By दीपक कुमार त्यागी | May 18, 2020
रमेश अपने बुजुर्ग माता-पिता व गर्भवती पत्नी के साथ मुंबई में रह कर मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का मेहनत करके आराम से पेट पाल रहा था। तभी देश में अचानक कोरोना नामक महामारी का प्रकोप शुरू हो गया, उससे बचने के लिए सरकार ने एकाएक लॉकडाउन लगा दिया, देश में हर तरफ एकाएक पूर्ण बंदी का माहौल शुरू हो गया, जिधर भी नजर दौड़ाओ सिवाय खामोश सड़कों व मकानों के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा था। शुरू के कुछ दिन तो रमेश का खाने-पीने का जुगाड़ अपने पास रखे पैसे से हो गया, लेकिन फिर उसके पास पैसे खत्म हो गये। लॉकडाउन के चलते उसके पास काम कोई था नहीं, जिसके चलते उसके सामने रोजी-रोटी का गंभीर संकट शुरू हो गया, लगातार कई दिनों तक उसको व उसके परिवार को भूखा से तड़पते रहना पड़ा। लेकिन शुक्र रहा कि ईश्वर के आशीर्वाद से उसको सरकार व स्वयंसेवी संस्थाओं की तरफ से बंट़ने वाला भोजन समय से मिल गया, जो अब बिना नागा के साथ उसको लगातार एक वक्त मिलना शुरू हो गया था। रमेश अपनी व अपने परिवार की बेबसी और बेहद लाचारी पूर्ण हालात देखकर एकांत में बैठकर घंटों-घंटों रोता था, वह ईश्वर से प्रार्थना करता कि भगवान ऐसी जिंदगी जीने से तो अच्छा है कि तुम मेरे परिवार को उठा ही लो उन्हें अपने पास बुला लो, मुझसे अब उनके कष्ट नहीं देखे जाते हैं।
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देश में लॉकडाउन लगातार बढ़ता गया, दानवीर भामाशाहों व सरकार की भोजन व राशन वितरण व्यवस्था अब धीरे-धीरे कम होने लगी। तब ही रमेश ने पंद्रह सौ किलोमीटर दूर बिहार में स्थित अपने गांव वापस जाने का निर्णय ले लिया। उसको खबर मिली की सरकार मजदूरों की वापसी के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन चला रही है, वह अपने परिवार को लेकर पैदल-पैदल रेलवे स्टेशन की तरफ चल पड़ा वहां जाकर पता चला कि रेलवे तो सभी मजदूरों से टिकट के पैसे ले रही, लेकिन जिन मजदूरों के पास एक वक्त की रोटी खाने के लिए पैसे नहीं थे वो ट्रेन के टिकट के पैसे कहां से दे पाते। रमेश की भी यही स्थिति थी। उसके पास तो एक भी फूटी कौड़ी थी नहीं फिर वो टिकट के पैसे कहां से लाता, उसने बहुत सारे लोगों के हाथ जोड़े, पैर पकड़े, अपनी गर्भवती पत्नी व बुजुर्ग माता-पिता की मजबूरी दिखाई, लेकिन अपनी परेशानियों में उलझे लोगों को उन सबकी हालत पर जरा भी तरस नहीं आया, थोड़ी देर में ट्रेन अपने गंतव्य की ओर चली गयी। लेकिन रमेश बेहद परेशान होकर सोच में डूबा रेलवे स्टेशन के बाहर ही परिवार के साथ बैठा रहा। वह हर हाल में मुंबई से अपने घर वापस जाना चाहता था, लेकिन गर्भवती पत्नी जिसका नौवां माह चल रहा हो और सत्तर वर्ष के माता-पिता के स्वास्थ्य की चिंता में वह कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था। तभी उसके माता-पिता उससे बोले बेटा किस सोच में डूबा बैठा है इस शहर से अब हमारा दाना-पानी खत्म हो गया है, यहां पर खाली बैठे तिल-तिल कर भूखे मरने से अच्छा है कि हम पैदल-पैदल अपने गांव वापस चलते हैं, जिंदा रहेंगे तो गांव पहुंच ही जायेंगे वरना रास्ते में कहीं मर भी गये तो किसी पर क्या फर्क पड़ता है। यहां पड़े-पड़े भूखे मरना से तो अच्छा यही है कि एक बार मेहनत करके जिंदगी बचाने का प्रयास कर लें। माता-पिता की बात सुनकर रमेश की आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी और उसने अपनी गर्भवती पत्नी की तरफ देखा, वह उससे सांत्वना देते हुए बोली आप मुझे लेकर परेशान ना हो, माताजी व पिताजी ठीक कह रहे हैं यहां रुकने की जगह अब हम ईश्वर का नाम लेकर धीरे-धीरे घर की तरफ चलते हैं, रास्ते में जो होगा सो वह भी देखा जायेगा।
माता-पिता व पत्नी की हिम्मत देखकर रमेश में अब एक नयी ऊर्जा का संचार हुआ वह एकाएक उठ खड़ा हुआ और बोला चलो वापस घर चलते हैं। चारों लोग खड़े हुए और धीरे-धीरे भूखे-प्यासे दर्द सहन करते हुए पंद्रह सौ किलोमीटर दूर स्थित गांव अपनी मंजिल की तरफ चल देते हैं।
रमेश पैदल चलते हुए लगातार अपने परिवार की हौसला अफजाई कर रहा था, परिवार पिछले चार दिन से भूखा था, लगातार पैदल चलने के कारण वह सभी भूख प्यास से बुरी तरह से तड़प रहे थे, खाली पेट पानी भी नहीं पिया जा रहा था और अभी वह चार दिन में मात्र लगभग तीन सौ किलोमीटर ही चल पाये थे, उनके पैरों में मोटे-मोटे छाले पड़कर फूट चुके थे, छालों की खाल उतरने के कारण गहरे जख्म हो गये थे, थकान के मारे उनका शरीर जवाब दे रहा था, लेकिन उनके अंदर घर वापसी का जुनून व जबरदस्त हिम्मत का लगातार अभी भी संचार हो रहा था, वह सभी विकट परिस्थितियों में भी हिम्मत हारने के लिए तैयार नहीं थे। मुंबई से यहां तक पैदल चलने के दौरान उन्हें जगह-जगह पुलिस प्रशासन, मीडिया, समाजसेवी व आम लोगों की गाड़ियां मिलीं, रमेश ने सभी लोगों से बुजुर्ग माता-पिता व गर्भवती पत्नी की स्थिति बताकर मदद मांगी, लेकिन मजबूर मजदूरों की सड़क पर भारी भीड़ होने के चलते शायद किसी ने भी मदद के नाम पर उनके खाने-पीने तक की कोई व्यवस्था नहीं की, रमेश को भूख से तड़पते अपने परिवार को देखकर अब चिंता होने लगी थी। चलते-चलते पांच दिन हो गये थे उनकी दूरी लगातार घर से कम होती जा रही थी, भूखे होने के बाद भी वो बहुत खुश थे उनका शरीर अब कंकाल का ढांचा बनने लगा था। रमेश को अपनी गर्भवती पत्नी व उसके पेट में पल रहे बच्चे की बहुत चिंता सताने लगी थी, वह लगातार ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि प्रभु कुछ तो खाने का इंतजाम करवा दो, छठे दिन रात में उसकी नजर सड़क किनारे पड़े एक सूनसान ढाबे पर पड़ी जिसके सामने मात्र दो लोग बैठे थे, उसने परिवार के साथ वहीं रात को रूकने का निश्चय किया। वह उनके पास गया और उसने उन दोनों लोगों से रात को वहां रूकने का निवेदन किया, उन्होंने रमेश को रूकने की अनुमति देते हुए कहा कि ढाबे के हाल में तख्त व बिस्तर रखे हुए हैं आराम से पंखा चलाकर बिस्तर बिछा कर अंदर ही सो जाओ, रमेश की आँखों में खुशी का ठिकाना न रहा, वह मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद देते हुए बोला कि चलो आज इतने दिन बाद परिवार को अच्छे ढंग से कुछ आराम तो मिलेगा, वह परिवार को हाल के अंदर लेकर गया उसने लाईट जलाकर तख्त पर बिस्तर बिछाकर सोने की तैयारी की सभी लोग लेटने ही वाले थे कि तभी वहां पर ढाबे की मालकिन आ गयी, ढाबे की मालकिन ने जब देखा कि उसके साथ दो बुजुर्ग व एक गर्भवती महिला बेहद कमजोर हालात में है तो वो बिना कुछ बोले ढाबे के पीछे बने अपने घर में चली गयी। उसने उनके लिए दो तीन लीटर दूध में हल्की सी चाय की पत्ती डालकर गर्म किया और उनको लाकर दे दिया, रमेश ने जब अपने सामने दूध देखा तो वह निशब्द हो गया, उसकी आँखों से एकाएक खुशी के आँसू बह निकले, ढाबा मालकिन ने उसको टोकते हुए बोला बेटा परेशान मत हो हिम्मत से काम ले, आजकल जिंदगी सभी की बेहद कठिन परीक्षा ले रही है, हमको अपनी हिम्मत के बलबूते उसमें हर हाल में पास होना है, मुझे लगता है कि तुम सभी कई दिनों से भूखे-प्यासे हो मैं तुम्हारे लिए अभी रामू से खाना बनवाती हूँ, तुम लोग आराम से चाय पियो फिर बराबर में ही बाथरूम बने हुए हैं उसमें जाकर नहा लो उससे तुम लोगों की थकान काफी कम होगी और तुम्हारे जख्म भी साफ हो जायेंगे, फिर उन पर मैं रामू से पट्टी करवा दुंगी।
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रमेश उनका धन्यवाद करते हुए बोला माताजी आप परेशान ना हों आपने हमको सर छुपाने के लिए छत दे दी और चाय दे दी यही बहुत है, ढाबा मालकिन उससे नाराज होते हुए बोली मैं जो बोल रही हूँ वो करो उससे तुम्हें आराम मिलेगा। रमेश ने कहा ठीक है माताजी, उन चारों ने चाय पी और फिर जाकर आराम से स्नान किया जब वो वापस आये तो उनके सामने अरहर की दाल, आलू जीरा की सब्जी, रायता, रोटी व चावल भरपूर मात्रा में मौजूद थे। उन लोगों को कई दिन बाद आज ईश्वर के आशीर्वाद से खाना नसीब हुआ था, सभी ने आराम से भरपेट खाना खाया, खाना खाने के बाद रामू उनकी मलहम पट्टी करने के लिए दवाई लेकर आ गया, उसने उनके जख्मों पर पट्टी करी फिर वो चारों आराम से सो गये। अगले दिन सुबह चिड़ियों के चहचहाने की आवाज सुनकर रमेश की आँख खुली, उसके बाद वो चारों बिस्तर से उठ गये, उन्होंने बिस्तर तह करके एक तरफ रख दिये, फिर वो लोग स्नान करने चले गये, जब वापस आये तो ढाबे की मालकिन के साथ रामू चाय व आलू के पराठे का नाश्ता लेकर उनके सामने खड़ा था। रमेश ने उनका आभार प्रकट करते हुए परिवार के साथ बहुत दिनों के बाद भरपेट नाश्ता किया, नाश्ता करने के बाद रामू ने उनके जख्मों की पट्टी करी और वो सभी अपनी पैदल यात्रा पर चलने के लिए तैयार हो गये।
तभी उनसे ढाबा मालकिन रमेश की गर्भवती पत्नी की तरफ देखकर बोली तुम चाहो तो दो-चार दिन यहां आराम से रह सकते हो। रमेश उनका आभार जताते हुए बोला हमको बहुत दूर अपने घर जाना है, लगभग आधी दूरी हम तय कर चुके हैं बाकी दूरी भी जल्दी ही तय करनी है, माताजी आप हमको आज्ञा दें हम जल्दी ही यात्रा पर निकलते हैं। ढाबा मालकिन ने उन्हें रास्ते के लिए एक डिब्बे में दूध दिया व खाने के लिए कुछ आलू के पराठे, एक हजार रुपये व जख्मों पर लगाने के लिए दवाई दी। रमेश व उसका परिवार उनका दिल से धन्यवाद करके अपनी लंबी पद यात्रा पर निकल पड़ा। यात्रा का सातवां व आठवां दिन दूध व पराठे के बलबूते उन सभी ने पैदल चलते हुए हंसी खुशी व्यतीत कर दिया। फिर वही पहले वाली भूखे रहने की स्थिति शुरू हो गयी उनको खाने-पीने की भारी दिक्कत शुरू हो गयी, वो सभी हिम्मत के साथ चलते रहे, रास्ते में उन्होंने बहुत सारे लोगों से मदद मांगी लेकिन अफसोस किसी का भी दिल उनके लिए नहीं पसीजा। अब उनको पैदल चलते हुए चौदहवां दिन चल रहा था पिछले एक हफ्ते से भूखे रहने के कारण उनका बहुत ज्यादा बुरा हाल हो गया था। ढाबा मालकिन के दिये हुए एक हजार रुपये रमेश ने माता-पिता के कहने पर गर्भवती पत्नी के इलाज के लिए सुरक्षित रख लिए थे, क्योंकि अब उसको अहसास होने लगा था कि उसका बच्चा किसी भी समय इस दुनिया में आ सकता है, लेकिन जैसे-जैसे घर पास आ रहा था रमेश व उसके परिजनों की हिम्मत अब जवाब दे रही थी। भूखे होने के कारण अब वो रोजाना पहले की तरह उतनी पैदल दूरी भी तय नहीं कर पा रहे थे। जबकि वो दो दिन पहले ही अपने राज्य बिहार पहुंच गये थे, लेकिन फिर भी वो भोजन व साधन के लिए मोहताज थे। रमेश व उसके परिवार के मन में मुंबई में जो एक धारणा बन गयी थी कि मुंबई में प्रवासी मजदूरों के साथ भेदभाव हो रहा है, उनकी यह धारणा अपने गृह राज्य बिहार पहुंच कर अब पूर्ण रूप से समाप्त हो गयी कि प्रवासी ही नहीं बल्कि सभी मजदूरों के दुख दर्द को कोई सरकार सुनने व समझने के लिए तैयार नहीं है। उनको बाकी रास्ता भी अपने हौसले व हिम्मत के बलबूते कठिन परिस्थितियों में ही हर हाल में तय करना होगा, लेकिन भूखे पेट बेहद परेशान परिवार का दर्द वो इस हालात में कैसे कम करे उसको कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, वो परिवार को लेकर बहुत चिंतित था उसकी आँखों से लगातार चुपचाप आंसू बह रहे थे, वो जहां भी पुलिस, प्रशासन व लोगों को देखता उनसे अपनी गर्भवती पत्नी व परिवार की स्थिति बताकर मदद मांगता, लेकिन अफसोस कोई भी उसकी मदद करने के लिए तैयार नहीं हुआ।
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जगह-जगह बड़े-बड़े कैमरे लेकर खड़े टीवी न्यूज वालों ने भी पिछले कई दिनों से बार-बार उसकी बेबसी को टीवी पर दिखाकर उसको व उसके परिवार को प्रिंट, इलैक्ट्रोनिक व सोशल मीडिया की जबरदस्त टीआरपी बटोरने वाला हीरो बना दिया था, लेकिन सनसनी के शौकीन बन गये हम लोग व सिस्टम ने उसकी फिर भी कोई मदद नहीं की वो सभी भूख-प्यास से तड़पते हुए अपने लक्ष्य की तरफ चले जा रहे थे। अब रमेश को चलते हुए पंद्रहवां दिन चल रहा था। अब उन लोगों का खड़ा होना भी भारी हो रहा था, तो उसकी पत्नी उससे बोली अगर आज खाना नहीं मिलेगा तो अब हम लोगों की जान भी जा सकती है, इसलिए जो एक हजार रुपये तुम्हारे पास रखे हैं उसका सभी के लिए खाना ले लो, रमेश ने अपने बुजुर्ग माता-पिता की तरफ भी देखा तो उन्होंने भी उससे कहा कि बेटा अब हम लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर घर से रह गये हैं, सभी की जिंदगी बचाने के लिए अब खाना-खाना बहुत जरूरी है, इसलिए अब जहां भी खाने की कोई दुकान इस भयानक जगंली रास्ते में नजर आये तुरंत खाना ले लो, फिर खाना खाकर दो घंटे आराम करके आगे की यात्रा करेंगे। रमेश बोला आप सही कह रहे हो मैं ऐसा ही करूंगा, लेकिन अफसोस भयानक जंगली रास्ता होने के कारण उनको पूरे दिन कुछ भी खाने के लिए नजर नहीं आया, शाम को जंगल में उन्हें एक ढाबा नजर आया। रमेश उस पर पहुंचा और ढाबे वाले से खाना मांगा, तो ढाबे वाले ने उससे कहा कि सबसे सस्ती सौ रुपये की खाने की थाली है जिसमें चार रोटी, चावल, दो सब्जी व रायता है, रमेश ने उससे कहा ठीक है भाई चार थाली दे दो। ढाबे वाले ने उन्हें खाने की टेबल पर बैठने का इशारा किया और लड़के से उन सभी को खाना देने के लिए बोला। रमेश बैठकर सोचने लगा शाम होने व जंगली रास्ता होने के चलते यह ढाबा चुपचाप लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन करके चलाया जा रहा है, लेकिन इस समय जंगल में यह इकलौता ढाबा बहुत सारे मुझ जैसे विपत्ति के मारे लोगों को भोजन उपलब्ध करवा कर जीवनदान भी दे रहा है। तब ही ढाबे वाले के लड़के की आवाज ने उसकी तंत्रा तोड़ी उनके सामने खाने की थाली रखी थी। खाने की क्वालिटी व क्वांटिटी भी अच्छी खासी थी, ढाबा वाला हर हाल में नाम मात्र लाभ लेकर लोगों का पेट भर रहा था, सभी ने भरपेट खाना खाया और फिर रमेश ढाबे वाले को पैसे देने लगा उसने चार सौ रुपये काटकर बाकी पैसे रमेश को वापस दे दिये। अचानक ढाबे वाले की नजर उसकी गर्भवती पत्नी व बुजुर्ग माता-पिता पर गयी तो उसको उनकी लाचारी पर बेहद तरस आया वह रमेश से बोला रात में इस भयानक सत्तर किलोमीटर लम्बे जंगल को परिवार के साथ इस लाचार हालात में कैसे पार करोगे, रमेश के पास उसकी बातों का कोई जवाब नहीं था। ढाबे वाला उससे बोला अब ढाबा कल सुबह तक के लिए बंद ही है, शायद ही कोई ग्राहक अब आयेगा तुम आराम से यही बैठो और बाद में यहीं इन तख्त पर ही सो जाना। रमेश ने उसका धन्यवाद व्यक्त करते हुए अपने परिवार से कहा आज रात यही ठहरेंगे आगे रास्ता ठीक नहीं है, उसके परिवार ने उसकी हां में हां मिला दी। सभी आराम से बैठकर अपने जख्मों को साफ करके उस पर दवाई लगाने लगे। थोड़ी देर बाद वो सभी लोग तख्त पर आराम से सो गये, रात को भयंकर आंधी तूफान के साथ भारी बारिश हुई, तो रमेश ने ईश्वर को मन ही मन उन सभी की जान बचाने के लिए धन्यवाद दिया। सुबह हुई ढाबे वाले ने उनको अपनी तरफ से फ्री चाय-नाश्ता करवा दिया। अब रमेश ने अपने परिवार की तरफ देखा तो उसको उनकी स्वस्थ हालात व हिम्मत देखकर बहुत ज्यादा सुकून मिला।
रमेश परिवार के साथ पैदल चलने के लिए तैयार हुआ तो उससे ढाबे का मालिक बोला आगे बहुत ही उबड़खाबड़ खराब चिकनी मिट्टी वाला पथरीला टूटा-फूटा रास्ता है, तुम लोगों की शारीरिक हालात वैसे ही बहुत ज्यादा खराब हैं, आखिर तुम लोग इस जंगल को कैसे पार कर पाओगे, तुम्हारी गर्भवती पत्नी की तो इस भयानक रास्ते में जान तक जा सकती है और आगे रास्ते में अब कोई मदद भी मिलना बिल्कुल नामुमकिन है। आखिर तुम्हें रास्ते में कुछ दिक्कत हो गयी तो उस हालात में क्या करोगे, तुम लोगों की तो सारी तपस्या पर यह दुर्गम रास्ता एक ही पल में पानी फेर सकता है। उसकी बात सुनकर रमेश के चहरे पर गंभीर चिंता के भाव आने लगे थे। वह ढाबे वाले से बोला बाबूजी हम गरीब लोगों के पास इस विपत्ति में इसका समाधान भी क्या है, ढाबे वाला उससे बोला तुम कुछ देर इंतजार करो अभी मेरा जानकार एक टैक्सी वाला मेरे पास आने वाला है, उससे मैं तुम्हारे लिए टैक्सी किराये पर करवा दूंगा लेकिन वो तुमको केवल जंगल पार करवा कर वापस आ जायेगा, क्योंकि आगे लॉकडाउन की वजह से जाना संभव नहीं है। रमेश उससे बोला बाबूजी हम पर तो मात्र छः सौ रुपये ही बचे है इसमें वो हमारे साथ कैसे जा सकता है। ढाबे वाला रमेश से बोला कोई बात नहीं मैं उससे तुम्हारी मजबूरी बताकर बात कर लूंगा, तब ही टैक्सी वाला आ गया। ढाबे वाले ने उसको उन लोगों की मजबूरी समझायी वह छः सौ रुपये में उनको लगभग सत्तर किलोमीटर के जंगल को पार करवाने के लिए तैयार हो गाया। उसने रमेश से कहा कि जल्दी कार में बैठो वरना मुझको वापसी में देर हो जायेगी, तो रमेश को यह सुनकर झटका लगा। वह परिवार को लेकर कार में बैठ गया, कार गंतव्य की तरफ चल पड़ी अब रमेश व उसके परिवार को दुर्गम रास्ते की कठिनाई समझ आ रही थी, चार घंटे में वह मुख्य मार्ग तक पहुंच पाये। रमेश कार से उतरा उसने उसको छः सौ रुपये दिये और उसका आभार व्यक्त किया और फिर सारे पैदल-पैदल आराम से अपनी मंजिल की तरफ चल पड़े। लेकिन पैदल चलते-चलते अब रमेश की पत्नी की तबीयत खराब होने लगी उसको रुक-रुक कर दर्द होने शुरू हो गये, रमेश की माँ उससे बोली बेटा अभी घर कितनी दूर है तो रमेश माँ से बोला लगभग दो सौ किलोमीटर दूर है, माँ के चहरे पर बेहद गंभीर चिंता के भाव थे, मतलब अभी कम से कम तीन दिन लगेंगे लेकिन बहू की तबीयत बहुत ज्यादा खराब है, ऐसी हालत में उसका पैदल चलना उसकी जान ले सकता है, हमको जल्दी ही बहू को किसी अस्पताल में भर्ती करवाना होगा, लेकिन बेटा अब हमारी जेब में तो एक भी रुपया नहीं बचा है, अब आगे का सफर कैसे पार होगा। रमेश माँ की उम्मीद व हिम्मत बंधाते हुए बोला माँ जो ईश्वर हमको यहां तक लेकर आया है, वही किसी को हमारी मदद के लिए अवश्य भेजेगा, रात हो चुकी थी। रमेश अपने परिवार के साथ एक बंद पड़े हुए ढाबे पर सोने का इंतजार कर रहा था। लेकिन तभी एक डगमगाता हुआ खाली टैम्पो वहां पर आकर रूका उसमें से एक ड्राइवर उतरा उसने टैम्पो के टायर देखे तो एक टायर में पंचर हो गया था वह बहुत परेशान चुपचाप माथा पकड़कर खड़ा था, तभी रमेश उस ड्राइवर के पास गया तो वह रात को सूनसान ढाबे पर उसको अचानक देखकर डर गया, रमेश ने दूर से ही उसको अपने परिवार को दिखाते हुए बोला भाई हम भी आपकी ही तरह बहुत परेशान हैं। अब ड्राइवर की जान में जान आई उसने रमेश को इशारा करके अपने पास बुलाया व उससे कहा कि मेरे हाथ में चोट लगी हुई है, क्या तुम मेरी टायर बदलने में मदद कर दोगे। रमेश ने कहा कि आप मुझे टूल्स देकर आराम से बैठो मैं अभी टैम्पो का टायर बदलता हूँ, ड्राइवर ने उसको टूल्स के बारे में बताया। रमेश ने आधे घंटे में टायर बदल दिया। यह देखकर ड्राइवर उससे बहुत खुश हुआ, वह उसे बोला मेरे पास शहर तक जाने का पास है वहां से मुझको राशन लेकर कल रात को वापस जाना है, अगर तुम मेरी मदद नहीं करते तो मेरा बहुत ज्यादा नुकसान हो जाता वैसे तुम भी शहर की तरफ जा रहे हो क्या?
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रमेश ने हामी भरते हुए कहा कि हम भी पैदल-पैदल चलकर शहर की तरफ ही जा रहे हैं, वहां से सौ किलोमीटर दूर फिर अपने गांव जाना है, ड्राइवर रमेश की बात सुनकर उससे बोला कि तुम अपने परिवार के साथ मेरे टैम्पो में पीछे तिरपाल पड़ी हुई है उसको बिछा कर उस पर आराम से छिपकर सो जाओ सुबह तक हम शहर पहुंच जायेंगे बस पीछे उठकर मत बैठना वरना पुलिस हमको रोक कर परेशान करेगी। रमेश ड्राइवर का धन्यवाद करते हुए बोला ठीक है भाई, उसने दर्द से तड़पती अपनी पत्नी व माता-पिता को टैम्पो में पीछे बैठाया। सबने तिरपाल बिछाई और उस पर लेट गये उनकी सभी लोगों की भयंकर थकान उनके दर्द पर कब भारी पड़ी किसी को आभास नहीं हुआ, सब गहरी नींद में सो गये। सुबह टैम्पो के ड्राइवर ने शहर पहुंचकर उनको जगाया, तो रमेश को अपने शहर पहुंचने की बहुत ज्यादा हैरानी हुई, वह अपने परिवार को लेकर टैम्पो से नीचे आया व ड्राइवर का धन्यवाद करके घर की तरफ फिर से पैदल चल दिया, थोड़ी दूर चलने के बाद उसकी पत्नी को भयंकर प्रसव पीड़ा होने लगी, रमेश मदद के लिए शहर में इधर-उधर गया, किसी ने उस मजबूर लाचार मजदूर की कोई मदद नहीं की, उधर उसकी पत्नी की प्रसव वेदना की चीख शहर को झकझोरने लगी, लेकिन पत्थर दिल लोगों का दिल उसकी वेदना को समझने के बाद भी नहीं पसीजा, राह चलती कुछ मजदूर महिलाओं ने उसकी प्रसव पीड़ा को देखकर उसकी सुरक्षित डिलीवरी करवाई, ईश्वर की कृपा से अब जच्चा और बच्चा दोनों सुरक्षित थे। कुछ घंटे आराम करने के बाद रमेश को उसकी पत्नी ने अपने पास बुलाया और उससे कहा कि हमको इस नन्हीं जान को सुरक्षित रखने के लिए जल्द से जल्द अपने घर पहुंचना होगा इसलिए चलने की तैयारी करो। रमेश ने उससे उसकी भयंकर पीड़ा के बारे में बताया लेकिन मातृ प्रेम में अपने सभी दुख-दर्द भूलकर उसकी पत्नी घर जाने के लिए पैदल चलने लगी, अब उसकी मातृशक्ति हर कष्ट को हरा रही थी वह पहले से तेज चलकर बेरहम सिस्टम व पत्थर दिल दुनिया से दूर अपने घर सुरक्षित पहुंचना चाहती थी, शहर में आग की तरह उसके हौसले की हर तरफ चर्चा हो रही थी, लेकिन अफसोस फिर भी मदद के लिए कोई हाथ आगे नहीं आया था। पैदल चलते-चलते सत्रह दिनों के बाद अब वो अपने घर से लगभग पचास किलोमीटर दूर रह गये थे। अठारहवें दिन रमेश की पत्नी सुबह जल्दी उठ गयी, भूखे पेट व प्रसव पीड़ा के बाद भी बच्चे की जान बचाने की खातिर उसमें जबरदस्त ऊर्जा का संचार हो रहा था, उसने रमेश को जल्दी से गांव चलने के लिए जगाया सब उठे और गांव के लिए चल दिये शाम तक उसके गांव में भी मीडिया के कारण उसके हौसले की चर्चा होने लगी, गांव का मुखिया अपनी कार लेकर उनको लेने के लिए रास्ते की तरफ चल पड़ा, वह गांव से लगभग दस किलोमीटर दूर ही आया था तो उसको रमेश अपने परिवार के साथ नजर आया। मुखिया ने जब उसको रोका और कार में बैठने के लिए कहा तो रमेश को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ, उसको लगा कि वो कोई सपना देख रहा है।
-दीपक कुमार त्यागी
(स्वतंत्र पत्रकार, स्तंभकार व रचनाकार)