गन्ने के अपशिष्ट से चीनी का विकल्प तैयार करने की नई तकनीक

By इंडिया साइंस वायर | Aug 29, 2022

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने गन्ने की खोई (गन्ने की पेराई के बाद बचे अवशेष) से 'ज़ाइलिटोल' (Xylitol) नामक चीनी के सुरक्षित विकल्प का उत्पादन करने के लिए अल्ट्रासाउंड-समर्थित किण्वन (फर्मेंटेशन) विधि विकसित की है। यह विधि; संश्लेषण के रासायनिक तरीकों के परिचालन की सीमाओं और पारंपरिक किण्वन  में लगने वाले समय को कम कर सकती है।


मधुमेह रोगियों के साथ-साथ सामान्य स्वास्थ्य के लिए भी सफेद चीनी (सुक्रोज) के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में बढ़ती जागरूकता के साथ चीनी के सुरक्षित विकल्पों की खपत में वृद्धि हुई है। 'ज़ाइलिटोल' प्राकृतिक उत्पादों से प्राप्त शुगर अल्कोहल है, जिसके संभावित रूप से एंटी-डायबिटिक और एंटी-ओबेसोजेनिक प्रभाव हो सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि 'ज़ाइलिटोल' एक हल्का प्री-बायोटिक है, और दांतों के क्षरण को रोकने में मदद करता है। 

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केमिकल इंजीनियरिंग विभाग, आईआईटी गुवाहाटी से जुड़े इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर वीएस मोहोलकर ने कहा है कि “अल्ट्रासाउंड के उपयोग से पारंपरिक प्रक्रियाओं में लगने वाला लगभग 48 घंटे का किण्वन समय घटकर 15 घंटे हो गया है। इसके साथ-साथ उत्पाद में लगभग 20% की वृद्धि हुई है। किण्वन के दौरान केवल 1.5 घंटे के अल्ट्रासोनिकेशन का उपयोग किया गया है, जिसका अर्थ है कि अधिक अल्ट्रासाउंड पावर की खपत नहीं होती है। अल्ट्रासोनिक किण्वन के उपयोग से गन्ने की खोई से 'ज़ाइलिटोल' उत्पादन भारत में गन्ना उद्योगों के लिए संभावित अवसर हो सकता है।”


'ज़ाइलिटोल' औद्योगिक रूप से एक रासायनिक प्रतिक्रिया द्वारा निर्मित होता है, जिसमें लकड़ी से व्युत्पन्न डी-ज़ाइलोस (D-xylose), जो एक महँगा रसायन है, बहुत उच्च तापमान और दबाव पर निकल उत्प्रेरक के साथ उपचारित किया जाता है। इस प्रक्रिया में अत्यधिक ऊर्जा की खपत होती है। इसमें, ज़ाइलोस की केवल 08-15% मात्रा 'ज़ाइलिटोल' में परिवर्तित होती है, और व्यापक पृथक्करण और शुद्धिकरण चरणों की आवश्यकता होती है, जो इसकी कीमत को बढ़ा देते हैं।


किण्वन एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है, जो ऐसे मुद्दों से निपटने में कारगर है। किण्वन कोई नई चीज़ नहीं है- भारत में कई घरों में दूध का दही में रूपांतरण किण्वन ही है। किण्वन में, बैक्टीरिया और खमीर जैसे विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके एक पदार्थ को दूसरे में परिवर्तित किया जाता है। हालांकि, किण्वन प्रक्रिया धीमी होती है - उदाहरण के लिए, दूध को दही में बदलने में कई घंटे लगते हैं, और यह व्यावसायिक पैमाने पर इन प्रक्रियाओं का उपयोग करने में एक बड़ी बाधा है।

 

किण्वन के व्यावसायिक उपयोग से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के लिए आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने दो दृष्टिकोणों का उपयोग किया है। सबसे पहले, उन्होंने गन्ने की खोई, गन्ने से रस निकालने के बाद उत्पन्न होने वाले अपशिष्ट रेशेदार पदार्थ, को कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल किया। यह ‘ज़ाइलिटोल’ संश्लेषण की वर्तमान विधियों की लागत को कम करने में मददगार है, और अपशिष्ट उत्पाद को पुनः उपयोग करने की एक विधि प्रदान करता है। दूसरे, उन्होंने एक नये प्रकार की किण्वन प्रक्रिया का उपयोग किया है, जिसमें अल्ट्रासाउंड तरंगों के अनुप्रयोग से 'ज़ाइलिटोल' के सूक्ष्म जीव-प्रेरित संश्लेषण को तेज किया जाता है।


शोधकर्ताओं ने पहले हेमिसेलुलोज (Hemicellulose) को खोई में पाँच कार्बन (पेंटोस) शर्करा जैसे कि ज़ाइलोज और अरेबिनोज में हाइड्रोलाइज किया। इसके लिए उन्होंने खोई को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर तनु अम्ल से उपचारित किया। इसके बाद, चीनी के घोल को संकेंद्रित किया गया, और किण्वन के लिए इसमें कैंडिडा ट्रॉपिकलिस (Candida tropicalis) नामक खमीर उपयोग किया गया।


सामान्य परिस्थितियों में, जाइलोस से ‘ज़ाइलिटोल’ तक किण्वन में 48 घंटे लगते हैं। लेकिन, शोधकर्ताओं ने मिश्रण को अल्ट्रासाउंड तरंगों के संपर्क में लाकर प्रक्रिया को तेज कर दिया। अल्ट्रासाउंड एक प्रकार की ध्वनि है, जिसकी आवृत्ति का स्तर मानव कान से सुनने योग्य आवृत्ति से अधिक होता है। जब माइक्रोबियल कोशिकाओं वाले घोल को कम तीव्रता वाली अल्ट्रासोनिक तरंगों के संपर्क में लाया जाता है, तो माइक्रोबियल कोशिकाएं तेजी से प्रतिक्रिया देती हैं।

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शोधकर्ताओं का कहना है कि अल्ट्रासाउंड तरंगों के बिना, प्रति ग्राम ज़ाइलोस में केवल 0.53 ग्राम 'ज़ाइलिटोल' का उत्पादन होता है। लेकिन, अल्ट्रासाउंड तरंगों के उपयोग से प्रति ग्राम ज़ाइलोस से उत्पादन बढ़कर 0.61 ग्राम हो जाता है। इस प्रक्रिया में, प्रति किलोग्राम खोई से 170 ग्राम 'ज़ाइलिटोल' उत्पादन होता है। यीस्ट को पॉलीयूरेथेन फोम में स्थिर करके प्रति ग्राम ज़ाइलोस पर उत्पादन को 0.66 ग्राम तक बढ़ाया जा सकता है, और किण्वन का समय 15 घंटे तक कम किया जा सकता है।


बड़े पैमाने पर इस पद्धति के उपयोग के बारे में प्रोफेसर मोहोलकर कहते हैं “यह अध्ययन, प्रयोगशाला में किया गया है। सोनिक किण्वन के वाणिज्यिक उपयोग में किण्वकों के लिए अल्ट्रासाउंड के उच्च शक्ति स्रोतों के डिजाइन की आवश्यकता है, जिसके लिए बड़े पैमाने पर ट्रांसड्यूसर और आरएफ एम्पलीफायरों की आवश्यकता है, जो एक प्रमुख तकनीकी चुनौती है।”


इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं में प्रोफेसर वीएस मोहोलकर के अलावा डॉ बेलाचेव ज़ेगले टिज़ाज़ू और डॉ कुलदीप रॉय शामिल हैं। यह अध्ययन शोध पत्रिका – बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी और अल्ट्रासोनिक्स सोनोकेमिस्ट्री में प्रकाशित किया गया है। 


(इंडिया साइंस वायर)

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