By सौरभ कुमार | Jul 02, 2020
भारत चीन के बीच हुए सीमा विवाद के बाद देश में चीन से बदला लाने की मांग तेज हो गयी। सैनिक मोर्चे पर तो हमारे सैनिकों ने चीन की गुस्ताखी का जवाब उसी रात दे दिया था और जवाब ऐसा दिया था कि चीन खुद अपने हताहत सैनिकों की संख्या तक नहीं बता पा रहा। सैनिकों के साथ पूरा देश भी खड़ा हुआ और आर्थिक मोर्चे पर बहिष्कार की मांग तेज हुई, सरकार ने कुछ चीनी कंपनियों के टेंडर रद्द कर दिए, चीन से आने वाले हर शिपमेंट की जांच जरूरी कर दी। सरकार ने अपनी प्रतिक्रिया से बिलकुल साफ़ कर दिया कि भारत की सीमा के साथ की जाने वाली किसी भी हरकत को नजरंदाज नहीं किया जायेगा।
भारत के सैनिकों पर जब पाकिस्तान ने हमला किया तो हमने एयर स्ट्राइक करके उनके घुसपैठियों को तबाह कर दिया और अब सरकार ने चाइना के घुसपैठिये 59 एप्प को बैन करके डिजिटल स्ट्राइक किया है। चाइना के सरकारी समाचारपत्र ग्लोबल टाइम्स की भाषा बता रही है कि इस स्ट्राइक की मार अन्दर तक लगी है। सूचना क्रांति के इस दौर में चाइना के एप्प उसकी बड़ी ताकतों में से एक हैं जो किसी और देश के नागरिकों और सरकार की ख़ुफ़िया जानकारी चीन की कम्युनिस्ट सरकार तक पहुंचाती हैं। ऐसे में चाइना के एप्प को बैन किये जाने पर चाइना से ये प्रतिक्रिया आनी अपेक्षित भी थी लेकिन हैरानी की बात ये है कि चीन से ज्यादा दुखी हमारे ही देश के कुछ लोग नज़र आ रहे हैं। जब देश मुश्किल समय का सामना कर रहा हो तब सैनिकों के साथ देश के नागरिकों का भी कर्त्तव्य हो जाता है कि वो घुसपैठियों को पहचानें। जरूरी नहीं की ये घुसपैठिये बन्दुक और गोलियां लेकर घुसे हों, चीनी प्रोपगेंडा भी उतना ही खतरनाक है। तो ऐसे में इन लोगों की मानसिकता का विश्लेषण जरूरी हो जाता है जो देश का नमक खाकर चीन की भाषा बोल रहे हैं।
रोने के नए बहाने, दर्द वही पुराना
एक यूजर ने संजय सिंह के ट्वीट का उत्तर देते हुए लिखा कि
ये सवाल सारे प्रोपगेंडा की असलियत खोलकर रख देता है? आखिर क्यूँ उन्हें चीनी कंपनी के पैसों की फिकर है लेकिन भारतीयों की नहीं। उन्हें कुछ लोगों के नौकरी जाने की चिंता खाए जा रही है लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा से कोई मतलब नहीं है। आखिर ये लोग किस मानसिकता के शिकार हैं कि उन्हें देश की अखंडता और संप्रभुता से ज्यादा अपना एजेंडा प्यारा है? आखिर क्यूँ ये देश में आग लगाकर अपने मतलब की रोटी सेंकना चाहते हैं।
आप अगर समय में थोड़ा पीछे जाकर देखेंगे तो पाएंगे कि ये वही लोग हैं जो सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सबूत मांग रहे थे। ये वही लोग हैं जो भारतीय सेना के आधिकारिक बयान के बावजूद चीनी मीडिया पर ज्यादा भरोसा कर सरकार से सवाल पर सवाल पूछ रहे थे। ये वही लोग हैं जिन्हें इस बात से तकलीफ हो रही थी कि भारतीय सेना के जवानों ने चीन के 43 जवान मार गिराए। इनका पैटर्न देखने के बाद समझ आता है कि इनका विरोध किसी मुद्दे से नहीं देश से है। इन्हें सरकार के नहीं राष्ट्रीय भावना के विपरीत जाना है। हर बार इनके रोने के नए बहाने हैं लेकिन दर्द वही पुराना है।
चीन के बिछाये मोहरे हैं ये नेता ?
ऐसा नहीं है कि चीन के समर्थन में सिर्फ भारत में ही घर के भेदी खड़े हो रहे हैं। चीन अपने प्रोपगेंडा के जाल को दुनिया भर में फैला रहा है। इसी साल के जनवरी में कुछ दस्तावेज़ सामने आये। चीनी सरकार के एक प्रचार आउटलेट ने पिछले 4 वर्षों में अमेरिकी अखबारों को विज्ञापन और मुद्रण शुल्क के रूप में $ 19 मिलियन का भुगतान किया है।
जस्टिस डिपार्टमेंट में चाइना डेली द्वारा दायर दस्तावेजों के अनुसार, कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ने वॉल स्ट्रीट जर्नल (WSJ) को $ 6 मिलियन, वाशिंगटन पोस्ट को $ 4.6 मिलियन, फॉरेन अफेयर्स को 2,40,000 डॉलर, न्यूयॉर्क टाइम्स को $ 50,000 का भुगतान किया था। चीन के द्वारा जनमत को प्रभावित करने के इस प्रयास का अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी विरोध कर चुके हैं।
अमेरिका में हो रही इन गतिविधियों और सबूतों को देखने के बाद आप इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि चीन ने ऐसे प्रयास भारत में नहीं किये होंगे। तो देश के खिलाफ जाकर चीन का बाजा बजने वाले कहीं चीन के बिछाये मोहरे तो नहीं हैं? अगर आपको लगता है कि भारत में इस तरह का हस्तक्षेप संभव नहीं है तो आपको एक बार वसिली मित्रोखिन द्वारा लिखित मित्रोखिन आर्काइव पढ़नी चाहिए, जिसे कई देशों ने प्रमाणिक दस्तावेज मानते हुए मुक़दमे चलाये हैं। कभी रूसी ख़ुफ़िया विभाग के लिए काम करने वाले मित्रोखिन ने अपने किताब में भारत से भी जुड़े कुछ खुलासे किये हैं। इनमें से कुछ आपकी जानकारी में जरूर होने चाहिए-
-इंदिरा गांधी को KGB ने VANO कोडनेम दिया था। एक अवसर पर, पोलित ब्यूरो से कांग्रेस (आर) को 2 मिलियन रुपये का एक गुप्त उपहार व्यक्तिगत रूप से भारत में केजीबी प्रमुख लियोनिद शबरशीन द्वारा दिया गया था। श्रीमती गांधी का समर्थन करने वाले एक अखबार को उसी अवसर पर एक और करोड़ रुपये दिए गए।
-1959 में, सीपीआई के महासचिव अजॉय घोष ने सोवियत ब्लॉक के साथ व्यापार के लिए एक आयात-निर्यात व्यापार की शुरुआत की थी। एक दशक से भी कम समय में इसका वार्षिक मुनाफा 3 करोड़ रुपये से अधिक हो गया।
-1975 के दौरान इंदिरा गांधी के समर्थन को मजबूत करने और उनके राजनीतिक विरोधियों को कमजोर करने के लिए रूस ने कुल 10.6 मिलियन रूबल खर्च किए गए थे।
-1973 तक, केजीबी के पास पेरोल और एक भारतीय प्रेस एजेंसी और 10 भारतीय समाचार पत्र थे। 1975 के दौरान केजीबी ने भारतीय समाचार पत्रों में 5,510 प्रोपगेंडा लेख लगाए।
आज संचार के तरीके बदल गए हैं लेकिन कम्युनिस्ट प्रोपगेंडा आज भी नहीं बदला है। जो कल तक रूस के कम्युनिस्ट कर रहे थे क्या आज चीन वही तरीका अपना रहा है? चीन के समर्थन में देश का विरोध करने वाले कहीं चीन की रोटियों पर तो नहीं पल रहे?
-सौरभ कुमार
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में अध्ययनरत हैं)