नई दिल्ली, 20 सितंबर (इंडिया साइंस वायर): धान की फसल तैयार होने के साथ ही खेतों में पराली जलाने के कारण होने वाले प्रदूषण की चिंता भी बढ़ने लगी है। वैज्ञानिकों ने आगाह किया है किया है कि समय रहते इस समस्या से निपटने के उपाय न किए गए तो पर्यावरण, स्वास्थ्य और जमीन की उर्वरता पर इसका विपरीत असर पड़ सकता है। विशेषज्ञों ने कई ऐसे विकल्प सुझाए हैं, जो इस समस्या से निपटने में मददगार हो सकते हैं।
आईआईटी, दिल्ली में शुक्रवार को आयोजित एक चर्चा के दौरान वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने जोर देकर कहा कि पराली जलाने की समस्या मूल रूप से किसानों के अर्थतंत्र से जुड़ी है। इसीलिए, पर्यावरणीय पक्ष के साथ-साथ इस समस्या के आर्थिक पहलू की ओर ध्यान केंद्रित करने की भी जरूरत है।
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पंजाब सरकार के कृषि सचिव के.एस. पन्नू ने इस मौके पर कहा कि “धान पंजाब की परंपरागत फसल नहीं है, इसके बावजूद बड़े पैमाने पर राज्य में इसकी खेती होती है। धान की कटाई के बाद गेहूं की फसल बोने के बीच करीब 30 दिन का ही अंतर होता है। ऐसे में, किसानों को पुआल खेत में ही जलानी पड़ती है। अगर एक निर्धारित बोनस राशि पराली न जलाने वाले किसानों को मिले तो उनकी भागीदारी इस चुनौती से लड़ने में बढ़ाई जा सकती है।”
साउथ एशिया यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता ऋद्धिमा गुप्ता ने बताया कि “कई ऐसी तकनीकें मौजूद हैं, जो पराली को जलाने के बजाय उसके बेहतर प्रबंधन में मददगार हो सकती हैं। हैप्पी सीडर एक ऐसी ही मशीन है, जिसे ट्रैक्टर पर लगाकर गेहूं की बुवाई की जाती है। गेहूं की बुवाई से पहले कम्बाइन हार्वेस्टर से धान की कटाई के बाद बचे पुआल को इसके लिए हटाने की जरूरत नहीं पड़ती। परंपरागत बुवाई के तरीकों की तुलना में हैप्पी सीडर के उपयोग से 20 प्रतिशत अधिक लाभ हो सकता है। लेकिन, इन तकनीकों के बारे में किसानों में जागरूकता की कमी है।”
आईआईटी, दिल्ली के इन्क्यूबेशन सेंटर से जुड़े क्रिया लैब्स नामक स्टार्टअप द्वारा फसल अपशिष्टों से ईको-फ्रेंडली कप और प्लेट जैसे उत्पाद बनाने की पद्धति भी इसी पहल का हिस्सा कही जा सकती है। पराली से कप एवं प्लेट बनाए जा रहे हैं, जो आमतौर पर उपयोग होने वाली प्लास्टिक प्लेटों का विकल्प बन सकते हैं। शोधकर्ताओं ने एक ऐसी प्रक्रिया विकसित की है, जिससे धान के पुआल में सिलिका कणों की मौजूदगी के बावजूद उसे औद्योगिक उपयोग के अनुकूल बनाया जा सकता है। इस तकनीक की मदद से किसी भी कृषि अपशिष्ट या लिग्नोसेल्यूलोसिक द्रव्यमान को होलोसेल्यूलोस फाइबर या लुगदी और लिग्निन में परिवर्तित कर सकते हैं। लिग्निन को सीमेंट और सिरेमिक उद्योगों में बाइंडर के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
समर एग्रो वेंचर्स नामक कंपनी ने धान, गेहूं और गन्ने जैसी फसलों के अपशिष्टों को सिर्फ 10-14 दिन में जैविक रूप से अपघटित करने की तकनीक विकसित की है। कंपनी के सीईओ उदयन आर्या ने बताया कि “हमने डिकोम्प एक्टीवेटर नामक स्प्रे तैयार किया है। इसे कई सूक्ष्मजीवों के संयोजन से बनाया गया है, जो फसल अवशेषों को तेजी से अपघटित कर सकते हैं। इन सूक्ष्मजीवों में एरोबिक, माइक्रोएरोफिलिक और ऑयल डिकंपोसिंग बैक्टिरिया शामिल हैं। दो लीटर डिकोम्प एक्टीवेटर को 200 लीटर पानी में मिलाकर एक एकड़ में छिड़काव किया जा सकता है, जिससे फसल अवशेष खेत में ही अपघटित हो जाते हैं।”
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विशेषज्ञों ने पराली के साथ-साथ प्रदूषण के अन्य स्रोतों पर भी ध्यान देने की बात कही है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ एस.के. गोयल ने कहा- “हवा के जरिये आने वाले सूक्ष्म कणों के स्रोत और उनके घटकों का मूल्यांकन करने पर पाया गया है कि दिल्ली की प्रदूषित हवा के लिए यहां गाड़ियों से निकलने वाला धुआं भी प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है। पराली जलाने से निकले कण सामान्य धूल कणों और गाड़ियों से निकलने वाले सूक्ष्म कणों से अलग होते हैं। अध्ययन में हवा में मौजूद पीएम-10 तथा पीएम-2.5 जैसे सूक्ष्म कणों, गैसीय घटक, कार्बन और धातुओं की मात्रा का मूल्यांकन किया गया है।”
आईआईटी, दिल्ली के सेंटर ऑफ एक्सीलेंस फॉर रिसर्च ऑन क्लीन एयर के संस्थापक अरुण दुग्गल ने बताया कि “हम पंजाब और हरियाणा के विभिन्न जिलों में हवा के बहाव और पराली जलाने की घटनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। इससे पता लगाने में मदद मिलेगी कि सर्वाधिक पराली किन जिलों में जलाई जाती है और हवा का बहाव किस तरह प्रदूषण को दिल्ली समेत आसपास के दूसरे राज्यों में स्थानांतरित करने में भूमिका निभाता है। दिल्ली-एनसीआर के विभिन्न हिस्सों में प्रदूषण के स्तर का पूर्वानुमान लगाने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) आधारित समाधान भी विकसित किए जा रहे हैं।”
(इंडिया साइंस वायर)