अतीत और वर्तमान, बाधाओं से जूझती रही हिंदी

By उमेश चतुर्वेदी | Sep 09, 2024

हिंदी की जब भी चर्चा होती है, दो तरह के भाव आते हैं। इसे लेकर पहला भाव उत्साह और गर्वबोध वाला होता है। हिंदी के क्षितिज के लगातार हो रहे विस्तार और उसके गर्वीले अतीत को लेकर हिंदीप्रेमी जहां उत्साह से भर उठते हैं, वहीं अंग्रेजी माध्यम से पढ़े गुलामी की मानसिकता वालों के चेहरे पर विद्रूप और व्यंग्यभरी मुस्कान चिपक जाती है। दक्षिण और पूर्वी भारत के कुछ इलाकों के राजनीतिक तो हिंदी से अछूत जैसा व्यवहार करने में स्वयं जहां गर्वबोध का अनुभव करते हैं, वहीं अपने समर्थकों को हिंदी को दुश्मन की तरह मानने के लिए उकसाने में भी पीछे नहीं रहते। इसके बावजूद हिंदी का प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जा रहा है, विशेषकर आमजन की बोली-बानी के रूप में यह स्थापित होती जा रही है। इतने सारे विरोध के बावजूद और अड़ंगे के बावजूद हिंदी अगर बढ़ती नजर आ रही है तो मानना पड़ेगा कि उसमें कुछ बात जरूर है। हिंदी के इस प्रभावी हश्र पर इकबाल की पंक्तियां याद आना स्वाभाविक है,


कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।

सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।।


हिंदी की राह में आजादी के पहले ज्यादा बाधाएं नहीं थीं। इसकी शायद यह बड़ी वजह रही कि भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अगुआ महात्मा गांधी स्वयं हिंदी के हिमायती थे। उनके पहले केशव चंद्र सेन, लोकमान्य तिलक जैसी हस्तियां भी देश के हृदयों को नजदीक लाने में हिंदी की सामर्थ्य को पहचान चुके थे। इसीलिए गैर हिंदीभाषी होने के बावजूद उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन की केंद्रीय भाषा हिंदी को बनाने की कोशिश की और भावी भारत की भाषायी जरूरतों के लिहाज से हिंदी को तैयार करने की कोशिश भी की। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, कर्नाटक हिंदी प्रचार सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जैसी संस्थाओं की स्थापना का उद्देश्य हिंदी को भावी भारत की भाषायी जरूरत के लिहाज से ना सिर्फ तैयार करना था, बल्कि भारतीय भाषाओं के बीच मजबूत सेतु के रूप में स्थापित करना भी था। हिंदी इस दिशा में आगे बढ़ती रही। कांग्रेस के दस्तावेज भले ही अंग्रेजी बनते रहे, लेकिन बहसों और उसके वार्षिक अधिवेशनों की भाषा हिंदी ही रही। 1938 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के बाद हिंदी के इस प्रभाव को सुभाष चंद्र बोस ने भी समझा और बाकायदा हिंदी सीखी। कांग्रेस अध्यक्ष के नाते पार्टी के वार्षिक अधिवेशन को उन्होंने हिंदी में ही संबोधित किया था, जिसकी रिकॉर्डिंग आकाशवाणी के आर्काइब में आज भी सुरक्षित है। उनकी मीठी हिंदी एक तरह से मोहती है। उसे सुन लगता है कि स्वाधीनता संग्राम में हिंदी किस तरह सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रही थी।

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जिस हिंदी का ऐसा इतिहास रहा हो, जिसे विनोबा जैसे संघर्षशील और त्यागी-तपस्वी व्यक्ति ने अपनी भाषायी तप:साधना का माध्यम बनाया हो, उसे स्वाधीनता के बाद तेजी से विस्तारित होना चाहिए था। वह विस्तारित तो हुई, लेकिन उस रूप में स्थापित नहीं हुई, जिस रूप में स्वाधीनता सेनानियों ने सोचा था। राजभाषा की उसे पदवी तो मिली, लेकिन वह रस्मी ही साबित हुई। राजभाषा की भूमिका सरकारी दफ्तरों में सिर्फ हिंदी पखवाड़े या महीने में कार्यालयों में रस्मी निबंध, कहानी और कविता प्रतियोगिता आयोजित करने और किसी हिंदी विद्वान को बुलाकर उंघते और उबते कर्मचारियों के बीच भाषण कराने तक सीमित रह गई। हिंदी दिवस पाखंड बन कर रह गया। अच्छी बात यह कह सकते हैं कि इस बहाने सरकारी कार्यालयों के कुछ कर्मचारियों को कुछ नगद रकम बतौर पारितोषिक मिल जाती है, और बाकी कर्मचारियों को मिठाई और नाश्ता आदि और फिर हिंदी की पूरे वर्षभर के लिए राजभाषा के रूप में इतिश्री हो जाती है। 


राजभाषा के नाम पर इस रस्म को आयोजित होने की परंपरा को विकसित करने में संविधान सभा के उस विधान की बड़ी भूमिका रही, जिसके तहत हिंदी को संविधान लागू होने से पंद्रह वर्षों तक के लिए टाल दिया गया। कहा गया कि इतने दिनों में हिंदी राजकाज में स्थापित अंग्रेजी का स्थान लेने लायक हो जाएगी। लेकिन इसी बीच अंग्रेजी समर्थकों, हिंदी विरोधी कहना ज्यादा समीचीन होगा, ने हिंदी के खिलाफ षडयंत्र जारी रखा। इसके लिए उन्होंने अंग्रेजी को हिंदी की तुलना में ज्यादा गंभीर और प्रभावी रूप से स्थापित किया। इतना नहीं, इस बीच हिंदीतर दूसरी भारतीय भाषाओं के मन में हिंदी को लेकर लगातार जहर भरा जाता रहा। इसमें अंग्रेजी शिक्षा और उसके जरिए मिलने वाली सुख-सुविधाएं और बेहतर नौकरियों ने बड़ा योगदान दिया। अगर आजादी के तुरंत बाद हिंदी को लागू कर दिया जाता और हिंदी को विकसित करने के तर्क को परे सरका दिया गया होता तो आज हिंदी कुछ उसी तरह स्थापित होती, जैसे इंडोनेशिया और तुर्की में हुआ। इसे संयोग ही कहेंगे कि भारत से ठीक दो वर्ष पहले 17 अगस्त 1945 को इंडोनेशिया डच शासन से मुक्त हुआ था। तब तक इंडोनेशिया के राजकाज की भाषा डच होती थी। लेकिन आजादी मिलते ही इंडोनेशिया के शासक सुकर्णों ने तुरंत अपनी भाषा ‘बहासा इंडोनेशिया’ को लागू कर दिया। कुछ इसी तरह 23 अक्टूबर 1923 को जब आधुनिक तुर्की गणराज्य की स्थापना हुई, तब वहां के स्वाधीनता सेनानी और शासक कमाल अतातुर्क ने तत्काल तुर्की भाषा को राजकाज की भाषा के रूप में लागू कर दिया। अगर भारत में भी कुछ हिंदी के साथ ऐसा ही हुआ होता तो निश्चित तौर पर इतिहास और परिदृश्य दोनों अलग होते।


स्वाधीन भारत से एक और गलती हुई है। वैसे इसे गलती मानें या जानबूझकर रचा गया हिंदीविरोधी षड्यंत्र कहें। स्वाधीन भारत की नौकरशाही की भाषा अंग्रेजी ही रही। या यूं कहें कि हिंदी या भारतीय भाषाओं की बजाय अंग्रेजी माध्यम के छात्रों के लिए ऐसी राह तैयार की गई कि वे ही नौकरशाही में आ सकें। भारतीय भाषाओं को संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं का माध्यम बनाने के लिए आंदोलन चला तो उसके दबाव में भारतीय भाषाएं आयोग की परीक्षाओं का माध्यम बनीं तो लेकिन परीक्षाओं और चयन प्रक्रिया का ढांचा ऐसा बना रहा कि अंग्रेजी माध्यम के छात्र ही ज्यादा चुने जाते रहे। हिंदी या भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षित इक्का-दुक्का विद्यार्थी अगर नौकरशाही में प्रवेश पाने में सफल रहे भी तो उनकी स्थिति ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज’ जैसी रही। नरेंद्र मोदी के उभार और मोदी-शाह की जोड़ी के हिंदी प्रेम के चलते नौकरशाही में हिंदी के प्रति रूझान दिखा। नौकरशाही की भाषायी सोच में परिवर्तन आता दिखा भी। लेकिन अब पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि वह नौकरशाही की रणनीतिक चाल रही। नौकरशाही ने शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को प्रभावित करने के लिए भारतीय भाषाओं के प्रति प्रेम का संकेतभर दिया। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही रही। हिंदी और भारतीय भाषाएं राजकाज में एक बार फिर पीछे हो गई हैं। अग्रेजी अब भी नौकरशाही और राजकाज में वर्चस्व बनाए हुए है। उसके मनोभाव उसके इरादे को एक बार फिर जाहिर करने लगे हैं। वह एक बार फिर हिंदी पर अंग्रेजी को ही उपर रखने लगी है। राजकाज एक बार फिर पुरानी पटरी पर कम से कम भाषायी लिहाज से लौटने लगा है। हिंदी को लेकर ऐसा रूख नौकरशाही अगर दिखाती है तो इसकी वजह हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच की आपसी खींचतान के साथ ही शासन की रस्मी भाषा नीति भी है। 


हिंदी की राह में यूं तो कई बाधाएं हैं, लेकिन सबसे बड़ी बाधा शासन में उसकी उपेक्षा और अंग्रेजीदां नौकरशाही का वर्चस्ववादी रवैया है। इस रवैये का नुकसान ज्यादातर जमीनी नागरिकों को ही उठाना पड़ता है। क्योंकि उनकी समस्याओं को सही मायने में समझने वाली ब्यूरोक्रेसी ही नहीं है। यह मोटा तथ्य है कि किसी व्यक्ति या इलाके की समस्याओं को वही गहराई से समझ सकता है, जो उस व्यक्ति की अपनी भाषा में सोचता हो, उस इलाका विशेष की माटी की संस्कृति से जुड़ा हो। लेकिन इसे उलटबांसी ही कहेंगे कि ज्यादातर नौकरशाही ऐसी सोच से कोसों से दूर है। इसीलिए हिंदी समेत भारतीय भाषाएं राजकाज के स्तर पर अंग्रेजी से कोसों पीछे हैं। उच्च स्तर पर प्रभाव के लिहाज से भी हिंदी का स्थान कुछ खास नहीं है। हिंदी दिवस पर क्या हम इस नजरिये से हिंदी की स्थिति को देखेंगे? वक्त आ गया है कि इस सवाल से गंभीरता से जूझा जाए।


-उमेश चतुर्वेदी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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