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस पार्टी के कांग्रेस में विलय करने के बाद नरसिम्हा राव सरकार में योजना आयोग के पहले उपाध्यक्ष बनाए गये। यही वो समय रहा जब प्रणब मुखर्जी का राजनैतिक कॅरियर पुनर्जीवित हुआ। इसके बाद साल 1995 में विदेश मंत्री बनाया जाना भी प्रणब की उपलब्धियों में से एक है। लेकिन पीएम का पद एक बार फिर प्रणब मुखर्जी को नसीब नहीं हो सका।
तीसरी मौका जब प्रधानमंत्री की कुर्सी प्रणब दा के हाथों से सरक गई
इंदिरा और राजीव गांधी युग के बाद जब प्रणब दा प्रधानमंत्री नहीं बन पाये तब तीसरा मौका उनके पास साल 2004 में आया जब लोकसभा चुनाव हुए और भाजपा मात्र 138 सीटें और कांग्रेस ने 145 सीटें जीत ली क्षेत्रीय दल सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले थे और ऐसे में कांग्रेस के पास ये अपनी सरकार बनाने का मौका आया सरकार बनी लेकिन सोनिया गांधी ने न तो खुद प्रधानमंत्री पद लिया और जोर-शोर से प्रधानमंत्री पद के लिए चर्चा में रहे प्रणब मुखर्जी को ही पीएम बनाया बल्कि डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद ग्रहण कर लिया। फिर साल 2012 में सालों की मेहनत का मिला फल जब राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी को चुना गया और पूरे पांच वर्षों तक प्रणब दा ने अपना कार्यकाल बतौर राष्ट्रपति पूरा किया।
क्या हिंदी न आना भी प्रणब के पीएम बनने में रोड़ा बना?
अक्सर जब पत्रकारों द्वारा प्रणब मुखर्जी से पीएम न बन पाने को लेकर सवाल किए जाते थे तो एक ही जवाब प्रणब की जुबां पर होता था कि हिंदी मुझे ठीक से नहीं आती शायद इसीलिए मैं प्रधानमंत्री नहीं बन सका। लेकिन अगर ऐसा वाकई था तो पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का हाथ अंग्रेजी में शायद प्रणब से भी ज्यादा तंग था लेकिन सियासी चालों ने मनमोहन को पीएम बना दिया जबकि प्रणब मुखर्जी जैसे प्रखर और ओजस्वी नेता पीएम नहीं बन सके।
- शुभम यादव