By नीरज कुमार दुबे | Jun 08, 2023
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वो काम कर दिखाया है जो इससे पहले विपक्ष के तमाम नेता नहीं कर पाये थे। देश में सबसे बड़े मोदी विरोधी के रूप में अपनी पहचान बनाने को आतुर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उन तमाम विपक्षी पार्टियों के नेताओं को एक मंच पर लाने में सफलता हासिल कर ली है जो इससे पहले तक तरह-तरह के कारणों के चलते एक साथ और एक मंच पर नहीं आते थे। लेकिन नीतीश ने विपक्षी नेताओं को एक करने के लिए जो देश भ्रमण अभियान शुरू किया था उसके अपेक्षित परिणाम सामने आये हैं। बिहार में सत्तारुढ़ महागठबंधन की ओर से बताया गया है कि राहुल गांधी, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, मल्लिकार्जुन खरगे, एमके स्टालिन, हेमंत सोरेन, अखिलेश यादव, शरद पवार और उद्धव ठाकरे आदि सभी बड़े विपक्षी नेता 23 जून को पटना में होने वाली बैठक में शामिल होंगे। इसके अलावा नीतीश कुमार, लालू यादव और वामदलों के नेता तो इस बैठक में मेजबान की भूमिका में रहेंगे ही।
विपक्ष का फॉर्मूला
बताया जा रहा है कि विपक्षी दलों के बीच इस बात पर लगभग सहमति बन गयी है कि देश की 543 संसदीय सीटों में से 450 पर विपक्षी दलों का संयुक्त उम्मीदवार भाजपा उम्मीदवार से टक्कर लेगा। विपक्ष का पूरा प्रयास है कि भाजपा विरोधी मतों का बंटवारा किसी भी हालत में नहीं होने पाये इसके लिए किसी दल को यदि कुछ त्याग भी करना पड़े तो वह भी किया जायेगा। बताया जा रहा है कि कांग्रेस की ओर से कम से कम 350 संसदीय सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की बात पर अड़े रहने की वजह से विपक्षी एकता में दिक्कत आ रही थी लेकिन अब कांग्रेस भी कुछ और त्याग करने के लिए राजी हो गयी है। अभी हाल ही में अपने अमेरिकी दौरे के दौरान राहुल गांधी ने एक सवाल के जवाब में स्पष्ट कर दिया था कि भाजपा और आरएसएस को हराने के लिए कांग्रेस को और बड़ा त्याग करना होगा तो वह करेगी। वर्तमान में भाजपा के पास अकेले दम पर लोकसभा में 301 सीटें हैं। विपक्ष का प्रयास है कि अगली लोकसभा में 450 सीटें जीत कर भाजपा को विपक्ष का दर्जा हासिल करने लायक भी नहीं छोड़ा जाये।
कांग्रेस के समक्ष कुछ सवाल
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता के लिए यह फॉर्मूला पहले ही दे चुकी हैं कि जिस राज्य में जो दल मजबूत है उसको बाकी विपक्षी दल अपना पूरा समर्थन दें ताकि भाजपा का पूरी ताकत के साथ मुकाबला किया जा सके। लेकिन इस फॉर्मूले से सबसे ज्यादा दिक्कत कांग्रेस को ही है। दरअसल कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर पर आधार है और कई राज्यों में उससे क्षेत्रीय दलों ने ही सत्ता छीन ली है। ऐसे में कांग्रेस के लिए यह बड़ा मुश्किल हो रहा है कि कैसे वह दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी के समक्ष समर्पण कर दे, कैसे वह तेलंगाना में बीआरएस, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा, बिहार में जनता दल युनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल और तमिलनाडु में द्रमुक आदि के समक्ष समर्पण कर दे। वैसे कांग्रेस की केंद्रीय इकाई भले इस समर्पण के लिए राजी हो गयी है लेकिन उसकी प्रांतीय इकाइयां ऐसे किसी समझौते के विरोध में हैं। अब शरद पवार ने ममता के फॉर्मूले में थोड़ा संशोधन करके राज्य की बजाय सीट पर फोकस करते हुए सुझाव दिया है कि जिस सीट पर जो पार्टी मजबूत है वह उस सीट पर अपना उम्मीदवार उतारे और बाकी विपक्षी दल उस उम्मीदवार का सहयोग करें।
कांग्रेस के बारे में अन्य विपक्षी दलों की राय
इसके अलावा विपक्षी एकता की राह में कांग्रेस की 'अकड़' भी आड़े आ रही है। बताया जा रहा है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि दिल्ली के लिए केंद्र सरकार की ओर से लाये गये जिस विवादित अध्यादेश के विरोध में वह देश के अन्य विपक्षी दलों से मिलकर समर्थन मांग रहे हैं उसके लिए अभी तक कांग्रेस नेताओं ने समर्थन तो दूर अब तक मिलने का समय भी नहीं दिया है। ऐसी ही शिकायत कुछ और विपक्षी दलों की है। यह दल कहते रहे हैं कि कांग्रेस को बड़े भाई वाला रवैया छोड़ना होगा तभी बात बन पायेगी। लेकिन सवाल यह है कि कर्नाटक में प्रचंड जीत से गदगद और राहुल गांधी को नये अवतार में पाकर हर्षित हो रही कांग्रेस क्या बड़े भाई वाला रवैया छोड़ेगी?
कुछ बड़े सवाल
इसके अलावा मोदी विरोध के नाम पर यह विपक्षी मोर्चा एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले फोटो तो खिंचवा लेगा लेकिन सवाल वही बना रहेगा कि इस मोर्चे का नेता कौन होगा? यह सवाल इसलिए महत्व रखता है क्योंकि इस मोर्चे में शामिल अधिकांश नेता प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा रखते हैं। अरविंद केजरीवाल की पार्टी कह चुकी है कि अगला लोकसभा चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल होगा। बीआरएस पार्टी के नेता के. चंद्रशेखर राव दावा कर चुके हैं कि अगले लोकसभा चुनावों के बाद उनकी पार्टी देश में सरकार बनायेगी। शरद पवार और ममता बनर्जी पहले से ही प्रधानमंत्री पद की रेस में हैं। राहुल गांधी कई मौकों पर कह चुके हैं कि यदि प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो वह इस जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटेंगे। ऐसे में देखना होगा कि विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व का मसला कैसे सुलझ पाता है। वैसे, जब भाजपा की ओर से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि अगला लोकसभा चुनाव प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में ही लड़ा जायेगा तो विपक्ष को भी जनता को चुनावों से पहले ही यह बताना चाहिए कि उसकी ओर से नेता कौन होगा?
हम आपको यह भी बता दें कि विपक्षी एकता के ऐसे ही प्रयास हाल ही में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी किये गये थे लेकिन यह सफल नहीं हो पाये थे। कई विपक्षी दलों ने एनडीए के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति उम्मीदवार का समर्थन किया था। यही नहीं, हाल ही में संसद के नये भवन के उद्घाटन समारोह का 19 विपक्षी दलों ने भले बहिष्कार किया था लेकिन कई विपक्षी दल उसमें शामिल भी हुए थे।
बहरहाल, बिहार से हमेशा देश में राजनीतिक और सामाजिक क्रांति होती रही हैं। देखना होगा कि विपक्ष का पटना महासम्मेलन क्या 2024 के चुनाव के लिए कोई नया मुकाम हासिल कर पाता है? यदि यह विपक्षी एकता रंग लाई तो पहली बार दिल्ली की गद्दी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर नहीं बल्कि पटना से होकर जायेगा।