By अभिनय आकाश | Dec 05, 2020
'वन नेशन वन इलेक्शन' कुछ लाइनें पहली नजर में ही हिट लग जाती है। ये आइडिया भी कुछ-कुछ वैसा ही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पसंदीदा प्रोजेक्ट में से एक वन नेशन वन इलेक्शन भी है। वैसे तो भारत में चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है। ऐसे में क्या पांच साल में एक बार ही जनता को इस उत्सव में शरीक होने या फिर कहे मनाने का मौका मिले या फिर देश में हर वक्त हर हिस्से में उत्सव का माहौल बना रहना चाहिए? देश के प्रधानमंत्री ने 80 वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन में एक आभासी संबोधन में कहा,”एक राष्ट्र, एक चुनाव केवल बहस का विषय नहीं है, यह भारत की आवश्यकता है। जिसके बाद एक बार फिर पूरे देश में एक देश एक चुनाव पर बहस तेज हो गई है। समय और पैसे में से ज्यादा कीमत किसकी है ये तो बहस का विषय है लेकिन एक बात तो साफ है कि 'एक देश-एक चुनाव' कराये जाने की स्थिति में दोनों की बचत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले भी कई बार कह भी चुके हैं कि अगर लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो इससे पैसे और समय की बचत होगी - क्योंकि बार बार चुनाव होने से प्रशासनिक कामकाज पर काफी असर पड़ता है।
हमारे देश में थोड़े-थोड़े समय पर कोई न कोई चुनाव होते ही रहते हैं। लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव उसके बाद पंचायत चुनाव, निगम के चुनाव और उपचुनाव। ऐसा लगता है जैसे हमारा देश हर वक्त चुनावी मोड में ही रहता है। आपको ये शायद जानकारी नहीं होगी कि पिछले तीस बरसों में एक भी वर्ष ऐसा नहीं रहा जिसमें कोई चुनाव न हुआ हो। इससे देश को बहुत नुकसान होता है। बार-बार चुनाव करवाने पर बहुत सारा पैसा खर्च होता है। इसके अलावा बार-बार चुनाव होने की वजह से देश के विकास पर सीधा असर पड़ता है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या अब वक्त आ गया है कि देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाए जाए।
बड़ा सवाल है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के लिए एक देश एक चुनाव कितना फायदेमंद है? अगर फायदेमंद है तो इसके ऊपर से जो फायदे नजर आ रहे हैं उसके पीछे कहीं कोई बड़ा नुकसान तो नहीं छिपा है? सबसे पहले आपको 11 लाइनों में बताते हैं कि आखिर एक साथ चुनाव करवाने की जरूरत क्यों महसूस हुई?
भारत में हर साल 5 से 7 राज्यों के विधानसभा चुनाव होते हैं।
2014 से 2017 के बीच देश में 20 राज्यों के चुनाव हुए।
बार-बार चुनाव का मतलब है बार-बार आचार संहिता का लागू होना।
आचार संहिता की वजह से सरकार के विकास कार्यक्रम और लोक कल्याण की योजनाएं रुकती है।
नियमों के मुताबिक आचार संहिता लागू होने पर सरकार कोई भी नई योजनाएं शुरू नहीं कर सकती और न ही कोई नए ऐलान किए जा सकते हैं।
एक साथ चुनाव करवाने से खर्च भी बचेगा।
2009 के लोकसभा चुनाव में 1115 करोड़ रुपये खर्च हुए।
2014 के लोकसभा चुनाव में ये खर्च बढ़कर 3870 करोड़ रुपए खर्च हुए।
नीती आयोग के डिसक्शन पेपर के मुताबिक एक साथ चुनाव होने के और भी कई फायदे हैं।
एक साथ चुनाव होने से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षाबलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की नौबत नहीं आएगी।
चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल की बात सामने आती रही है, ऐसे में एक साथ चुनाव होने की स्थिति में कालेधन और भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगाने में आसानी होगी।
एक देश एक चुनाव के विरोध में दिए जाने वाले तर्क
संविधान में लोकसभा और विधानसभा चुनाव को लेकर 5 वर्ष की अवधि तय है। संविधान में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ कराने को लेकर कोई भी निश्चित प्रावधान का उल्लेख नहीं है। जिसके आधार पर एक साथ चुनाव कराने को मूल भावना के खिलाफ वाले तर्क दिए जा रहे हैं।
एक देश एक चुनाव को महंगी प्रक्रिया बताया जा रहा है और कहा जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराने के लिए विधि आयोग के 4500 करोड़ रुपए के नए ईवीएम खरीदने पड़ेगे। 2024 में एक साथ चुनाव कराने के लिए 1751.17 करोड़ केवल ईवीएम पर खर्च करने पड़ेंगे।
केंद्र सरकार के पास राज्य की सरकारों को अनुच्छेद 356 के अंतर्गत भंग करने का अधिकार है। इस अधिकार के रहते एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते।
लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव एक साथ होने पर कुछ विधानसभाओं के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या फिर घटाया जाएगा, इससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित होगी।
एक साथ दोनों चुनाव होने पर संभावना जताई जा रही है कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएंगे या फिर इसके उलट भी हो सकता है। या तो राष्ट्रीय पार्टियों के क्षेत्र का विस्तार हो जाएगा और जिसकी वजह से क्षत्रपों का दायरा सिमट जाएगा। या मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे छोटे हो जाएं या इसका उलटा हो जाए। राष्ट्रीय पार्टियों का क्षेत्र विस्तृत होता जाएगा और क्षेत्रीय पार्टियों का दायरा इससे कम होगा।
अब आपको एक देश एक चुनाव की बारिकियों के बारे में बताने से पहले थोड़ा पीछे लिए चलते हैं। यानी की इतिहास में जब आजादी के बाद एक देश एक चुनाव की अवधारणा थी।
बेशक यह मुद्दा आज बहस के केंद्र में है, लेकिन विगत में 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है, जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब वर्ष 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गईं। वर्ष 1971 में पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब इस प्रकार चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं तो अब क्या समस्या है?
2018 में प्रधानमंत्री मोदी के कुछ बयानों के बाद ऐसे कयास लगाये जाने शुरू हो गये थे जिसमें माना जा रहा था कि आम चुनाव के साथ ही काफी राज्यों के चुनाव हो सकते हैं - लेकिन हुए नहीं। माना ये जा रहा था कि जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार है वहां विधानसभा पहले भंग कर चुनाव कराये जाने पर सहमति बन सकती है - वो भी नहीं बनी।
क्या और कैसे कैसे नुकसान?
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के चुनाव में करीब 60 हजार करोड़ रूपए खर्च हुए जो 2014 के चुनाव के मुकाबले दोगुना हैं। सवाल है कि जब देश का इतना रुपया बचना हो तो क्यों नहीं देश को एक चुनाव की तरफ आगे बढ़ना चाहिए। चुनावी व्यस्तता सरकारी कामकाज पर कितना असर डालती है ये 2018 में कर्नाटक चुनाव के वक्त देखने को मिला था। तब प्रधानमंत्री को ईस्टर्न एक्सप्रेस वे का उद्घाटन करना था, लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनावों के चलते वक्त नहीं मिल रहा था। उससे पहले नॉर्थ ईस्ट में त्रिपुरा, मिजोरम और मेघालय विधानसभाओं के चुनावों ने भी प्रधानमंत्री का काफी वक्त ले लिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने NHAI यानी नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया से पूछा कि जब एक्सप्रेस वे बनकर तैयार हो गया है तो जनता के लिए क्यों नहीं खोला जा रहा है? प्रधानमंत्री को इसका उद्घाटन अप्रैल में ही करना था। मई में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हुक्म दिया कि अगर महीने के अंत तक प्रधानमंत्री मोदी एक्सप्रेस वे का उद्घाटन नहीं करते तो 1 जून को उसे जनता के लिए खोल दिया जाये।
सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, 'पिछली सुनवाई में हमें कहा गया था कि अप्रैल में प्रधानमंत्री मोदी एक्सप्रेस वे का शुभारंभ करेंगे, लेकिन अब तक यह उद्घाटन नहीं हो पाया। इसमें ज्यादा देरी दिल्ली की जनता के हित में नहीं है।'
फिर बड़े ही सख्त लहजे में टिप्पणी की, 'प्रधानमंत्री का इंतजार क्यों किया जा रहा है, सरकार की ओर से कोर्ट में पेश हुए ASG भी तो उद्घाटन कर सकते हैं।'
विधि आयोग ने जून 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में किया था। राजनीतिक रूप से यह मुद्दा तब के गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा उठाया गया था जो एक मजबूत केंद्र एवं शक्तिशाली नेतृत्व के दृढ़ समर्थक थे। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी 2003 में इस प्रस्ताव का समर्थन किया था लेकिन तब एनडीए आम चुनाव हार गया और यह मुद्दा उन परिस्थियों में पीछे रह गया। लेकिन, मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के तुरंत बाद पूर्व चुनाव आयुक्त एच एस ब्रह्मा को इस विषय पर विचार करने के लिए संदेश भेजकर इस मुद्दे को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश कर दी है।
बाद में पूर्व चुनाव आयुक्त ओ पी रावत ने भी 4 अक्टूबर 2017 को घोषणा की कि चुनाव आयोग सितंबर 2018 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ- साथ कराने के लिए सभी तरह से तैयार है।
10 देशों में है लागू
स्वीडन में पिछले साल सितंबर में आम चुनाव, काउंटी और नगर निगम के चुनाव एकसाथ कराए गए थे। इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड, बेल्जियम भी एक बार चुनाव कराने की परंपरा है।
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव फिलहाल अलग-अलग होने के बावजूद इसे शांतिपूर्वक संपन्न कराना निर्वाचन आयोग और सुरक्षा बलों के लिए बड़ी चुनौती होती है। इसमें काफी समय लगता है। मसलन 2019 के आम चुनाव सात चरणों में संपन्न हुए और इसमें 39 दिन अर्थात सवा महीने का समय लगा। इस दौरान कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए लगभग 2.7 लाख अर्धसैनिक बलों और 20 लाख पुलिस फोर्स का सहारा लेना पड़ा। हाल ही में हुए बिहार विधानसभा चुनाव 11 दिनों तक तीन फेज में हुए। यहां केंद्र ने 30 हजार अर्धसैनिक बलों को उतारने की बात कही थी। राज्य की पुलिस फोर्स का जो इस्तेमाल हुआ सो अलग। ऐसे में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव करवाने में लगने वाले समय और संसाधन का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। - अभिनय आकाश