लोकतंत्र में सफलता की कसौटी है- संसद की कार्रवाही का निर्विघ्न संचालित होना। संसद के मानसून सत्र की शुरुआत करते हुए इस बात की आवश्यकता व्यक्त की गई क्योंकि समूचे विपक्ष ने इस सत्र को हंगामेदार करने की ठान ली है। जहां तक महंगाई, कोरोना एवं किसान आन्दोलन जैसे मुद्दों को उठाने एवं इन विषयों पर सरकार से जबाव मांगने का प्रश्न है, यह स्वस्थ एवं जागरूक लोकतंत्र की अपेक्षा है। लेकिन इन्हीं मुद्दों को आधार बना कर जहां संसद की कार्रवाई को बाधित करने की स्थितियां हैं, यह अलोकतांत्रिक है, अमर्यादित है। मानसून सत्र लोकतांत्रिक समझौते के साथ समझ को विकसित करने का उदाहरण बने, यह अपेक्षित है। समझौते में शर्तें व दबाव होते हैं जबकि समझ नैसर्गिक होती है। इन्हीं दो स्थितियों में जीवन का संचालन होता है और इन्हीं से राष्ट्र, समाज और लोकतंत्र का संचालन भी होता है।
यह तो सर्वविदित है कि विपक्ष गत कुछ समय की कतिपय राजनीतिक घटनाओं से उत्साहित एवं आक्रामक हुआ है। इन्हीं बुलन्द हुए हौसलों में विपक्ष की तरफ से संसद में जिन मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश होगी, उनमें कोरोना की दूसरी लहर के कुप्रबंधन, महंगाई और किसान आंदोलन के मुद्दे प्रमुख हैं। विपक्ष इन मुद्दों पर दोनों सदनों में चर्चा की मांग करेगा। मौजूदा माहौल में सरकार के लिए चर्चा से इनकार करना मुश्किल होगा, लेकिन विपक्ष को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि अधिक आक्रामक रुख अख्तियार कर वह संसद में सिर्फ हंगामा करने और कार्यवाही को बाधित करने तक सीमित न रह जाए। ऐसा होने से लोकतंत्र की मूल भावना पर आघात होता है। विपक्ष सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने और सत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए पहल करे एवं एक आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करे।
विपक्ष के तेवरों को देखते हुए यही प्रतीत हो रहा है कि वह दोनों सदनों में सरकार की घेराबंदी के किसी मौके को नहीं छोड़ना चाहेगा, ऐसी स्थितियां बनना देशहित में नहीं है। विरोध या आक्रामकता यदि देशहित के लिये, ज्वलंत मुद्दों पर एवं समस्याओं के समाधान के लिये हो तभी लाभदायी है। लोकमान्य तिलक ने कहा भी है कि- ‘मतभेद भुलाकर किसी विशिष्ट कार्य के लिये सारे पक्षों का एक हो जाना जिंदा राष्ट्र का लक्षण है।’ राजनीति के क्षेत्र में आज सर्वाधिक चिन्तनीय विषय है- विपक्षी दलों का सत्तापक्ष के प्रति विरोध या आक्षेप-प्रत्याक्षेप करना। सत्ता पक्ष को कमजोर करने के लिये संसदीय कार्रवाई को बाधित करना और तिल का ताड़ बनाने जैसी स्थितियों से देश का वातावरण दूषित, विषाक्त और भ्रान्त बनता है।
देश की संसद को निरपेक्ष भाव एवं सकारात्मक ढंग से राष्ट्रीय परिस्थितियों का जायजा लेते हुए लोगों को राहत प्रदान करने के प्रावधानों पर चिन्तन-मंथन के लिये संचालित करना होगा। संसद केवल विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच वाद-विवाद का स्थल नहीं होती है बल्कि जन हित में फैसले करने का सबसे बड़ा मंच होती है। इसके माध्यम से ही सत्तारूढ़ सरकार की जवाबदेही और जिम्मेदारी तय होती है और जरूरत पड़ने पर जवाबतलबी भी होती है परन्तु यह भी सच है कि सत्ता और विपक्ष की संकीर्णता एवं राजनीतिक स्वार्थ देश के इस सर्वोपरि लोकतांत्रिक मंच को लाचार भी बनाते हैं जो 130 करोड़ जनता की लाचारी बन जाते हैं। फिलहाल देश कोरोना के संक्रमण काल से गुजर रहा है अतः सबसे बड़ी जरूरत यह है कि संसद में कोरोना से निपटने की वह पुख्ता नीति तय हो जिससे चालू वर्ष के दौरान प्रत्येक वयस्क नागरिक को वैक्सीन देकर संक्रमण की भयावहता को टाला जा सके। बढ़ती महंगाई पर काबू पाने की भी सार्थक बहस हो एवं महंगाई पर नियंत्रण की व्यवस्था हो।
19 जुलाई से 13 अगस्त तक चलने वाले सत्र के दौरान सरकार की तरफ से 17 विधेयक पेश करने की योजना बनाई गई है तथा पहले से लंबित 38 विधेयकों में से नौ को पारित किया जाना है। यदि विपक्ष हंगामा करने को अपना मकसद नहीं बनाता और सत्तापक्ष उसकी ओर से उठाए गए मुद्दों को सुनने के लिए तत्पर रहता है तो संसद का यह मानसून सत्र एक कामकाजी सत्र का उदाहरण बन सकता है। संसद में केवल ज्वलंत मसलों पर उपयोगी चर्चा ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि विधायी कामकाज भी सुचारू रूप से होना चाहिए। यदि संसद को अपनी उपयोगिता और महत्ता कायम रखनी है तो यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि वहां पर राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर सार्थक चर्चा हो। यह चर्चा ऐसी होनी चाहिए, जिससे देश की जनता को कुछ दिशा एवं दृष्टि के साथ राहत मिले। संसद में राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों पर सार्थक चर्चा के लिए दोनों ही पक्षों को योगदान देना होगा। संसद सत्र के पहले सर्वदलीय बैठकों में इसके लिए हामी तो खूब भरी जाती है, लेकिन अक्सर नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही अधिक रहता है।
संसद राज्यों की संरक्षक एवं मार्गदर्शक भी है और जब हम भारत के विभिन्न राज्यों की तरफ नजर दौड़ाते हैं तो सर्वत्र बेचैनी, समस्याओं एवं अफरातफरी का आलम देखने को मिलता है। कहीं धर्म के नाम पर हिंसा तो कहीं आतंकवाद को शह देने की कोशिशें हो रही हैं। कहीं किसानों का आन्दोलन पिछले सात महीने से राजधानी के दरवाजे पर चल रहा है तो कहीं जानबूझकर स्थितियों को धार्मिक रंग दिया जा रहा है। बंगाल के चुनावों में एवं उसके बाद की हिंसक घटनाएं चिन्ता का कारण बनी हैं। भले ही वहां भाजपा को हार को मुंह देखना पड़ा, जिससे निश्चित रूप से विपक्ष का हौसला बढ़ा है। विपक्ष की नजर अब उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड पर है, जहां अगले साल चुनाव हैं। बंगाल के चुनावों ने विपक्ष को लड़ना सिखा दिया है लेकिन सार्थक जन-प्रतिनिधित्व से दूर भी किया है। इसलिए इस बार संसद के भीतर भी बिखरे विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशें हो रही हैं। यह एकजुटता अच्छी बात है, लेकिन इसकी सकारात्मकता भी जरूरी है।
एक बात और विपक्ष आक्रामक रहकर भले ही अपनी राजनीतिक बढ़त बनाने की कोशिश करे, लेकिन इसके बावजूद वह विधायी कार्य में कोई अड़ंगा न डाले। किसी भी तौर पर यह भविष्य की नजीर नहीं बननी चाहिए क्योंकि एक व्यक्ति की हिमाकत पूरे लोकतन्त्र को प्रदूषित नहीं कर सकती। हमारी संसद तभी लोकतन्त्र में सर्वोच्च कहलाती है जब यह अपने ही बनाये गये नियमों का शुचिता, अनुशासन एवं संयम के साथ पालन करती है। अगर हम संसद में बैठे राजनीतिक दलों की हालत देखें तो वह भी बहुत निराशा पैदा करने वाली लगती है। कहने को कांग्रेस विपक्षी पार्टी है मगर जिन राज्यों में वह सत्ता में है उनमें आपस में ही इसमें सिर फुटव्वल का वातावरण बना हुआ है। पंजाब में कांग्रेस पार्टी नवजोत सिंह सिद्धू एवं मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के बीच हास्यास्पद संग्राम का अखाड़ा बनी हुई है।
इन जटिल हालातों में स्वयं के जीवन के लिए एवं दूसरों के साथ जीने के लिए दो चीजें आवश्यक हैं, वे हैं समझौता व समझ। देश-विदेश के सभी लेनदेन-व्यापार, परस्पर सम्बन्ध समझौता व संधि के आधार पर ही चलते हैं। हर स्तर पर एक समझौता होता है, नीतिगत और व्यवस्थागत। बल्कि पूरे जीवन को ही समझौते का दूसरा नाम कहा गया है। अपने आसपास के लोगों के साथ, परिवारजनों के साथ, स्थितियों के साथ, विचारों के साथ अपने जीवन साथी के साथ और यहां तक अपने शरीर के साथ जहां भी समझौता नहीं, वहां अशांति और असंतुलन/बिखराव हो जाते हैं। राजनीति में तो विशेष तौर पर यह स्थिति देखने को मिलती है। समझौते के आधार पर कई बार अधिकारों को लेकर, विचारों को लेकर, नीति को लेकर फर्क आ जाता है, टकराव की स्थिति आ जाती है। समझौता मौलिक नहीं होता, कई तानों-बानों से बनता है। इसमें मिश्रण भी है। माप-तौल भी है। ऊँचाई-निचाई भी है और प्रायः मजबूरी व दबाव भी सतह पर ही दिखाई देते रहते हैं।
पर समझ जहां परस्पर बन गई और समझ के आधार पर ही सब संचालित हो रहा हो, वहां शांति है, राष्ट्रीयता है और संतोष है। वहां कुछ भी घालमेल नहीं है। वह कई कुओं का मिश्रित क्लोराइन से शुद्ध किया पानी नहीं अपितु वर्षा का शुद्ध पानी है, जिसमें कीड़े नहीं पड़ते। समझ प्राकृतिक है। समझौता मनुष्य निर्मित है। समझ निर्बाध जनपथ है। समझौता कंटीला मार्ग है, जहां प्रतिक्षण सजग रहना होता है।
समझ स्वयं पैदा होती है। समझौता पैदा किया जाता है। पर जहां-कहीं समझ का वरदान प्राप्त नहीं है वहां समझौता ही एकमात्र विकल्प है। प्रजातंत्र में प्रदत्त अधिकारों की परिधि ने समझ की नैसर्गिकता को धुंधला दिया है। अतः समझौता ही संचालन शैली बन चुका है। समझ और समझौता दोनों ही वस्त्र हैं जो हमारे जीवन रूपी शरीर को गर्मी-सर्दी से बचाते हैं। फर्क इतना ही है कि एक सूती कपड़ा है और दूसरा टेरीलिन है। संसद का मानसूत्र सत्र समझ को विकसित करने का माध्यम बने, इसके लिये सत्ता पक्ष एवं विपक्ष दोनों को ही पहल करनी होगी, तभी लोकतंत्र जीवंतता प्राप्त कर सकेगा।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)