हिंदुत्व का चोला ओढ़कर जनता को ठगने में जुटीं विपक्षी पार्टियां

By डॉ. विजय सोनकर शास्त्री | Jul 26, 2018

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के विकासवादी राजनीतिक एजेंडे को तोड़ने के लिए क्या भाजपा विरोधी शक्तियां अब हिंदुत्व का चोला ओढ़कर जनता को ठगने की तैयारी करने में जुट गयी हैं? स्वतंत्रता के बाद ‘कहीं जाति और कहीं धर्म‘ के नाम पर जनता को बांट कर सत्ता की मलाई खाने वाले भाजपा विरोधी राजनीतिक दल क्या अब एक बार फिर अपनी रणनीति के लिए, उसी भगवा रंग का उपयोग के अवसर की प्रतीक्षा में हैं, जिस भगवा रंग के विरुद्ध कई वर्षों से भारत की जनता के बीच अभियान चलाते आ रहे थे? कहीं ऐसा तो नहीं, प्रधानमंत्री मोदी के विकासवाद को रोकने के लिए कांग्रेस, लेफ्ट और कट्टर मुस्लिम विचारधारा से जुड़े लोग अब हिंदुत्व के नाम पर देश की जनता को फिर से बरगला कर खोयी हुई सत्ता को पुनः प्राप्त करने के लिए एकत्रित हो कर काम पर जुट गए हैं?

 

यह वह प्रश्न हैं, जो गुजरात चुनाव के बाद पैदा हुए हैं। विगत दिसम्बर माह के मध्य गुजरात में हुए विधानसभा चुनाव अभियान के समय जहां गुजरात की 90 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या को एक बार फिर से जातियों में बांटा गया वहीं हिंदुत्व के नाम पर भी जनता को भाजपा सरकार के विरुद्ध भड़काने का पूरा प्रयास हुआ। गुजरात में वर्षों बाद विधानसभा चुनाव में सुनियोजित रूप से जहां हिन्दू जनता को पाटीदार, दलित, अगड़े-पिछड़े में विभक्त कर दिया गया, वहीं हिंदुत्व के भगवा चोले का उस कांग्रेस ने पूरी सफाई से भरपूर उपयोग भी किया, जिस हिंदुत्व को देश और जनता के लिए अत्यंत अहितकर बताने का वर्षों से अभियान चलाया जा रहा है। 2014 में भाजपा और नरेंद्र मोदी की विकासवादी राजनीति से पिटने के बाद कांग्रेस और उसका परोक्ष और अपरोक्ष रूप से साथ देने वाले वामपंथी, मुस्लिम और अन्य राजनीतिक दल, फिर से सत्ता प्राप्त करने के लिए हिन्दू और हिंदुत्व के एजेंडे को हथियाने के अभियान में दिन-रात एक करने में लग चुके हैं। सभी का लक्ष्य केवल और केवल यही है कि इस वर्ष होने वाले कई राज्यों के विधानसभा चुनाव से लेकर 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में किसी भी तरह भाजपा की केंद्र से लेकर राज्य सरकारों को पराजित कर सत्ता पर फिर से कब्ज़ा किया जाए।

 

पिछले लोकसभा चुनाव में बुरी तरह मिली पराजय के बाद से कांग्रेस बौखलाई हुई है। उसकी बौखलाहट 2014 के बाद कई राज्यों में लगातार मिलती हार से बढ़ती ही जा रही है। कुछ ऐसा ही हाल स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस का परोक्ष और अपरोक्ष रूप से साथ देते आ रहे वामपंथी और मुस्लिम दलों का भी है। सभी के लिए आघात का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि स्वतंत्रता के बाद से देश की हिन्दू जनता को जिस तरह उन्होंने जाति-धर्म के नाम पर बांट कर सत्ता चलायी थी, वही हिन्दू जनता भाजपा राज में जाति-धर्म के बंधनों से स्वयं को मुक्त करके, देश और समाज के विकास के लिए एकजुट हो रही है।

 

भाजपा राज में साकार होती “रामराज” की अवधारणा से निपटना पिछले तीन वर्षों से भाजपा विरोधी शक्तियों को भारी पड़ता आ रहा है। गुजरात में कांग्रेस के नेताओं ने जिस तरह मंदिर-मंदिर चक्कर लगाए, जनेऊ धारण करने का स्वांग किया, खुद को शिव भक्त से लेकर तमाम देवी-देवताओं का भक्त साबित करने के प्रयास किए, वह कांग्रेस की उस नयी रणनीति के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें जाति के नाम पर वोट हासिल करने के लिए जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकुर और हार्दिक पटेल जैसे लोगों का इस्तेमाल किया गया और खुद कांग्रेस के नेता अपने आप को जाति-धर्म से दूर रखकर, जनेऊ धारण करने का स्वांग रचते हुए मंदिर-मंदिर पहुंच कर खुद को हिन्दू बताते रहे। इस सन्दर्भ में ध्यान देने लायक बात यह भी है कि गुजरात में जो नेता खुद को हिन्दुओं का करीबी बताते हुए थक नहीं रहे थे, वही नेता केरल में गौकशी के समर्थन में होने वाले प्रदर्शनों और गौमांस खाने के लिए पिछले साल सड़कों पर झुंड लगाकर खड़े वामपंथियों के साथ भी मौजूद थे।

 

कांग्रेस, वामपंथियों और मुस्लिमों की चुनावी और सत्ता सम्बन्धी रणनीति पर अगर ध्यान दिया जाए तो कहना गलत नहीं होगा कि वर्षों से एक षड्यंत्र के रूप में देश की हिन्दू जनता को बांटा गया और उसका उपयोग सत्ता हथियाने के लिए किया गया। ध्यान दीजिए, वर्तमान कांग्रेस पार्टी को जिस कालखंड में पैदा किया गया था, उस समय देश परतंत्र था और अंग्रेज इस देश की पावन भूमि को रौंदते हुए अपनी सत्ता के माध्यम से देश को लूटने में लगे थे। तत्कालीन दौर में देश के हिन्दू समाज ने जब अंग्रेजों की सत्ता और देश विरोधी कार्यों का विरोध शुरू किया तो बड़ी सफाई के साथ, तत्कालीन दौर के चंद कुलीन वर्गों के लोगों को साथ में लेकर 28 दिसंबर 1885 को अखिल भारतीय कांग्रेस नामक एक संगठन खड़ा किया गया। अंग्रेज शासकों के हितों और उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति की खातिर बनाये गए कांग्रेस संगठन में एओ ह्यूम की जहां महत्वपूर्ण भूमिका रही, वहीं संगठन में दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा को शामिल करके देश की हिन्दू जनता को साधने का काम शुरू किया गया।

 

प्रारंभिक दौर में कांग्रेस जहां अंग्रेज हितों के लिए काम करती रही, वहीं जब कांग्रेस संगठन में सदस्यों की संख्या डेढ़ करोड़ से ऊपर पहुंच गयी तो संगठन को चलाने वाले पर प्रश्न भी उठने लगे कि आखिर खुल कर अंग्रेजों के विरोध में क्यों नहीं उतरा जा रहा है ? नतीजा यह निकला कि कांग्रेस के अंदर “नरम” और गरम” नाम से दो दल बन गए। 1907 में टुकड़ों में बंटी कांग्रेस में गरम दल का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं बिपिन चंद्र पाल ने किया, जो कि पूर्ण स्वराज की मांग उठाकर संघर्ष छेड़ना चाहते थे, वहीं नरम दल का नेतृत्व करने वाले गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोजशाह मेहता एवं दादा भाई नौरोजी जैसे लोग अंग्रेजों की सत्ता के अधीन रहकर ही देश में सिर्फ स्वशासन की व्यवस्था चाहते थे। वर्षों तक नरम-गरम दलों के बीच झूलती रही कांग्रेस, प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने के बाद 1916 की लखनऊ में हुई बैठक में फिर एकजुट तो हो गयी, पर कांग्रेस की हालत और अपने हितों को समझते हुए अंग्रेजों ने एक नयी रणनीति पर काम शुरू कर दिया।

 

अंग्रेज शासकों को ज्ञात था कि अगर भारत की हिन्दू जनता एकमत होकर संगठित हो गयी तो उन्हें देश छोड़ना ही होगा, इसी लिए उस समय के तत्कालीन अंग्रेज शासकों ने देश की जनता को जाति और धर्म में तोड़ने के प्रयास शुरू कर दिये। भारत की जनता की एकजुटता को तोड़ने के षड्यंत्रों पर धीरे-धीरे जो काम शुरू हुआ, उसे डॉ. केशव राव बलीराम हेडगेवार जैसे लोगों ने महसूस करना शुरू किया। कांग्रेस के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने वालों के साथ खड़े डॉ. केशव राव हेडगेवार ने जहां अंग्रेजों की हिन्दू विरोधी नीतियों के खिलाफ कांग्रेस को छोड़ दिया और 1925 में हिन्दू हितों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।

 

भारत की जनता के खिलाफ अंग्रेजों के षड्यंत्र का परिणाम 1921 में ‘खिलाफत आंदोलन‘ के रूप में सामने आया। 1922 में गांधी जी ने जब खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और फिर देश में मुस्लिम सांप्रदायिकता का नया रूप सामने आया। खिलाफत आंदोलन के कारण देश के कई हिस्सों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। अंग्रेजों ने इन दंगों का अपरोक्ष रूप से जिस तरह समर्थन किया, उसका नतीजा हिन्दू जनसंख्या के नरसंहार और देश के अंदर नए रूप में पैदा हुई साम्प्रदायिकता के रूप में सामने आया।

 

अंग्रेजों द्वारा हिन्दुओं को तोड़ने के षड्यंत्र का एक अन्य उदाहरण 1931 की जनगणना के बाद उस वक्त सामने आया, जब जनसंख्या के आंकड़ों के वर्गीकरण में “डिप्रेस क्लास” नामक नए शब्द का इस्तेमाल किया गया। “डिप्रेस क्लास” के तहत देश के उन सभी हिन्दुओं को रख दिया गया जो समाज के कमजोर, अशिक्षित, निर्बल और कुलीन वर्गों से नहीं जुड़े थे।

 

इसी डिप्रेस क्लास में शामिल की गयी जनता को धीरे-धीरे जातियों में बांटने की जो शुरुआत हुई, उसका एकमात्र मकसद देश की हिन्दू संस्कृति और समाज को खंड-खंड करना था। स्वतंत्रता मिलने तक कांग्रेस के नेहरू-गांधी जैसे नेता एक षड्यंत्र के तहत जातियों में बंटते जा रहे हिन्दू समाज के साथ ही अन्य पंथ के लोगों को एकसाथ लेकर चलते रहे। लेकिन स्वतंत्रता के बाद जब सत्ता मिलने का प्रश्न आया तो हिन्दू समाज को जाति और धर्म के विभेद में बांधने का अभियान ही प्रांरभ हो गया। नेहरू-गांधी के अभियान का जिसने भी खुल कर विरोध करने का प्रयास किया, उसे किनारे कर दिया गया, वह चाहे डॉ बी आर आम्बेकर रहे हों या सरदार बल्लभभाई पटेल। यह तो पहले से तय था कि स्वतंत्रता के उपरांत देश की सत्ता कांग्रेस को मिलेगी। पर सत्ता हासिल करने के बाद कांग्रेस नेता नेहरू ने देश की हिन्दू जनता को धीरे-धीरे जातियों के आधार पर देखने की जो शुरुआत की, वह समय के साथ देश के अंदर एक जटिल जाति व्यवस्था में बदल गयी।

 

यहां पर यह जानना भी जरुरी है कि राष्ट्रीय एवं हिन्दू हितों को ध्यान रखते हुए 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हो चुकी थी। डॉ बी आर आंबेडकर ने रिपब्लिकन पार्टी के माध्यम से दलित मतदाताओ को राजनीतिक रूप से एकत्रित करने का सफल प्रयास किया एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक स्वर्गीय दत्तोपंत ठेगडी को सलाह दी कि संघ को भी एक राजनीतिक दल बनाना चाहिए। स्वर्गीय दत्तोपंत ठेगडी, डॉ बी आर आंबेडकर के संपर्क में 1950 से लगातार रहे। स्वतंत्रता के बाद डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में एक नए राजनीतिक दल की स्थापना की गयी, जिसका नाम जनसंघ रखा गया। कांग्रेस की जाति–धर्म पर केंद्रित तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीति के प्रत्युत्तर और राष्ट्रवाद के समर्थन के लिए बनाए गए राजनीतिक दल जनसंघ, स्वैच्छिक रूप से हिन्दू राष्ट्रवादी संघटन था, जिसका उद्देश्य भारत की “हिन्दू” सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करना और कांग्रेसी प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू के मुस्लिम और पाकिस्तान को लेकर तुष्टीकरण को रोकना था। एक राजनीतिक दल के रूप में 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में जनसंघ को तीन सीटें प्राप्त हुई, जो कि बढ़ते हुए 1957 में 4 सीट 1962 में 14 सीट तथा 1967 में 35 सीटों तक पहुंच गयी। पर बाद में राजनीतिक दल जनसंघ इसलिए सफल नहीं हो पाया क्योंकि 1967 के बाद इंदिरा गांधी ने जहां अपनी सत्ता को बचाने के लिए वामपंथी दलों से हाथ मिला लिया, वहीं जाति–धर्म पर केंद्रित होती जा रही राजनीति ने जनसंघ की राष्ट्रवादी राजनीति को आम जनता से दूर कर दिया।

 

कांग्रेसी प्रधानमंत्री नेहरू के बाद उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने जाति व्यवस्था को इस तरह से पुष्ट किया कि जातिगत आधार पर देश के हर राज्य में नए-नए संघठन खड़े होते चले गए। इन संघठनों के कथित नेताओं का लक्ष्य अपनी जाति का सम्पूर्ण विकास और कल्याण कभी नहीं रहा और वो केवल कांग्रेस की कठपुतली बनकर सत्ता की मलाई चाटते हुए बस स्वहित में ही लगे रहे। आखिर क्या कारण है कि वर्षों तक “गरीबी हटाओ” का नारा देने के बावजूद देश से गरीबी क्यों नहीं समाप्त हुई? आखिर क्या वजह रही कि संवैधानिक रूप से आरक्षण की सुविधा मिलने के बावजूद आज भी देश का दलित समाज स्वयं को अभावग्रस्त महसूस करता है? वह कौन से कारण रहे कि दलितों और जातिगत हितों के लिए जो नेता सामने आये, वह अपने समाज का सम्पूर्ण विकास करने में असफल सिद्ध हुए?

 

ऐसे तमाम प्रश्नों का उत्तर बहुत स्पष्ट है। स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस ने खुद को सत्ता के केंद्र में रखने के लिए देश की हिन्दू जनता को जहां जाति भेद में बांटने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी, वहीं धर्म के आधार जनता को बांट कर कांग्रेस मुस्लिमों और ईसाई समूह की मसीहा भी बन गयी। कांग्रेस की हिन्दू विरोधी रणनीति में भारतीय संस्कृति के सुपरिचित एवं कट्टर विरोधी वामदलों ने अपना भरपूर साथ दिया। परिणामस्वरुप देश के हर राज्य में यानी उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम राज्यों तक जातिगत मसीहा बनकर सत्ता का सुख लेने वाले राजनेता, राजनीतिक दल एवं संघठन का एक ऐसा जमावड़ा लग गया, जिसने देश और जनता का नुकसान करने में कोई कसर 2014 तक बाकी नहीं रखी। कांग्रेस जब सत्ता में नहीं रही, उस दौरान भी-वह चाहे 1977 से 1980 का कालखंड रहा हो या फिर 1989 से 1999 का कालखंड। भाजपा सरकार को छोड़कर जो भी सत्ता में आया, उसने जाति और धर्म की राजनीति में बदलाव के लिए कोई कदम नहीं उठाये और जैसा चल रहा था, उसी राह पर वह भी चल पड़े। 1999 में भाजपा नेता अटल बिहारी बाजपेयी के सरकार का जब समय था तो उस समय राजनीति की दिशा बदलने के प्रयास तो शुरू हुए, पर कांग्रेस द्वारा विकास यानी इण्डिया शाइनिंग का विरोध इस तरह से किया गया कि जनता भ्रमित हो गयी, परिणामस्वरूप अटल सरकार के विकास सम्बन्धी प्रयास भी जनता में कोई खास उम्मीद नहीं जगा पाए।

 

अब यहां समझिये 2014 के बाद देश की राजनीति में और जनता के दिमाग में किस तरह परिवर्तन की लहर दौड़ना शुरू हुई। 2004 से 2014 तक देश की सत्ता में अपने मुस्लिम, वामपंथी और जातिगत आधार पर राजनीति में पैर ज़माने वाले नेताओं के सहारे कांग्रेस ने केवल सत्ता का सुख नहीं भोगा, बल्कि जनहितों के नाम पर देश की जनता के संसाधनों की जमकर लूट करने में कसर नहीं छोड़ी। भ्रष्टाचार के तमाम मामलों के बीच 2001 में गुजरात की सत्ता हासिल करने के बाद जनता के बीच जाति-धर्म की बेड़ियों को तोड़कर जब नरेंद्र मोदी जी ने काम शुरू किया, तो उनका मात्र लक्ष्य विकास और समाज की समग्र प्रगति था। 2014 तक गुजरात की सत्ता में रहकर उन्होंने अपने विकास के लक्ष्य को हासिल करने के लिए दिन-रात मेहनत की और गुजरात में विकास के जिस मॉडल की सफल नींव डाली, उसका डंका देश के अन्य राज्यों से लेकर विदेश में रहने वाली जनता ने भी सुना। विकास के इस मॉडल ने जहां गुजरात को देश का सबसे अधिक सफल और विकसित राज्य बना दिया, वहीं विकास की दौड़ में भारतीय राजनीति की गहराई से प्रायोजित जाति-धर्म की सीमाएं भी बिखरती चली गयी। 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पूरे देश में जाति-धर्म के बंधन को राजनीति से बिलकुल किनारे रखकर केवल विकासवाद को जिस तरह से लागू किया, उसे देश की जनता से लेकर विदेश के लोगों ने भी महसूस किया। अपने विकासवादी एजेंडे को पूरे देश की जनता के बीच एक सफल नायक के रूप में काम कर रहे प्रधानमंत्री मोदी की सफलता से आज घबराई हुई कांग्रेस और उसके मुस्लिम एवं वामपंथी सहयोगियों को यह रास नहीं आ रहा है। इसका नतीजा कभी रोहित वेमुल्ला की कथित मौत के रूप में, तो कभी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में कन्हैया एंड कंपनी के भारत माता विरोधी नारों के रूप में, तो कहीं गौ माता के मांस को खाने के लिए जुटी कांग्रेस एंड कंपनी के नेताओं की भीड़ के रूप में तो कभी अवार्ड वापसी गैंग के रूप में सामने आता रहा है और आगे भी नजर आएगा।

 

इसे एक सोच-समझ कर प्रायोजित षड्यंत्र कहा जाए या फिर कांग्रेस, वामपंथियों, कट्टर मुस्लिम नेताओं और विदेशी ताक़तों के गठजोड़ से तैयार हुई एक नयी रणनीति का नमूना 2015 से ही गुजरात में दिखने लगा जहां नए-नए मोहरे तैयार करके कहीं पाटीदारों के हितों के नाम पर आंदोलन खड़ा किया तो कहीं संघठित हिन्दू समाज को फिर से जातिगत आधार पर आरक्षण दिलाने के नाम पर एकजुट किया गया। इतना ही नहीं, कांग्रेस ने उसी हिंदुत्व के चोले को धारण करके जनता के बीच जाने से परहेज नहीं किया, जिस भगवा चोले को कांग्रेस ने आंतकवादी साबित करने की पूरी एक सुनियोजित मुहिम चलाई थी। अभ्रद और असंसदीय भाषा के साथ ही ऐसे तमाम हथकंडों को अपनाने का उद्देश्य केवल और केवल यह था कि किस तरह से विकासवाद के उस राजनीतिक एजेंडे को धवस्त किया जाए और जाति-पाति, पंथ-संप्रदाय एवं वंशवाद को पुनर्स्थापित किया जाये, जिससे कांग्रेस एंड कंपनी फिर से सत्ता तक पहुंच सके।

 

लेकिन गुजरात चुनाव में भाजपा ने विरोधियों के सभी कुत्सित प्रयासों को ध्वस्त करके दिखा दिया कि देश की जनता का बहुमत अब जाति-धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों के साथ नहीं है। परन्तु कांग्रेस एंड कंपनी यानी कांग्रेस, कट्टर मुस्लिम संघटन और वामपंथी गुजरात में मिली हार से हताश नजर नहीं आते है। आने वाले समय में यह सभी फिर एकजुट होकर भाजपा द्वारा भारतीय राजनीति में बड़ी कठिनाई से स्थापित विकासवादी राजनीति को धवस्त करने के प्रयास फिर से करेंगे और ऐसे में वह कभी जनेऊ भी पहन सकते है तो मंदिर-मंदिर जाकर खुद को सबसे बड़ा हिंदुत्ववादी साबित करने की दौड़ में भी पीछे नहीं रहेंगे।

 

समझना यह भी होगा कि अब देश 21वी सदी के उस समय में जी रहा है, जब इंटरनेट और आधुनिक संचार साधनों ने नगर से लेकर गांव तक, देश से लेकर विदेश तक की दूरी को खत्म कर दिया है। अब हिन्दू जनता को बरगलाना और अपने हितों को साधना इतना आसान नहीं रह गया है, जितना दस साल पहले था। साथ ही कांग्रेस एंड कंपनी को यह भी समझना ही होगा कि देश को कट्टर मुस्लिम की नहीं, बल्कि डॉ कलाम ऐसे मुस्लिम व्यक्ति की जरुरत होती है, जो समाज और देश के समग्र विकास के लिए जाति-धर्म के बंधन से ऊपर उठ कर काम कर सके। अब आवश्यकता नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं, ऐसे वैज्ञानिकों, ऐसे समाजशास्त्रियों, ऐसे प्रशासकों, ऐसे उद्योगपतियों, ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों और ऐसी जनता की है, जो विकासवाद और देश की समग्र प्रगति को समझे और एकजुट होकर ऐसे भारत का निर्माण करे, जिसके परम वैभव का पूरा विश्व नतमस्तक होकर सराहना करे और जिसकी एकजुटता को भंग करने की कोई सोच भी न सके।

 

- डॉ. विजय सोनकर शास्त्री

लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता एवं पूर्व सांसद हैं।

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