सामाजिक दुकान में शारीरिक दूरी (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Dec 11, 2020

विदेश से लौटा तो हवाई अड्डे पर, मेज़ के उस पार साथ सटे तीन शरीर चीख रहे थे, स्टैम्प लगवाने के लिए लाइन में आओ। इधर दो दर्जन शरीर उलझते हुए एक दूसरे से पहले स्टैम्प लगवाना चाहते थे। दाएं तरफ एक युवा शरीर पूछ रहा था यहां बॉस कौन है। पता नहीं किस तरफ से मधुर आवाज़ सुझाव दे रही थी, कृपया सोशल डिसटेंसिंग का पालन करें। बंद थी, तो पालन करने और करवाने वालों की दुकान। सैंकड़ों शरीर जिनमें महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों के श्रेष्ठ तन भी शामिल हैं सुन्दर, महंगे डिज़ाइनर मास्क लगाकर कभी सिर्फ लटकाकर निरंतर सुझा रहे हैं, सामाजिक दूरी बनाए रखें। यह वाक़्य आज का श्रेष्ठ प्रवचन है। यह विकास की फ़जीहत या वक़्त की नज़ाकत है कि समझाने वालों को समझ न आया कि शुद्ध सामाजिक दूरियां, हम बरसों से बनाए नहीं, बर्फ की तरह जमाए हुए हैं।

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नया दिलचस्प और अनूठा यह है कि शारीरिक दूरी अब सामाजिक दूरी कही जा रही है। उधर दिमाग में ज़्यादा बेहतर तरीके से सभी दूरियां नचाई जा रही है। यह अलग और ख़ास बात है कि मानवीय शरीर के आकर्षण में पूरी दुनिया गिरफ्तार है तभी शारीरिक दूरी बनाए रखना संभव नहीं हो रहा है। इतनी भाषाएं उपलब्ध होने के बावजूद सोशल डिसटेंसिंग का पुराना या नया अर्थ बताने का समय किसी के पास नहीं है। कोई पसंद नहीं करता इसलिए भी अनुवाद होने को तैयार नहीं है। अगर कोई राजनीतिक भाषाविद अर्थ बता दे तो शायद समझ आ भी सकता है। वैसे भी शब्दों के गलत अर्थ निकालने में तो हम विश्वगुरु ठहरे। हमारा जीवन एक रंग भंग युक्त मंच बन गया है जिस पर हम सभी अपने अपने अभिनेता को ज़रूरत के मुताबिक़ ऑन या ऑफ कर रहे हैं। वास्तव में सारा कामधाम ठीक चल रहा है, ज़िंदगी ज्यादा सम्प्रेषण के हवाले है, दिमाग खाली है इसलिए शारीरिक दूरी को सामाजिक दूरी कहा जा रहा है, फुर्सत है किसको रोने की दौर ए बहार में।

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अगर यह बात समझने की ज़हमत उठा ली जाए तो पल्ले पड़ सकता है कि शारीरिक नज़दीकी और सामाजिक दूरी रखने के कारण इंसान ने इंसानियत का कितना नुकसान किया है। शारीरिक दूरी कम होती गई और सामाजिक दूरी घटी नहीं। हमें यह पता चलना बंद हो गया कि पडोस में कौन रहता है। दिमाग संचार के साधन खोजता गया और संवाद घटता गया। एक कमरे में बैठे चार बंदे, आठ दिशाएं हो गए। अब फिर दिन रात दोहराया और फ़रमाया जा रहा है कि दो गज की सामाजिक दूरी रखो। वैसे, दो गज बहुत ज्यादा फासला होता है। कुछ लोगों ने अपनी बुद्धि की टांग फंसाकर कहा कि सामाजिक दूरी कम करने की बहुत ज़रूरत है लेकिन इस दुनिया को निरंतर बेहतर बनाने वाले ‘बुद्धिजीवियों’ ने नहीं माना और इस दूरी को बरकरार रखा। यही बात समझ में आई कि जब तक कोई बंदा बात सुनना न चाहे बात कहने की ज़रूरत नहीं। सच है किसी को कोई बात, वही अच्छी तरह से समझा सकता है जिसे वह बात ठीक से समझ न आई हो। ‘सोशल डिसटेंसिंग- वर्डस ऑफ़ कोरोना ईरा’ माने जा सकते हैं। 


- संतोष उत्सुक

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