Prabhasakshi NewsRoom: Sengol को सामान्य राजदंड समझने वाले नेता ही संसद में इसका विरोध करते हैं

By नीरज कुमार दुबे | Jun 27, 2024

लोकसभा चुनावों के समय से संविधान को लेकर चल रही बहस नई लोकसभा के पहले सत्र में भी छायी रही। विपक्षी सांसदों ने संविधान की प्रति लेकर लोकसभा की सदस्यता की शपथ ली। यही नहीं, विपक्ष की ओर से मोदी सरकार को बार-बार याद दिलाया जा रहा है कि वह संविधान का सम्मान करे। मगर संविधान की दुहाई देते-देते विपक्ष अब पवित्र सेंगोल के विरोध में खड़ा हो गया है। समाजवादी पार्टी के सांसद आरके चौधरी ने सेंगोल का विरोध करते हुए कहा है कि संसद में इसकी जगह संविधान की प्रति स्थापित करनी चाहिए। उन्होंने कहा है कि सेंगोल का हिंदी अर्थ है राजदंड। आरके चौधरी ने कहा कि राजदंड को राजा की छड़ी भी कहा जा सकता है। उन्होंने कहा है कि मोदी सरकार को यह बताना चाहिए कि देश संविधान से चलेगा या फिर राजा के डंडे से चलेगा? उन्होंने कहा कि इसलिए हमारी मांग है कि अगर लोकतंत्र को बचाना है तो संसद भवन से सेंगोल को हटाना चाहिए। हम आपको याद दिला दें कि जब पवित्र सेंगोल को संसद में स्थापित किया जा रहा था तब भी विपक्ष के कई नेताओं ने इसका विरोध किया था। यह विरोध अब फिर मुखर होते ही इस पर राजनीति भी तेज हो गयी है।


लेकिन एक तथ्य यह भी है कि पवित्र सेंगोल का विरोध करने वाले इसका महत्व ही नहीं जानते। हम आपको बता दें कि संसद में स्थापित पवित्र सेंगोल को पहले थम्बीरन स्वामी ने लॉर्ड माउंटबेटन को सौंपा था, जिन्होंने इसे वापस उन्हें (थम्बीरन स्वामी को) भेंट कर दिया था। इसके बाद, पारंपरिक संगीत की धुनों के बीच एक शोभायात्रा निकालकर सेंगोल को पंडित जवाहरलाल नेहरू के आवास पर ले जाया गया था। वहां थम्बीरन स्वामी ने सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में सेंगोल नेहरू को भेंट किया था। बाद में इस सेंगोल को संग्रहालय में भेज दिया गया था। जो लोग सेंगोल को सामान्य राजदंड समझ रहे हैं उन्हें शायद पता नहीं कि यह एक न्यायपूर्ण और निष्पक्ष शासन की आवश्यकता को दर्शाता है और तमिल साहित्य में तिरुक्कुरल सहित कई पुस्तकों में सेंगोल का जिक्र है। स्पष्ट है कि जो लोग सेंगोल को सामान्य राजदंड समझ रहे हैं उन्हें इसका ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व पता ही नहीं है। हम आपको यह भी बता दें कि यह सेंगोल चोल साम्राज्य के शासनकाल में अपनाई जाने वाली परंपराओं को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था और इस पर ऋषभ (नंदी) का प्रतीक स्थापित किया गया था।

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पवित्र सेंगोल का विरोध करने वालों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि जब इतिहास की गलतियां सुधारी जा रही हों तो उसकी खिलाफत करने की बजाय उसका साथ देना चाहिए। मोदी ने देश के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल को समर्पित विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति स्टैच्यू ऑफ यूनिटी बनाकर उन्हें वह सम्मान दिया जोकि नेहरू और कांग्रेस ने उन्हें नहीं दिया था। मोदी ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाकर नेहरू की सबसे बड़ी गलती को सुधारा लेकिन कांग्रेस समेत विपक्ष के तमाम नेताओं को यह नागवार गुजरा। मोदी ने उस पवित्र सेंगोल को संसद भवन में स्थापित करवाया जो आजादी के समय नेहरू को अभिमंत्रित कर सौंपा गया था। नेहरू ने सेंगोल का सही सम्मान नहीं किया और उसे दिल्ली से दूर प्रयागराज के एक संग्रहालय में भेज दिया था। लेकिन उस ऐतिहासिक सेंगोल को वापस लाया गया और उसे ससम्मान लोकसभा अध्यक्ष के आसन के समीप स्थापित किया गया।


बहरहाल, देखा जाये तो सवाल सिर्फ सेंगोल के विरोध का नहीं है बल्कि इस बात का भी है कि आज के नेता स्वयं को इतिहास में किस रूप में दर्ज कराना चाहते हैं? क्या वह चाहते हैं कि इतिहास उन्हें इस रूप में याद करे कि उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरवशाली प्रतीकों का विरोध किया या वह चाहते हैं कि उन्हें भारतीय संस्कृति और प्रतीकों का सम्मान और प्रचार-प्रसार करने वाले नेता के रूप में याद किया जाये।

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