पाक में चुनाव तो हो रहे हैं लेकिन क्या लोकतंत्र वास्तव में आ पायेगा?

By संजय तिवारी | Jun 19, 2018

पड़ोस में हर राजनीतिक, गैर राजनीतिक घटनाक्रम भारत पर भी असर डालता है। यदि शुरू से ही पकिस्तान में लोकतंत्र कायम हो चुका होता तो शायद स्थितियां भिन्न होतीं। भारत से अलग होकर पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य बन तो गया लेकिन हमेशा फौजी जनरलों की कठपुतली ही बना रहा। अपनी फ़ौज के किराए से धन कमाने और केवल भारत विरोध की राजनीति करने की नीति ने पाकिस्तान को आतंकवादियों की शरणस्थली बना कर स्थापित कर दिया। वहां के लोग भी वैसे ही हैं जैसे भारत के लेकिन उसकी नींव में ही बुनियादी फर्क यह आ गया कि उसने कभी लोकतंत्र को भारत की तरह स्थापित होने नहीं दिया। फौजी जनरलों की हनक के आगे वह लोकतंत्र बहुत बौना साबित हुआ। बहुत दिनों के बाद जब नवाज शरीफ की पिछली सरकार बनी तो कुछ बदलाव दिखने शुरू हुए लेकिन यह रोशनी बहुत मद्धिम थी। भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे नवाज की दुर्गति के बाद अब फिर पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सुगबुगाहट है लेकिन शक है कि यह सही सलामत रहेगी और आगे बढ़ेगी या फिर जनरलों की नजर लग जाएगी।

 

अलग देश बनने के बाद से आधे समय तक सैन्य शासन 

दरअसल, इसका इतिहास ही कुछ ऐसा रहा है। आजादी के बाद से ही पाकिस्‍तान में लोकतंत्र और सैन्‍य शासन के बीच लुकाछिपी का खेल चलता रहा है। पाकिस्‍तान में सत्‍ता संघर्ष के खेल में केवल राजनीतिक दलों के बीच होड़ नहीं रहती, बल्कि यहां की सियासत में सैन्‍य फैक्‍टर का भी अहम रोल रहा है। कई बार यहां के लोकतंत्र पर सैन्‍य शासन हावी रहा है। पिछले 70 सालों के इतिहास में पाकिस्तान में चार बार सेना ने तख्‍तापलट किया है। अब तक चार सेना प्रमुख सत्ता पर काबिज रहे हैं। इसमें अयूब ख़ान, याह्या ख़ान, ज़िया उल हक़ और परवेज़ मुशर्रफ हैं। पाकिस्‍तान में आजादी के बाद से ही यहां आधे से ज्‍यादा समय सैन्‍य हुकूमत रही है। ऐसे में जब पाकिस्‍तान में आम चुनाव की तैयारियां जोरों पर हैं, लोगों के मन में यह सवाल उठना लाजमी है कि क्‍या सच में पाकिस्‍तान में आम चुनाव संपन्‍न होंगे। या फ‍िर क्‍या आम चुनाव के बाद बिना सेना के हस्‍तक्षेप के देश में एक मजबूत लोकतांत्रिक सरकार का गठन होगा। पड़ोसी मुल्‍क को लेकर ये तमाम सवाल एक साथ मन में कौंध जाते हैं। 

 

चार बार सैन्य तख्तापलट  

सेना और राजन‍ीतिक दलों के बीच सत्‍ता संघर्ष के चलते पाकिस्‍तान में चार बार सैन्य तख्तापलट हो चुका है। देश को दशकों तक सैन्य शासकों के एकछत्र राज में रहना पड़ा है। इसलिए यह कहने में गुरेज नहीं कि इस सैन्‍य व्‍यवस्‍था ने यहां की लोकतांत्रिक प्रणाली को लचर, कमजोर और अस्थिर किया है। इससे राजनीतिक वर्ग की विश्वसनीयता और प्रभाव को रणनीतिक और व्यवस्थागत रूप से ठेस पहुंची है। इस राजनीतिक खींचतान के चलते पाकिस्‍तान में कोई स्‍थाई संवैधानिक ढांचा नहीं विकसित हो सका है। देश में चुनी हुई संसद को राष्‍ट्रपति बर्खास्‍त कर सकता था। हालांकि, यह शक्ति उसको अप्रत्यक्ष रूप से मिली थी। इसी के चलते देश का सैन्य नेतृत्व अपनी मर्जी के मुताबिक लोगों के वोटों के आधार पर चुनी हुई सरकारों को बाहर का रास्ता दिखाता रहा है।

 

भ्रष्‍टाचार शुरू से ही चरम पर 

दरअसल, पाकिस्तान को इस्लामी गणराज्य घोषित किए जाने के साथ ही वहां अस्थिरता कायम रही। इसके पीछे कई आंतरिक तथा वाह्य कारण जिम्मेदार हैं। नवोदित पाकिस्‍तान गरीबी के साथ-साथ आर्थिक दिक्‍कतों का सामना कर रहा था। पाकिस्‍तान में भ्रष्‍टाचार शुरू से ही चरम पर था। सरकार में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार को लेकर यहां कई दफे मंत्रिमंडल पर संकट उत्‍पन्‍न हुआ। इसके अलावा भारत-पाकिस्‍तान के बीच कश्‍मीर मुद्दे को लेकर तनाव रहा है। अफगानिस्‍तान से भी बेहतर संबंध नहीं थे। इन विपरीत हालात में राष्ट्रपति मिर्ज़ा सिकंदर बेग ने 1958 में संविधान को मुल्तवी करके जनरल मोहम्मद अयूब ख़ान के नेतृत्व में सेना को देश की बागडोर सौंप दी। 

 

अस्थिर राजनीतिक हालात

प‍ाकिस्‍तान में सेना प्रमुख अयूब खान का शासन 1969 तक चला। हालांकि व्यापक जन असंतोष के बाद सेना प्रमुख जनरल याह्या ख़ान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा करके मार्शल लॉ लगा दिया। लेकिन 1971 के गृहयुद्ध और नतीजतन बांग्लादेश बनने के बाद याह्या ख़ान को पद छोड़ना पड़ा। पाकिस्तान से फ़ौजी शासन कुछ समय के लिए समाप्त हो गया। फिर ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो राष्ट्रपति बने। 1973 में उन्होंने पाकिस्‍तान में एक नया संविधान लागू किया। भुट्टो ने 1977 का आम चुनाव जीत तो लिया, लेकिन विपक्ष ने उनकी जीत को चुनौती दी। देश भर में दंगे फैल गए। जब कोई समझौता नहीं हो पाया तो तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल मोहम्मद ज़िया-उल-हक़ ने भुट्टो को अपदस्थ करके सेना का शासन लागू कर दिया। करीब डेढ़ वर्ष बाद ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी दे दी गई। जनरल ज़िया ने ग्यारह वर्षों तक शासन किया। 

 

जनरल ज़िया की 1988 में एक विमान दुर्घटना में हो गई। इसके साथ ही एक बार फिर पाकिस्तान में चुनी हुई सरकार स्थापित हुई। इसके बाद क़रीब 14 साल तक बिना सैनिक हस्तक्षेप के पाकिस्तान में जनतांत्रिक सरकारें चलीं। भारत के साथ 1999 में हुए कारगिल युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के ख़िलाफ़ असंतोष बढ़ता गया और आख़िरकार जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने अक्तूबर 1999 में उन्हें गिरफ़्तार करके ख़ुद को पाकिस्तान का "चीफ़ एक्ज़क्यूटिव" घोषित कर दिया। बाद में जब भारत से वार्ता की स्थिति बनी तो अपनी भारत यात्रा से पूर्व उन्होंने खुद को पकिस्तान का राष्ट्रपति घोषित किया क्योंकि किसी सैन्य शासक से यह वार्ता मुमकिन नहीं थी। यह अलग बात है कि यह वार्ता सफल नहीं हो सकी। जनरल मुशर्रफ के बाद हुए आम चुनाव से लोकतंत्र की उम्मीद जगी थी। नवाज शरीफ की लोकतांत्रिक सरकार बन जाने के बाद भी असली ताकत फ़ौज में दिखी। फिर भी यह उम्मीद की जा रही थी कि लोकतांत्रिक ताकतों को धीरे धीरे बल मिलेगा। इसी बीच भ्रष्टाचार का मामला सामने आया और नवाज को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। किसी तरह कार्यवाहक प्रधानमंत्री के जरिये सरकार चल रही थी। अब वहां आम चुनाव होने जा रहे हैं। ऐसे में लोकतंत्र को मजबूती मिलने की उम्मीद फिर से जगी है लेकिन उसी अनुपात में शंकाये भी हैं।

 

-संजय तिवारी

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