फसल उत्पादकता और आमदनी बढ़ाने के लिए नयी प्रणाली

By शुभ्रता मिश्रा | Dec 19, 2017

वास्को-द-गामा (गोवा), (इंडिया साइंस वायर): भारतीय वैज्ञानिकों ने फिलीपींस, बांग्लादेश और नेपाल के साथ मिलकर एकीकृत कृषि प्रणाली का ऐसा विकल्प दिया है, जिससे प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखते हुए फसल उत्पादकता और आमदनी बढ़ाई जा सकती है। फिलीपींस एवं भारत के अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थानों और बांग्लादेश, नेपाल व भारत के अंतरराष्ट्रीय मक्का एवं गेहूं सुधार केंद्रों तथा हरियाणा स्थित आईसीएआर-केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने सीरीअल सिस्टम्स इनिशिएटिव फॉर साउथ एशिया (सीएसआईएसए) परियोजना के अन्तर्गत चावल और गेहूं के उच्च पैदावार वाले क्षेत्रों में एकीकृत प्रबंधन विकल्पों की पहचान करके भविष्य हेतु एक एकीकृत कृषि प्रणाली का विकल्प पेश किया है।

 

वर्ष 2009–2014 के दौरान पांच वर्षों तक किए गए इस अध्ययन में उत्तर-पश्चिम भारत में सिंधु-गंगा के मैदानों के फसल चक्र, जुताई-बुआई के तरीकों, अवशेष प्रबंधन और अन्य फसल प्रबंधन तरीकों पर आधारित चार अलग-अलग तरह की तैयार की गईं फसल प्रणालियों के आधार पर प्रायोगिक खेतों में फसलों उगाकर तुलनात्मक विश्लेषण किया गया है।

 

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से संबद्ध करनाल स्थित केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान के निदेशक प्रबोध सी. शर्मा ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “भविष्य में देश की बढ़ती जनसंख्या की खाद्य जरूरतों की पूर्ति को ध्यान में रखकर पारंपरिक खेती के बजाय समन्वित व संरक्षित कृषि प्रणाली विकसित करने का प्रयास किया गया है। परंपरागत धान-गेहूं के प्रमुख फसल चक्र में आमतौर पर अवशेषों को जला दिया जाता है, जिससे ग्रीन हाउस गैसें निकलती हैं, जो कृषि को वैश्विक ताप से जोड़ती हैं। इसके विपरीत नई विकसित की गई कृषि प्रणाली प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और वैश्विक ताप के साथ समन्वय स्थापित करती है, जिससे फसल उत्पादन में सुधार हो सकता है।”

 

इन चार फसल प्रणालियों में सबसे पहले प्रचलित धान-गेहूं फसल चक्र के अंतर्गत धान को रोपण द्वारा लगाकर ज्यादा पानी देकर उगाया गया और फसल कटाई के बाद जुताई कर छिड़काव करके गेहूं बोया गया। इसमें फसलों के अवशेषों को पूरी तरह हटा दिया गया था। एकीकृत फसल और संसाधन प्रबंधन पर आधारित दूसरी प्रणाली में धान को परम्परागत प्रत्यारोपित तरीके से ही उगाया गया और उसकी कटाई के बाद बिना जुताई किए ही ड्रिल द्वारा गेहूं और मूंग बोकर फसलों को तैयार किया गया। कटाई के बाद धान और गेहूं के अवशेषों को खेत में ही रहने दिया गया और मूंग के अवशेषों को मिट्टी में मिलाया गया। तीसरी प्रणाली में बिना जुताई धान की सीधी बुआई और गेहूं-मूंग को ड्रिल द्वारा बोकर फसल तैयार की गई। चौथी प्रणाली में धान के स्थान पर मक्का लिया गया और सभी फसलों को बिना जुताई के ड्रिल द्वारा बोया गया। जल, श्रम और ऊर्जा की कमी तथा निम्न मृदा उर्वरता से निपटने के लिए बनायी गई तीसरी व चौथी प्रणालियों में फसल कटाई के बाद अवशेषों को खेत पर ही रहने दिया गया।

 

धान व गेहूं दोनों फसलों की पारम्परिक जुताई व बुआई की प्रणालियों की तुलना में अन्य विकसित तीनों प्रणालियों में फसल उत्पादकता में 10-17 प्रतिशत एवं उपज लाभ में 24-50 प्रतिशत तक की बढोत्तरी के साथ-साथ 15-71 प्रतिशत सिंचाई जल में बचत एवं 17-47 प्रतिशत ऊर्जा खपत में कमी पायी गई है। इसके साथ ही 15-30 प्रतिशत तक वैश्विक तपन क्षमता में भी कमी दर्ज की गई।

 

धान की फसल के पारम्परिक रोपण में 30-35 दिनों वाले पौधों के स्थान पर 25 दिनों वाले पौधे रोपकर उचित प्रबंधन करने पर सिंचाई जल की 24 प्रतिशत बचत और वैश्विक तपन क्षमता में 21 प्रतिशत तक की कमी तथा उत्पादकता में भी 0.9 टन प्रति हैक्टेयर की वृद्धि दर्ज की गई। इसके अलावा अध्ययनकर्ताओं ने यह भी पाया है कि धान की खेती में मजदूरों, पानी एवं बढ़ती हुई उत्पादन लागत को ध्यान में रखते हुए प्रतिरोपित धान के स्थान पर सीधी बुआई अपनाना आर्थिक रूप से फायदेमंद विकल्प हो सकता है। बिना जुताई के धान की सीधी बुआई करने पर 22-40 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत, 11-17 प्रतिशत उत्पादन लागत में कमी, 13-34 प्रतिशत ऊर्जा की खपत में कमी तथा 14-32 प्रतिशत तक वैश्विक तपन क्षमता में कमी आंकी गई है। 

 

इसी तरह बिना जोते ड्रिल से गेहूं बोने से पैदावार में 15-17 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। यह भी पाया गया है कि गेहूं की जल्दी बुआई (अक्तूबर के अन्त तक) करने पर पैदावार 13 प्रतिशत लगभग 0.8 टन प्रति हैक्टेयर अधिक हो सकती है। ऐसा करके सीमान्त ताप प्रभाव को भी सामान्य बुआई (मध्य नवंबर) की तुलना में काफी हद तक कम किया जा सकता है। 

 

वैज्ञानिकों का मानना है कि धान-गेहूं फसल चक्र में एक तीसरी फसल के रूप में मूंग को जोड़कर फसलों की उत्पादकता, लाभ एवं संसाधन उपयोग दक्षता को बढ़ाया जा सकता है। वहीं, धान के स्थान पर मक्का उगाने पर फसल उत्पादकता में 82-89 प्रतिशत सिंचाई जल की खपत में कमी, 49-66 प्रतिशत ऊर्जा खपत में कमी एवं 13-40 प्रतिशत वैश्विक तपन क्षमता में कमी लाई जा सकती है। इसके अलावा 0.7 टन प्रति हैक्टेयर अधिक धान समतुल्य उत्पादकता से 27-73 प्रतिशत तक अधिक लाभ कमाया जा सकता है। 

 

भूमि के घटते जलस्तर और श्रम की कमी से निपटने के लिए फसल विविधिकरण एवं खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से बिना जुताई वाले खेतों में अवशेषों को हटाए बिना मक्का-गेहूं-मूंग फसल चक्र एक अच्छा विकल्प हो सकता है। 

 

अध्ययनकर्ताओं की टीम में श्री प्रबोध सी. शर्मा के अलावा वीरेंद्र कुमार, हनुमान एस. जाट, बलविंदर सिंह, महेश के. गठलाड़, राम के. मलिक, बलदेव आर. कंबोजे, अरविंद के. यादव, जगदीश के. लड्ढा, अनीता रमन, डी.के. शर्मा और एंड्रयू मैकडोनाल्ड शामिल थे। हाल ही में यह शोध एग्रीकल्चर, इकोसिस्टम्स ऐंड एन्वायरमेंट जर्नल में प्रकाशित किया गया है। 

 

(इंडिया साइंस वायर)

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